सोनाली मिश्रा। तहलका के पूर्व सम्पादक तरुण तेजपाल को अपनी ही सहकर्मी के यौन शोषण से रिहा करने के गोवा सेशन कोर्ट के फैसले खिलाफ मुम्बई उच्च न्यायालय ने आज बेहद कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा कि ऐसा लगता है कि यह निर्णय “बलात्कार पीड़ितों के लिए एक मैन्युअल है। यह पीड़ितों के व्यवहार पर एक मैन्युअल है। इसमें अपील करने की भारी सम्भावना है।”
जस्टिस एस सी गुप्ता की एकल बेंच सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता की अपील पर आज सुनवाई कर रही थी। गोवा सरकार ने सेशन कोर्ट का अजीब निर्णय आते ही घोषणा कर दी थी कि वह इस फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय में जाएंगे। तरुण तेजपाल को बाइज्जत बरी करते हुए कहा था कि चूंकि अभियोजिका ने जिस लिफ्ट में यौन शोषण का आरोप लगाया है, वह उस लिफ्ट से हंसती हुई निकली थीं, तो यौन शोषण कैसे हो सकता है?”
इतना ही नहीं महिला जज क्षमा एम जोशी ने सीसीटीवी फुटेज पर भी प्रश्न उठाए और कहा कि ऐसा लगता है जैसे जानबूझकर सीसीटीवी के फुटेज मिटाए गए हों। 527 पृष्ठ के इस निर्णय के पृष्ठ संख्या 437 में क्षमा एम जोशी ने लिखा है कि सुनवाई की अंतिम तारीख तक अभियोजन पक्ष ने कोर्ट के सामने पहले फ्लोर की सीसीटीवी फुटेज नहीं दिखाई है, जिससे यह दिखाई देता है कि या तो सीसीटीवी फुटेज को जांच करने वाले अधिकारी द्वारा नष्ट कर दिया गया है क्योंकि यह या तो आरोपी की रक्षा की पुष्टि करता है या डीवीआर में सीसीटीवी फुटेज है और यह आरोपी के बचाव की पुष्टि करता है। अर्थात इसमें कोर्ट की ओर से जांच अधिकारी पर उंगली उठाई गयी है कि जानबूझकर सबूत नष्ट किए गए।
हालांकि इससे पहले क्षमा एम जोशी ने अपने फैसले में पीड़िता को ही कठघरे में खड़ा किया था। उसके पूर्व के यौन व्यवहारों को आधार बनाया था तथा कई शर्मिन्दा करने वाले प्रश्न पूछे थे। पृष्ठ संख्या 243 से लेकर 246 तक अभियोजिका के व्हाट्सएप मेसेज के विषय में बात की गयी है और कहा गया है कि यह तो पीड़िता की आदत थी कि वह आरोपी तथा और लोगों के साथ सेक्सुअल बातें किया करती थी। और यौन परक सम्वाद किया करती थी। पृष्ठ संख्या 246 पर लिखा है कि
“मेसेजिंग रिकार्ड्स दिखाते हैं कि अभियोजिका के लिए दोस्तों एवं परिचितों के साथ ऐसे फ्लर्टियस एवं यौनिक सम्वाद करना नितांत आम बात थी। अत: आभियोजिका के व्हाट्सएप चैट और दोस्तों एवं परिचितों के साथ यौन संवाद करने की उसकी आदत तथा उसकी यह स्वीकृति कि आरोपी भी उसके साथ ऐसी ही बातें करता था, अर्थात यौनिक संवाद या सेक्स के विषय में बात करना या इच्छा जाहिर करना, क्योंकि आरोपी उस से उसके काम के स्थान पर यही बात करता था, यह साबित करता था कि आरोपी और अभियोजिका के मध्य दिनांक 7 नवम्बर 2013 की रात को भी ऐसा ही संवाद हुआ था।
इस निर्णय में बार बार अभियोजिका के शराब पीने पर जोर दिया गया है। एवं पृष्ठ 253 पर यह कुछ तथ्यों के आलोक में यह कहा गया है कि अभियोजिका ने हल्की शराब पी थी। हालांकि पीड़िता ने शोमा चौधरी को लिखे गए ईमेल में कहा था कि उसने 7 नवम्बर की रात को हल्की शराब ली थी। परन्तु इससे पूर्व पीड़िता ने इस बात को यह कहकर छिपाने का प्रयास किया था कि उसे याद नहीं है कि उसने 7 नवम्बर 2013 को शराब पी थी या नहीं।
