“माया-विशिष्ट चेतन” श्री हरिः हैं , तीन रूप में प्रकट भये ;
ब्रह्मा , विष्णु , महेश यही हैं , रचना, पालन , संहार किये ।
“माया-विशिष्ट चेतन” को समझना,स्वयं से इन्हें मिलाना है ;
“तत्वम् पदार्थ का शोधन” करके , एक रूप हो जाना है ।
हालांकि ये सब मायावी , माया का ही खेला है ;
तीनों काल में कहीं नहीं है , केवल ” मैं ” निपट अकेला है ।
जाग्रत, स्वप्न ,सुषुप्ति ये तीनों , आपस में कट जाते हैं ;
सदा नहीं जो एकरस रहते , मायावी कहलाते हैं ।
जीव,जगत,जगदीश नहीं हैं, इनका अत्यंताभाव ही जानो ;
माया में सब भास रहे हैं , इन सबको सपना सा मानो ।
सत्यम , ज्ञान , मनंतर कहते , एक “ब्रह्म” ही केवल है ;
उसी की शक्ति ये माया जानो , तीन गुणों की हलचल है ।
त्रिगुणमयी ये माया होती , गुण से गुण ही बरता करते ;
सारी सृष्टि प्रकट हो जाती , बीज – रूप में सारे रहते ।
जब – तक है अज्ञान जीव में , जनम – मरण का फेरा है ;
गुरु की कृपा जिसे मिलती है , उसने ही तोड़ा फेरा है ।
अपना – ज्ञान नहीं है जिसको , जीव – भाव में रहता है ;
गुरु की कृपा से स्वयं को जाना , परम – भाव ही रहता है ।
जब तक रहता सुख से रहता , जीवन-मरण एक हो जाते ;
परमानंद उसे मिलता है , सब – रस फीके हो जाते ।
गुरु की कृपा से अनुभव होता , केवल” मैं “ही “मैं” ही है ;
“मैं ” के सिवा और न दूजा , दूजा सब माया ही है ।
माया उसी को कहते हैं , जिसका अस्तित्व नहीं होता ;
केवल भासा ही करता है , जैसे अपना सपना होता ।
केवल इतनी सी बात जानना , जन्म-करोड़ों लग जाते हैं ;
पर जो बैठे “ज्ञान की नौका” , भवसागर तर जाते हैं ।
“ज्ञान की नौका”” गुरु-कृपा” है , “ईश-कृपा” से मिलती है ;
“ईश-कृपा” उसको मिलती है , सुकृत की गठरी होती है ।
तेरे हाथों में सुकृत को करना , जो भी करता रहता है ;
कई – जनम के एकत्रित हो , “ईश-कृपा” दिलवाता है ।
“ईश-कृपा” से “गुरु-कृपा” है,”गुरु-कृपा” से “आत्म-कृपा” ;
जीव,जगत,जगदीश न रहता,केवल रहती है “मैं” की सत्ता।
” तस्मै श्री गुरुवे नमः”
कृपा-पात्र : ब्रजेश सिंह सेंगर “विधिज्ञ”