देश की राजधानी दिल्ली के वीआईपी इलाके में जिस तुगलक वंश के सुल्तान फिरोजशाह तुगलक के नाम पर आज भी सड़क है, वह हिंदुओं के प्रति इतना क्रूर था कि इस्लाम न अपनाने पर उन्हें जिंदा जला देता था। मूर्ति पूजा उसके राज्य में हराम था, जो हिंदू मूर्ति पूजा करते पाया जाता था, उसे वह तड़पा-तड़पा कर मारता था। वह तलवार के बल पर इस्लाम का राज्य स्थापित करना चाहता था, इसलिए काफिरों को उसके राज्य में सार्वजनिक रूप से तो छोडि़ए, अपने घरो में भी मूर्ति पूजा की इजाजत नहीं थी।
धर्मांतरण के प्रति उसकी कट्टरता को खुद उसके दरबारी इतिहासकारों ने ही उजागर किया है, लेकिन आश्चर्य है कि वामपंथी इतिहासकारों ने राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) और राज्य बोर्ड की मध्यकालीन इतिहास की पुस्तकों से मुस्लिम शासकों की क्रूरता के तत्कालीन दस्तावेजों को गायब कर दिया है, जबकि वह आज भी मौजूद हैं।
फिरोजशाह तुगलक का दरबारी इतिहासकार शमसुद्दीन बिन सिराजुदृीन ने अपने ग्रंथ ‘तारीखे फिरोजशाही’ में एक घटना का जिक्र करते हुए लिखा है- “सुल्तान को एक खबर पहुंचाई गई कि दिल्ली में एक ऐसा वृद्ध ब्राह्मण (जुनारदार) था जो सरेआम अपने घर में मूर्तियों की पूजा करता था। नगर के लोग मूर्तियों की पूजा करने के लिए उसके घर में जाया करते थे, जिसमें हिंदू तो होते ही थे, कुछ मुसलमान भी होते थे। ब्राह्मण ने एक फलक (मुहरका) बनवा रखा था, जो भीतर से और बाहर से राक्षसों के और दूसरे प्रकार के चित्रों से ढंका था। बादशाह को जब यह सूचना मिली तो उसने एक आदेश जारी किया, जिसके अनुरूप उस ब्राह्मण को फिरोजाबाद में सुल्तान के दरबार में पेश किया गया। सुल्तान ने न्यायधीशों, धर्माचार्यों, सभा सदस्यों और वकीलों को उनकी राय रखने के लिए दरबार में बुलाया। उन सभी का जवाब था कि कानूनी प्रावधान स्पष्ट है कि या तो ब्राह्मण को मुसलमान बनना होगा, या उसे जला दिया जाना चाहिए। उसे (ब्राह्मण) सच्चा ईमान (सच्चा धर्म इस्लाम) स्पष्ट है और वही सही रास्ता है और उसे इस्लाम को अपनाना होगा। लेकिन ब्राह्मण ने इनकार कर दिया।
“इसके बाद बादशाह ने दरबार के द्वार पर लकडियों का ढेर लगाने का आदेश दिया। ब्राह्मण के हाथ-पैर को बांधकर उसे उस ढेर में डाल दिया गया। फलक को सबसे ऊपर रखकर ढेर को आग लगा दी गई। इस किताब के लेखक ( ‘तारीखे फिरोजशाही’ के लेखक शमसुद्दीन बिन सिराजुदृीन) दरबार में मौजूद था और उसने अनी आंखों से प्राणदंड दिए जाने का दृश्य देखा।
“ब्राह्मण के फलक को दो जगह पर आग लगाई गई, उसके सिर और उसके पांवों की तरफ। लकडि़यां सूखी थीं और आग पहले उसके पांवों तक पहुंची, जिससे उसकी चीख निकल गई। लेकिन शोलों ने जल्द ही उसके सिर को अपनी चपेट में ले लिया और उसे स्वाहा कर डाला। सुल्तान के कानून और सदाकत पर टिके रहने पर गौर कीजिए। वे कानून के फरमानों से जरा भी विचलित नहीं हुए।”
एनसीईआरटी की ‘मध्यकालीन भारत’ के इतिहास की पुस्तक मशहूर वामपंथी इतिहासकार सतीशचंद्रा ने लिखी है। सतीशचंद्रा लिखते हैं- “तलवार के बल पर लोगों को मुसलमान नहीं बनाया गया। यदि ऐसा हुआ होता तो दिल्ली क्षेत्र की हिंदू आबादी केा सबसे पहले मुसलमान बनाया जाता। मुस्लिम शासकों को यह एहसास हो गया था कि हिंदू धर्म इतना मजबूत है कि उसे ताकत से नष्ट नहीं किया जा सकता। दिल्ली के प्रसिद्ध सूफी संत शेख निजामुद्दीन औलिया का कहना था कि ‘कुछ हिंदू यह जानते हैं कि इस्लाम सच्चा ईमान है, लेकिन वे इस्लाम को कूबुल नहीं करते।’ बरानी का भी यह कहना है कि ताकत को इस्तेमाल करने की कोशिश का हिंदुओं पर कोई असर नहीं पड़ा।”
