एक बुजुर्ग आदमी सड़्क के किनारे बैठ चाय बेच रहा है. आप सोचेंगे कि अरे, मजबूरी भी कैसी चीज़ है, जो इंसान को बुढापे में भी रोज़ी रोटी की जद्दोजहद में पीस डालती है. आप के मन में उस बुज़ुर्ग के प्रति शायद कुछ दया के भाव उमड़ेंगे . लेकिन फिर आप सोचेंगे कि ऐसे तो कितने ही लोगों को एक उम्र गुज़रने के बाद भी अपनी आजीविका के लिये न जाने क्या क्या करना पड़्ता है. तो भई यह तो किस्मत की बात है.
लेकिन अब कहानी को थोड़ा और आगे बढाते हैं. अब हम आपको बताते हैं कि लक्ष्मण राव जी सड़्क किनारे बनी जिस पटरी पर चाय बेचते हैं, वहां किताबों का एक स्टाल लगा हुआ है. और दिल्ली के आई टी ओ क्षेत्र में जाने माने हिंदी भवन की बिल्डिंग के ठीक बाहर यह चाय की दुकान और स्टाल है. यहां चाय पीने आने वाला हर दूसरा व्यक्ति इन किताबों की तरफ बड़े ही कौतूहल से देखता है. और फिर कुछेक लोग कोई न कोई किताब खरीद भी लेते हैं.
यह किताबें खुद लक्ष्मण राव जी ने लिखी हैं. बल्कि वे एक जाने माने लेखक हैं. साहित्यिक गलियारों में मशहूर न सही लेकिन लक्ष्मण राव को देश-विदेश के कई लोग जानते हैं. उनके ऊपर नेशनल मीडिया से लेकर तमाम अंतराष्ट्रीय मीडीया ने स्टोरीज़ कर रखी हैं. और यह लोगों के बीच भारत के टी सेलर आंथर यानि चाय बेचने वाले लेखक के रूप में प्रसिद्ध हैं.
लक्ष्मण राव की जीवन यात्रा बेहद दिलचस्प है. वे महाराष्ट्र के अमरावती शहर के एक छोटे से गांव से संबंध रखते हैं जहां उनका जन्म हुआ था. साहित्य और लेखन के प्रति अपने जुनून के चलते लक्ष्मण राव 1975 में दिल्ली आ गये. यहां उन्होने गुज़र बसर के लिये क्या क्या नहीं किया; कंस्ट्र्क्शन साइटों पर मज़दूर का काम किया, होटलों में बरतन मांजे. वे दिन में मज़दूरी करते थे और रात में लिखते थे. उनके पास नई किताबें खरीदने के लिये तो पैसे थे नहीं. इसीलिये वे अक्सर दरियागंज के रविवार को लगने वाले पुरानी पुस्तकों के बाज़ार जाया करते थे. और वहां घंटों रहते थे. उसी बाज़ार की किताबों के माध्यम से ही वे शेक्स्पियर, लियो टांल्स्टाय जैसे महान लेखकों की लेखनी से अवगत हुये.
आखिर उनकी यह मेहनत रंग लाई और करीब दो साल बाद के भीतर उन्होने बहुत से उपन्यास लिख डाले . लेकिन अभी तो ये संघर्ष की शुरुआत मात्र थी. प्रकाशकों ने उनकी गरीबी का मज़ाक उड़ाया और किसी ने भी उनके उपन्यासों को प्रकाशन हेतु स्वीकार नहीं किया. हमारे भारतीय समाज में आज भी यह संकुचित धारणा है कि सिर्फ पढे लिखे लोग, जो कि मिडिल क्लास या उच्च वर्ग से ताल्लुक लिखते हैं, सिर्फ वे ही लेखक बन सकते हैं. जबकि इतिहास सक्षी है कि विश्व के कितने ही प्रसिद्ध लेखकों ने तो पारंपरिक तौर पर कोई बहुत ज़्यादा शिक्षा हासिल नहीं की और उन्होने गरीबी में रहते हुए भी अपने लेखन को ज़िंदा रखा.
तो खैर लक्ष्मण राव जी को भी समाज की इसी संकीर्ण मानसिकता का बोझ धोना पड़ा. और इस सब ने उनके मन पर ऐसी गहरी छाप छोड़ी कि उन्होने खुद की ही एक प्रकाशन संस्था खोल डाली. और फिर उसी के अंतर्गत वे अपनी किताबें प्रकाशित करने लगे.
और आज के समय में लक्ष्मण राव जी की पटरी पर रखी जितनी किताबें बिक जाती हैं, उतनी शायद अच्छे अच्छे जाने माने तथाकथित साहित्यिक लेखकों की भी नहीं बिकती होंगी. आज के समय में लक्ष्मण राव जी की किताबें ऐमेज़ांन जैसी ईकामर्स साइट्स तक पर भी उपलब्ध हैं.
अभी कोरोना काल में तो मालूम नहीं कि लक्ष्मण राव जी सड़्क किनारे हिंदी भवन के बाहर उस पटरी पर बैठ चाय बेच रहे होंगे या नहीं . लेकिन जैसे ही सब पुन: लाइन पर आ जायेगा, तो वे आपको फिर वे उसी जगह पे दिखेंगे, उसी सहज मुस्कान के साथ चाय बेचते हुए.