विपुल रेगे। राहुल वी.चित्तेला की फिल्म ‘गुलमोहर’ के अंत में टाइटलिंग में उभरता है ‘हम घोंसले बनाते हैं, उनमें रिश्ते सहेजते हैं।’ ये वाक्य ‘गुलमोहर’ का निचोड़ है। गुलमोहर होली के बाद खिलते हैं। होली की आंच में दमकते मुस्कराते चेहरें दूसरे दिन गुलाल-अबीर से लाल होते हैं। होली परिवार को जोड़ती है और तब ही रिश्तों के गुलमोहर महकते हैं। मनोज बाजपेयी, शर्मिला टैगोर, अमोल पालेकर की मुख्य भूमिकाओं से सजी ‘गुलमोहर’ मार्मिक है लेकिन वर्तमान की कालिख भी अपनी निष्कलंक देह पर लगा लेती है।
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दिल्ली के पाश इलाके में बत्रा परिवार 31 वर्ष से ‘गुलमोहर विला’ में साथ रह रहा है। ये रसूख़दार परिवार मकान एक बिल्डर को बेच चुका है। होली आने वाली है और घर का सामान पैक किया जा रहा है। घर से विदाई सभी सदस्यों को टीस दे रही है। ऐसे में घर की मुखिया एक प्रस्ताव रखती है। वह कहती है कि होली के ये चार दिन साथ में बिताए जाए ताकि मीठी यादें साथ लेकर इस घर से जाए। घर के सभी लोग साथ तो हैं लेकिन उनके अपने-अपने कमरों में अपने-अपने ‘घर’ बन गए हैं। संयुक्त परिवार टूटने की कगार पर है।
घर की मुखिया ‘कुसम बत्रा’ पांडिचेरी जा रही है। बेटा अरुण अपनी पत्नी के साथ कहीं फ़्लैट में रहने जा रहा है। अरुण का बेटा अपनी पत्नी के साथ अलग रहना चाहता है। घर की पुराने सामान से मिला एक पत्र अरुण की परेशानी बढ़ा देता है। राहुल वी.चित्तेला की ‘गुलमोहर’ रिश्तों की कहानी कहती है। आज के दौर में ऐसी फ़िल्में बनाना बड़ा जोखिम है। पारिवारिक फिल्मों का ट्रेंड हिन्दी बॉक्स ऑफिस पर लंबे समय से ठंडा पड़ा हुआ है। हालाँकि राहुल की ये फिल्म जबर्दस्त ढंग से प्रभावित करती है।
दर्शक को झकझोर देने का माद्दा ‘गुलमोहर’ में है। मनोज बाजपेयी की प्रशंसा क्या ही की जाए। वे अभिनय के क्षेत्र में हमारी अनमोल धरोहर है। एक बार फिर मनोज ने फिल्म समीक्षकों को स्पीचलेस कर दिया है। वे अपने कॅरियर में ढेर सारी फ़िल्में करें, दर्शकों की यही कामना रहती है। शर्मिला टैगोर के अभिनय में पुराने चावल की महक आती है। नए कलाकारों के साथ वे बड़ी सहजता से ट्यूनिंग बैठा लेती हैं। अमोल पालेकर हिला देते हैं। अमोल के किरदार को नकारात्मक बनाया गया है और उन्होंने जान डाल दी है। सिमरन और सूरज शर्मा भी प्रभावी रहे हैं।
मनोज वाजपेयी की उम्दा अदाकारी से स्पंदित ‘गुलमोहर’ के साथ एक दिक्कत है। ये दिक्कत आज के दौर की फिल्मों में अनिवार्यता से पाई जा रही है। फिल्म में एक किरदार समलैंगिक है। यदि ये किरदार समलैंगिक न होता तो भी कहानी में सूत बराबर अंतर नहीं पड़ता। हाँ समाज में ये विकृति तेज़ी से फ़ैल रही है और आप फिल्मों को समाज का आइना भी मानते हैं। इस तर्क को लेकर लगातार ऐसे किरदार फिल्मों में गढ़े जा रहे हैं और उन्हें सही सिद्ध करने का जस्टिफिकेशन भी दिया जा रहा है।
ये एक खूबसूरत फिल्म है। यदि ये किरदार फिल्म में न होता तो ये ‘मॉस’ की फिल्म बन जाती। ये परिवार के साथ बैठकर देखने वाली फिल्म बन जाती। बहरहाल ‘गुलमोहर’ फिल्म मेकिंग के दृष्टिकोण से एक सुपर्ब ड्रामा है और इसे देखा जाना चाहिए। फिल्म डिज्नी + हॉटस्टार पर रिलीज हुई है।