इससे आगे निखिल अग्रवाल का भी उल्लेख है। पीड़िता ने कहा था कि वह उसका परिचित है, और उसकी पक्की सहेली टिया तेजपाल का मित्र है, इसलिए अब उसका भी मित्र हो गया है। हालांकि न्यायालय में निखिल अग्रवाल ने यह स्वीकार किया कि अभियोजिका और निखिल अग्रवाल के सेक्सुअल सम्बन्ध हैं। (जबकि इसका इस मामले से कोई सम्बन्ध नहीं है, वह पीड़िता का निजी मामला है)
इसके बाद बिंदु संख्या 154 पर क्षमा एम जोशी द्वारा दिए निर्णय में लिखा है कि इन चैट का उद्देश्य यह दिखाना नहीं है कि अभियोजिका का चरित्र कैसा है बल्कि यह दिखाना है कि अभियोजिका झूठ बोल रही है। यह विश्वास करना कठिन है कि अभियोजिका एक विश्वसनीय एवं भरोसेमंद गवाह है।
आगे निर्णय में पृष्ठ संख्या 259 पर लिखा है कि अभियोजिका ने यह माना है कि वह निखिल अग्रवाल की मौजूदगी में नहीं रोई। यह भी कहा गया है कि पीडब्ल्यू (गवाह)1 का यह कहना कि चूंकि आरोपी द्वारा तुरंत ही किये गए यौन शोषण के कारण वह सदमे की स्थिति में थी और वह बोल नहीं पा रही थी, बेहद अविश्नीय है क्योंकि अभियोजिका ने यह दावा किया था कि लिफ्ट से बाहर निकलने पर वह आंसू पोंछ रही थी और वह तुरंत ही एक शारीरिक संघर्ष से बाहर आई थी। इसलिए यदि वह निखिल से मिली, जो उसके इतना करीबी था, जो आज उसके साथ खड़ा है, तो उसने निखिल से उसी समय क्यों कुछ नहीं कहा या रोई क्यों नहीं?
उसके बाद अभियोजिका के अंत:वस्त्र उठाने और ऊपर करने अर्थात “picking up और pulled up” पर भी निर्णय में प्रश्न उठाते हुए कहा गया है कि “ऐसे स्पष्ट विरोधाभास पीडब्ल्यू 1 जैसे शिक्षित पत्रकार से अपेक्षित नहीं हैं एवं यह न्यायालय को यह विश्वास करने पर विवश करते हैं कि यह बलात्कार नहीं है।”
इतना ही नहीं इस निर्णय में अभियोजिका का ईमेल आईडी भी दे दिया गया है, जिसके कारण उसकी पहचान उजागर हो रही है। हालांकि मुम्बई उच्च न्यायालय ने पिछले सप्ताह इस निर्णय से वह सभी भाग हटाने के लिए कहा है जिनसे पीडिता की पहचान स्पष्ट होती है।
निर्णय में यह भी है कि जब पीडब्ल्यू 1 ने यह कहा कि चूंकि वह सात वर्षों से एक पत्रकार के रूप में कार्य कर रही है, अत: वह अपना ईमेल का एक्सेस इसलिए नहीं दे सकती है क्योंकि उसके स्रोतों का जीवन और पहचान खतरे में आ जाएगी। यह दिखाता है कि अभियोजिका कुछ छिपाना चाहती है और इस प्रकार अभियोजिका को एक विश्वसनीय व्यक्ति नहीं माना जा सकता है। जबकि पीड़िता ने न्यायालय में यह बताया कि इस मामले से सम्बन्धित हर दस्तावेज़ और मोबाइल फोन वह पहले ही जमा कर चुकी है।
इस निर्णय में पीड़िता के शारीरिक रूप से स्वस्थ होने पर भी प्रश्न उठाए हैं, अर्थात यह कहा गया है कि यह अविश्वनीय है कि आखिर पीड़िता (अभियोजिका) को कोई भी चोट क्यों नहीं लगी जबकि उसने प्रतिरोध किया था। अभियोजिका ने यह भी कहा कि उसने आरोपी को नोचने का प्रयास नहीं किया था।
इसके बाद पृष्ठ 292 पर यह पूछा गया है कि यदि उसका मुंह तेजपाल की ओर नहीं था तो वह अपनी जीभ को उसके मुंह में कैसे डाल सकता है? क्या उसने अपना जबड़ा तेजी से बंद नहीं किया था और आखिर उसने यह सब करने से पहले क्यों उसे धकेला नहीं? इसलिए यह केवल एक कहानी है जिस पर विश्वास नहीं किया जा सकता है!