धर्म परिवर्तन कराए जाने के बारे में सतीशचंद्रा स्पष्टीकरण देते हैं- “इस्लाम में धर्म परिवर्तन राजनीतिक लाभों या आर्थिक फायदों के लिए कराया जाता था या व्यक्ति अपनी सामाजिक स्थिति को सुधारने के लिए धर्म परिवर्तन करता था। कभी-कभी ऐसा भी होता था कि जब कोई बड़ा शासक या कबीले का प्रमुख अपना धर्म परिवर्तन कर लेता था तो उसकी प्रजा भी उसके दृष्टांत का अनुकरण करती थी।”
सतीशचंद्रा आगे कहते हैं- “कभी-कभी सूफी संतों की भी धर्म परितर्वन कराने में भूमिका रहती थी, हालांकि आमतौर पर उनका धर्म परिवर्तन कराने से कोई सरोकार नहीं होता था और वे अपने प्रवचनों में हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों का स्वागत करते थे।”
अरुण शौरी अपनी पुस्तक ‘जाने-माने इतिहासकार: कार्यविधि, दिशा और उनके छल’ में लिखते हैं, “यदि ये लब्धप्रतिष्ठ इतिहासकार महोदय इन सूपिफयों के वृत्तांतों को पढ़ें तो उन्हें यह मालूम हो जाएगा कि वे किस तरह इस्लाम की सेनाओं के अग्रदूतों का काम किया करते थे।”
शौरी आगे लिखते हैं- “जो कुछ स्वयं उस समय के मुस्लिम इतिहसकारों ने कहा था, उससे हमारे इन इतिहासकारा महोदय के उक्त दावों का तालमेल कहां तक बैठता है। उन मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार ये ‘कभी-कभार की चूकें’ कितनी होती थीं। और सबसे जरूरी बात यह है कि उनके कथनानुसार उस समय के शासकों को कौन-सा प्रयोजन प्रेरित करता था।”
चौथी से 12 वीं तक पढ़ने वाले न केवल हमारे बच्चे, बल्कि आईएएस/ आईपीएस जैसी नौकरशाही की परीक्षा पास करने वाली युवा पीढ़ी भी सतीशचंद्रा जैसे झूठ लिखने वाले वामपंथी इतिहासकारों की पुस्तकें पढ़ कर हमारे देश के नीति नियंता बन रहे हैं। छोटे बच्चों के दिमाग में बचपन से झूठ डालने का वामपंथी अभियान देश की आजादी के बाद से ही चल रहा है ताकि बचपन से यह बोध विकसित किया जा सके कि ‘भारत’ नाम का कोई राष्ट्र कभी था ही नहीं और हिंदू धर्म जैसी कोई संस्कृति कभी वजूद में ही नहीं थी।
सोच कर देखिए, वामपंथी इतिहासकार झूठ लिख-लिख कर किस तरह हमारी पूरी पीढ़ी को गुमराह कर रही हैं ताकि उनके अंदर अपने देश, संस्कृति, सभ्यता के प्रति लगातार हीन भावना पनपे। सतीशचंद्रा जेएनयू में इतिहास के प्रोफेसर रह चुके हैं; उसी जेएनयू में जहां के छात्र-छात्राओं के अंदर ‘भारत की बर्बादी’ और ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ का स्वप्न पलने लगा है और ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ के नाम पर भारत की संप्रभुता को चुनौती दी जाने लगी है। यह जेएनयू के उन प्रोफेसरों के झूठे इतिहास बोध से पनपा है, जिसे यदि नहीं रोका गया तो अभी जो लपटें जेएनयू व यादवपुर विश्वविद्यालय कैंपस में दिखायी दी हैं, वह पूरे देश में लगते देर नहीं लगेगी। वैसे भी 68 साल से यह जहर अपनी युवा पीढ़ी में बोया जा रहा है।
साभार: सारा तथ्य अरुण शौरी की पुस्तक ‘जाने-माने इतिहासकार: कार्यविधि, दिशा और उनके छल’ के अध्याय- ‘परोक्ष रूप से झूठ फैलाओ, और सच का रुपांतर कर दो’से। (पृष्ठ संख्या- 99 से 100)