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India Speaks Daily > Blog > पाॅप कल्चर > लाइफ स्टाइल एंड फैशन > स्तनपान जैसी नैसर्गिक प्रक्रिया का बाजारीकरण!
लाइफ स्टाइल एंड फैशन

स्तनपान जैसी नैसर्गिक प्रक्रिया का बाजारीकरण!

Courtesy Desk
Last updated: 2018/03/04 at 9:00 AM
By Courtesy Desk 866 Views 5 Min Read
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5 Min Read
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सोनाली मिश्रा| कई दिनों से एक बार फिर से स्तनपान चर्चा में है। एक मैगजीन की फोटो पर एक मॉडल का चित्र है और उस पर लिखा है कि ‘मुझे घूरे नहीं’! हालांकि मैं चाह रही थी कि इस पर न लिखूं, क्योंकि साफ-साफ लिखने से आपको स्त्री विरोधी और न जाने क्या क्या करार कर दिया जाता है? मैं न जाने क्यों इन डिज़ाईनर मुद्दों के खिलाफ ही रहती हूँ?

जहां पर मेरा घर है वहां उच्च मध्यवर्गीय से लेकर निम्न मध्यवर्गीय और निम्नवर्गीय लोग मिल जाएंगे। जाहिर है, सबकी ड्रेस उसी के अनुसार होगी। महिलाएं भी हैं, हर समय कंस्ट्रक्शन चलता रहता है, राजगीरी का काम करने में बहुत स्त्रियाँ भी हैं, और उनमें से कई ऐसी भी हैं, जिनकी गोद में बच्चा होता है। बच्चा एक किनारे झूले पर सोता रहता है और उसके रोने पर वह आराम से उसे दूध पिलाती है। सड़क चलती रहती है, एक तरफ सीमेंट और बजरी मिलती रहती है, ईंटें ऊपर जाती रहती हैं, वह हँसते हुए बातें भी करती है और जैसे ही बच्चा सो जाता है, वह उसे सुलाकर दो मिनट बैठकर फिर से अपना काम करने लगती है। यकीन मानिए, जब वह स्तनपान कराती है उस समय उसे कोई भी नहीं घूरता और कम से कम मेरा तो अनुभव यही है कि स्तनपान कराती हुई महिला को कोई विकृत मानसिकता वाला ही घूर सकेगा।

मैं भी दो बच्चों की माँ हूँ, कई बार बाहर जाना हुआ। कई बार ऐसा हुआ जब बच्चा रोया और उस समय लोगों की सदाशयता ने स्तनपान सहज बनाया। समझ नहीं आता, कि इस प्रकार से स्तनपान को ग्लैमराइज़ कर कोई कहना क्या चाहता है? स्तनपान तो सहज कार्य है, सहज प्रक्रिया है, आप मेट्रो में सफर करिए, लोकल बस में सफ़र करिए, यदि कोई स्त्री स्तनपान करा रही है, तो लोग उससे दूर होकर खड़े हो जाते हैं, उसे इस प्रक्रिया को सहजता से पूरा करने देते हैं। बचपन से ही मैं बसों में सफ़र किया है, फिर चाहे वे रोडवेज की हों या भीड़ से भरी प्राइवेट बसें, सभी बसों में यदि कोई स्थिति दिखी तो मेरी याद में ऐसा नहीं आता कि उस समय विशेष पर स्त्री के अंग विशेष को घूरा गया हो। यदि कोई ऐसा करने का दुस्साहस करता भी था, तो उसकी वह स्थिति होती थी कि वह फिर ऐसी हरकत करने की सोचता भी नहीं।

दरअसल जब जब ऐसे ऐसे डिजाइनर मुद्दे उठते हैं, तब-तब स्त्रियों के वास्तविक मुद्दे कहीं पीछे चले जाते हैं। आज भी लड़कियों के साथ तमाम समस्याएँ हैं। मगर जब भी कोई महिला इस तरह से मुद्दे की मॉडलिंग करती हुई आती है, वहां पर लडकियां भी इसी चमक दमक का शिकार हो जाती हैं, और नेपथ्य में चली जाती हैं वे सभी समस्याएं जो वाकई में समस्याएं हैं। सच कहूं, तो लड़कियों को कभी शायद पता भी नहीं चल पाता कि आखिर उनकी समस्या है क्या? उनका शोषण क्या है और कौन कर रहा है? बाज़ार उन्हें किस तरह इस्तेमाल कर रहा है, किस तरह उन्हें अपने कब्ज़े में लेकर केवल फेयर एंड लवली का शिकार बना रहा है?

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आज भी गोरापन लड़कियों का सबसे बड़ा गुण बना हुआ है, आज भी किसी पुरुष को प्रसन्न करना उनका सबसे बड़ा गुण माना जाता है। आज भी आम अवधारणा है कि महत्वाकांक्षी स्त्रियाँ ही घर तोड़ने के लिए जिम्मेदार हैं, और आज छोटे से ही हम लड़कियों के मन में यह बात डाल देते हैं कि छोटे छोटे कपड़े आधुनिकता की निशानी है। समस्या स्तनपान को बढ़ावा देने से नहीं है, वह एक हंसती हुई मजदूर महिला भी दे सकती है, जो खुले में आराम से बैठकर अपने शिशु को स्तनपान करा देती है, मगर दुखद है कि आज भी हम किसी मजदूर महिला या कृषक महिला को नायिका के रूप में नहीं दिखा पाते, हम सौन्दर्य की नैसर्गिकता को बाजारू बनाने पर तुले हैं, हम स्तनपान जैसी नैसर्गिक प्रक्रिया को बाज़ार के हवाले कर रहे हैं। समस्या बाज़ार के हमारे दिमाग में समाने से है। स्तनपान और मातृत्व एक सहज प्रक्रिया है, उसे सहज ही रहने दें।

मॉम एंड मी के डिजाइनर उत्पादों से पहले भी हमारे यहाँ शिशुओं के सर के नीचे सरसों से भरा हुआ तकिया रखते थे ताकि खोपड़ी एकदम गोल रहे!

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