इसके साथ ही आगे जाकर यह कहा गया है कि एक गवाह पर इसलिए विश्वास नहीं किया जा सकता है क्योंकि वह अभियोजन पक्ष से दोस्ती करना चाहता था।
न्यायालय ने कहा कि पीड़ित महिला के जो मेसेज हैं वह यह स्थापित करते हैं कि वह न ही “डरी हुई है और न ही वह सदमे में है।”
इसके साथ ही पृष्ठ 297 पर क्षमा एम जोशी ने उस माफी वाले ईमेल पर प्रश्न उठाए हैं। तरुण तेजपाल ने मामले को शांत करने के लिए या कहें संस्थान के स्तर पर ही मामला सुलझाने के उद्देश्य से एक ईमेल भेजा था। न्यायालय ने उस ईमेल को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि चूंकि बचाव पक्ष यह साबित करने में विफल रहा है कि यह ईमेल स्वैच्छिक था एवं यह अभियोजिका पर यौन शोषण होने का कन्फेशन है। फिर उन्होंने कन्फेशन की परिभाषा देते हुए कहा कि संक्षेप में एक कन्फेशन को ऐसे व्यक्ति द्वारा अपराध की स्वीकृति कहा जा सकता है, जिस पर अपराध का आरोप है।
फिर कहा गया कि यह मेल किसी भी प्रकार से यह नहीं साबित करता है कि आरोपी ने अभियोजिका के साथ कोई गलत व्यवहार किया है। निर्णय में यह कहा गया है कि यह मेल इस कारण लिखा गया था, ताकि इसे संस्थान के स्तर पर ही निपटा दिया जाए। इसलिए यह मानते हुए कि यह मेल आरोपी की इच्छा के विरुद्ध भेजा गया था, तो इसे भारतीय प्रमाण अधिनियम की धारा 24 के अंतर्गत खारिज किया जाता है।
इतना ही नहीं, इसमें कहा गया है कि चूंकि अभियोजिका के व्यवहार से यह लगा ही नहीं कि उसका यौन शोषण हुआ है, और उसके जो मेसेज हैं वह भी यह स्थापित नहीं करते हैं कि वह डरी या सहमी हुई है।
कुल मिलाकर इस पूरे मामले में जो निर्णय आया है वह तथ्यों को पीडिता के पिछले यौन व्यवहारों के आलोक में देखने सन्दर्भ में आया है। जिस पर
पहला यौन कुंठित मामला नहीं है:
ऐसा नहीं है कि यह पहला ही मामला था जिसमें यौन कुंठा से पीड़ित की झलक मिली हो। ऐसा ही एक निर्णय और आया था मुम्बई उच्च न्यायालय द्वारा। न्यायमूर्ति पुष्पा गनेडीवाला ने 29 जनवरी को अपने फैसले में कहा कि नाबालिग का हाथ पकड़ना या फिर उस वक्त अभियुक्त की पैंट की ज़िप खुला होना, पौक्सो अधिनियम में प्रदत्त यौन उत्पीड़न से बच्चों की सुरक्षा की धारा 7 के अंतर्गत परिभाषित किये गए यौन उत्पीडन की श्रेणी में नहीं है।
इससे पहले पुष्पा गनेडीवाला ने 15 जनवरी को एक और विवादास्पद निर्णय दिया था जिसमें यह कहा गया था कि बिना कपड़े उतारे बच्चे के स्तन को छूने से पोक्सो अधिनियम की धारा 8 में अर्थ में यौन उत्पीड़न नहीं होता है। अर्थात यदि आरोपी ने पीडिता के स्तन को दबाया है, परन्तु उसके कपडे नहीं उतारे हैं तो उसे यौन उत्पीडन नहीं माना जाएगा।
उन्होंने कहा था कि कपड़े के ऊपर से बच्ची की छाती दबाना और इस दौरान त्वचा का त्वचा से न छूना, पैंट उतारना या नाबालिग का हाथ पकड़ना, एक आदमी के लिए एक लड़की का गला दबाना, उसे निर्वस्त्र करना, खुद को निर्वस्त्र करना और फिर हाथापाई के बिना 15 साल की लड़की का दुष्कर्म करना असंभव है। और यही कारण है कि यह पौक्सो क़ानून के अंतर्गत यौन हमले की श्रेणी में नहीं आता है।
यह तीन निर्णय ऐसे हैं जो पूरी तरह से यौन विकृत अवधारणाओं को प्रदर्शित करते हैं। जहाँ हाल ही में दिया गया तरुण तेजपाल वाला निर्णय पूरी तरह से स्त्री के आचरण एवं पूर्व में किए गए यौन आचरण तथा पूर्व स्थापित धारणाओं पर आधारित है तो वहीं शेष दो निर्णय भी धारणाओं पर ही आधारित हैं। कि ऐसा हो ही नहीं सकता।
