मिथुन चक्रवर्ती के भाजपा में शामिल होते ही विपक्षियों द्वारा उन पर निजी हमलें शुरु हो जाएंगे, ये पहले से तय था। मिथुन दा के साथ उनके परिवार के निजी प्रकरण अब अखबारी और इलेक्ट्रानिक मीडिया का ‘फ़ूड’ बन जाएगा। कला और राजनीति दो विपरीत ध्रुव हैं। यदि ये एक दूसरे के पास आते हैं तो नुकसान कला और कलाकार का होता है, राजनीति का नहीं। कलाकारों का पार्टी हित में उचित उपयोग करना राजनीतिक पार्टियों का धर्म है। जैसा कि मिथुन चक्रवर्ती के साथ हुआ। सीपीएम, तृणमूल कांग्रेस और अब भाजपा उनका नया घर है।
मिथुन का नया घर अन्य विपक्षी पार्टियों को पसंद नहीं आ रहा है। निश्चित ही अगले कुछ दिनों में मीडिया की सहायता से मिथुन चक्रवर्ती के तमाम विवादित किस्से बाहर आ जाएंगे। नेताओं के दलबदल पर कुछ वर्ष पहले बहुत आपत्ति ली जाती थी लेकिन अब ये सर्वमान्य हो गया है कि दल बदलने के 24 घंटे के भीतर नेता को उसी पार्टी की खाल उतारनी होती है, जिसके पार्टी कार्यालय में वह 24 घंटे पहले बैठकर चाय की चुस्कियां ले रहा था।
नेता को अपनी मौलिक विचारधारा की नाल काटकर नई विचारधारा को धारण करना पड़ता है। ऐसा अनूठा कार्य कलाकार नहीं कर सकता। यदि वह करेगा, तो भी असफल ही सिद्ध होगा। अभिनय क्षेत्र से राजनीति में पदार्पण करने वाले कुछ नेताओं को अपवाद मान लिया जाए तो बाकी राजनीति की गर्त में कहीं खो गए। स्वयं मिथुन चक्रवर्ती भी कभी किसी पार्टी के प्रमुख नेता बनकर नहीं उभर सके।
वे एक टूल ही बने रहे हैं। यदि आप कलाकार हैं और राजनीति में आना चाहते हैं तो आपको स्वयं का रुपांतरण करना होगा। इस समय पश्चिम बंगाल में सत्ता परिवर्तन की आहट मिल रही है। और नेताओं की तरह ही मिथुन ने भाजपा का हाथ थाम लिया है। मिथुन एक प्रसिद्ध अभिनेता हैं। उनको देश-विदेश में दशकों से पहचान मिली हुई है। देश के नागरिकों में उनकी छवि एक विनम्र ईमानदार नागरिक की है।
देश के लोग जानते हैं कि होटल व्यवसाय में आने से पहले मिथुन दा ऐसे प्रतिभाशाली बच्चों को विदेश पढ़ने भेजते रहे, जिनके पास दो समय खाने के पैसे भी नहीं होते थे। मिथुन के सामने भविष्य में कड़ी चुनौतियाँ आने वाली है। अब उनका अच्छा पक्ष उनके बेटे और बहू के विवादों के चलते दबाने की कोशिश होगी। पश्चिम बंगाल की सरकार और उनके समर्थक यदि मिथुन पर हमलावर हैं तो ये संकेत है कि भाजपा का मनोवैज्ञानिक युद्ध रंग ला रहा है।
निश्चित ही मिथुन के भाजपा में आने से तृणमूल को नुकसान उठाना पड़ेगा क्योंकि अपनी रैलियों में मिथुन ‘मॉस हिस्टीरिया’ पैदा करने में पारंगत माने जाते हैं। आम जनता से पलभर में कनेक्ट कर लेने की खूबी के कारण ही भाजपा उनके पास आई थी। इसमें भाजपा का तो लाभ है लेकिन उनकी छवि पर जो हमले होने शुरु हो गए हैं, वे मिथुन दा को परेशान तो करेंगे ही। मिथुन दा के कल के कोबरा वाले बयान में इस परेशानी को समझा जा सकता है।
एक कलाकार का ये विशेषाधिकार है कि वह स्वेच्छा से राजनीति में आ सकता है, किसी भी पार्टी की सदस्यता ले सकता है। इसमें किसी को परेशानी नहीं होनी चाहिए। मिथुन दा ने भाजपा के साथ आकर ये चुनौती स्वीकारी है। वे जानते हैं कि उनके परिवार, विशेष रुप से उनके बेटे महाअक्षय को इसमें घसीटा जाएगा। मिथुन दा से ये परेशानी नहीं है कि उन्होंने दल बदल लिया है। परेशानी ये है कि दशकों से कम्युनिस्ट रहे मिथुन ने विचारधारा बदल दी है।
उर्मिला मातोंडकर का उदाहरण दिया जा सकता है। उन्होंने कांग्रेस के बाद शिवसेना का दामन थाम लिया लेकिन किसी को परेशानी नहीं हुई। यदि वे सीधे भाजपा के खेमे में लैंड करतीं तो उनका भी वैसा ही विरोध होता, जैसा मिथुन चक्रवर्ती का किया जा रहा है। वैसे भी भारतीय मानुष का स्वभाव है कि वह युवावस्था में कम्युनिस्ट प्रभाव में होता है लेकिन वृद्वावस्था उसे धर्म की शरण में ले जाती है।
संभव है मिथुन को मोहन भागवत के विचार पसंद आए हो और उन्होंने दल बदलने का निर्णय ले लिया। कलाकार का मन लचीला होता है। वह किसी भी क्षण परिवर्तित हो सकता है। मेरे विचार में तो ममता दीदी को मिथुन के मानस परिवर्तन का हृदय से स्वागत करना चाहिए।
आखिर मिथुन ने उनके लिए असंख्य रैलियां की हैं। मिथुन दा की फिल्म ‘शौक़ीन’ का एक गीत है, जो उनकी हालिया सिचुएशन पर सौ फीसदी सही साबित हो रहा है। ‘वही चल मेरे दिल, ख़ुशी जिसने दी है, तुझे प्यार की ज़िंदगी जिसने दी है।’