: ब्रजेश सिंह सेंगर
एकमेव बस अधिष्ठान है , शेष सभी अध्यस्त हैं ;
परमब्रह्म ही अधिष्ठान हैं , जीव-जगत-जगदीश न्यस्त हैं ।
“माया-विशिष्ट चेतन” श्री हरि: हैं, ये ही जगदीश्वर कहलाते ;
मायाधीश इन्हीं को जानो , सारी सृष्टि यही दिखलाते ।
सारी-सृष्टि इन्हीं का सपना , होता-हवाता कुछ भी नहीं ;
अज्ञान की निद्रा जब तक रहती, ज्ञान-चक्षु खुलता ही नहीं ।
अज्ञान से हमको गुरु जगाता , दूजा कोई मार्ग नहीं ;
जिस पर ईशकृपा होती है , उसको मिलने गुरु वहीं ।
गुरु ही शिष्य को ढूॅंढा करता , शिष्य की कुछ औकात नहीं ;
सच्चे-गुरु बहुत दुर्लभ हैं , आसानी से मिलें नहीं ।
ब्रह्मनिष्ठ श्रोतीय गुरु ही , मुक्ति का मार्ग बताते हैं ;
श्रृद्धावान मुमुक्ष शिष्य जो , सब-कुछ गुरु से पाते हैं ।
श्रवण-मनन-निदिध्यासन करके , पूर्ण-ज्ञान पा जाते हैं ;
अंतिम-जनम हो जिस मानव का , इसी मार्ग पर आते हैं ।
ज्ञान-समाधि उन्हीं की लगती , परमानंद जहाॅं है केवल ;
जीव-जगत-जगदीश न रहता , मिट जाते हैं सारे मल ।
अपरिछिन्न “मैं” रहता केवल , द्वैत सभी मिट जाता है ;
हर मानव का लक्ष्य यही है , असंख्य-जन्म में पाता है ।
त्रिगुणमयी माया ईश्वर की , सब-कुछ इसी का खेला है ;
अनहोनी होनी सी लगती , अज्ञान का पूरा झूला है ।
ईश्वर ने तुमको स्वप्न दिया है , इसी सूत्र से आगे बढ़ना ;
इसी स्वप्न का सूत्र पकड़कर , स्वप्नवत संसार समझना ।
अदृढ़-बोध हो सकता इससे , दृढ़-बोध गुरु करवायेगा ;
ईश-कृपा की कोशिश करना , ईश्वर गुरु मिलायेगा ।
सारा-स्वार्थ त्यागना होगा , निष्काम-कर्म करते जाओ ;
पाप-पुण्य दोनों से बचना , निश्चित ईश-कृपा पाओ ।
ईश-कृपा से गुरु मिलेगा , उसकी कृपा को पाना है ;
लगातार पुरुषार्थ को करना , श्रद्धा व धैर्य से पाना है ।
अंतिम-लक्ष्य जो आत्म-कृपा है , गुरु की कृपा से पाना है ;
आत्म-कृपा ही परम-लक्ष्य है , जीवन-मुक्त हो जाना है ।
अत्यन्ताभाव सभी का होगा , निर्मल “मैं” रह जाना है ;
जीव-जगत-जगदीश न होगा , केवल “मैं” रह जाना है ।
कहीं से भी परिछिन्न नहीं है , सबका “मैं” इसको जानो ;
अपरिछिन्न “मैं” इसी को कहते, परम-ज्ञान इसको मानो ।
ये आसानी से न समझेगा , जीव बड़ा अज्ञानी है ;
यूॅं ही मरता-खपता रहेगा , ये ही अकथ-कहानी है ।