यह हो ही नहीं सकता, वाली जो धारणाएं हैं, वह तथ्यों के आधार पर नहीं होती हैं, वह स्वयं की सोच के आधार पर होती हैं। जैसे ही यह तीनों निर्णय आए थे वैसे ही आम जनता में क्रोध की एक लहर दौड़ गयी थी। स्किन तू स्किन टच वाले मामले में उच्चतम न्यायालय ने रोक लगाई थी तो वहीं तरुण तेजपाल वाला निर्णय आते ही अचंभित गोवा सरकार तत्काल ही मुम्बई उच्च न्यायालय में गयी।
मुम्बई उच्च न्यायालय ने सबसे पहले पीड़िता की निजता का सम्मान करते हुए निर्णय से वह सभी तथ्य हटाने के लिए कहा जिनसे पीड़िता की पहचान प्रदर्शित हो रही थी। तरुण तेजपाल वाला निर्णय एक ऐसा निर्णय था जिसमें स्त्री को ही जैसे उसके बलात्कार के लिए दोषी ठहराया है। जैसे जज एक सूक्ष्मदर्शी लेकर पीड़िता के चरित्र का आंकलन कर रही हों, या फिर बलात्कार पीडिता के लिए दिशानिर्देश निर्धारित कर रही हों।
आज के समय में जब सहज हास्य बोध में भी लड़कियों और लड़कों के मध्य संवाद चुटीला हो जाता है, तो ऐसे में फ्लर्ट क्या है और अश्लील क्या है, यह कौन निर्धारित करेगा? क्या जज का कार्य एक ऐसे समाज की संरचना करना है जहाँ पर लड़की बलात्कार या यौन उत्पीडन की शिकायत लेकर जा ही न पाए, जहाँ पर एक लड़की के साथ बलात्कारी या यौन उत्पीड़क को मात्र इसलिए छोड़ दिया जाए कि उसके किसी और व्यक्ति के साथ सम्बन्ध रहे हैं?
जब इस निर्णय में यह कहा गया कि “पीडिता के व्यवहार से यह नहीं लग रहा था कि वह सदमे में है!” तो यह हमें एक ऐसी कबीलाई मानसिकता में पहुंचा देता है जहाँ पर लड़की मात्र एक वस्तु है और और ऐसी वस्तु जिसे छुए जाने पर उसे नष्ट हो जाना चाहिए। जहाँ पर एक बलात्कार पीडिता को तथ्य नहीं बल्कि अपने साथ अपनी पवित्रता के गवाह लाने हों, और वह एक ऐसी मानसिकता में ले जाता है जहाँ पर औरतों का बाहर निकलना, शौकिया मद्यपान करना, सम्बन्धों में प्रसन्न रहना और किसी भी मुसीबत का हंसकर सामना करना, दिमाग से शिक्षित होना एक अभिशाप है।
एक बहुत बड़ा प्रश्न उठता है कि जब जज साहिबा बार बार उस लड़की के चरित्र पर उंगली उठा रही थीं, और उसके पूर्व यौनाचारण के विषय में बात कर रही थीं तो क्या उन्होंने एक बार भी तरुण तेजपाल के पूर्व के यौनाचारण के विषय में प्रश्न किया? क्या उसके पूर्व के यौन सम्बन्ध खंगाले? क्या तरुण तेजपाल के राजनीतिक सम्बन्धों के विषय में प्रश्न किये? नहीं! तो फिर एक लड़की के ही यौनाचारण पर प्रश्न कैसे उठाए गए?
क्या हम ऐसे समाज की कल्पना कर सकते हैं जहाँ पर एक लड़की महज इस कारण न्यायालय में न्याय लेने न जा पाए या कोई बच्ची जिसे अभी तक स्पर्शों का अर्थ ही नहीं पता है, वह यह न समझ पाए कि आखिर उसे क्यों और किसने छू लिया? उससे किसने क्या काम करा लिया और जब उसे यह पता चले तो वह पूरी ज़िन्दगी सामान्य जीवन ही न जी पाए?
क्या जज का मंतव्य यह था कि लड़की बलात्कार या यौन शोषण के बाद जाए और आत्महत्या कर ले? या फिर वह अपना मुंह छिपाकर बैठी रहे? क्या फिल्मों की तरह वह जाती और सागर में जाकर डूब जाती फिर पता चलता कि उसके साथ यौन शोषण हुआ? इससे पहले भी कई मामले ऐसे हो चुके हैं, जैसे राकेश बी वाले मामले में हुआ था कि ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई भारतीय स्त्री बलात्कार के समय सो जाए?”
मतलब हम कैसे समाज में रह रहे हैं? आखिर विकृत यौन धारणाओं के आधार पर यह कब तक सोचा जाता रहेगा कि बच्चियों के वक्ष दबाना अपराध नहीं है या फिर लड़की यदि सदमे में नहीं है तो उसके साथ यौन शोषण नहीं हुआ। आज उच्च न्यायालय ने सही ही कहा है कि “गोवा न्यायालय का निर्णय रेप मैन्युअल की तरह है।”