अनुज अग्रवाल। केंद्र व राज्य सरकारों की प्रारंभिक रणनीतिक भूलों के कारण कोरोना की दूसरी लहर के फैलते संक्रमण और महाआपदा के बीच अभी तो देश में व्यापारिक राष्ट्रवाद चल रहा है। जीडीपी वाला विकास और मौत व बीमारियों के डर के बीच दवाइयों, वेंटिलेटर, अस्पताल , बेड,आक्सीजन, वेकसीन , कफ़न और लकड़ी का व्यापार। सरकार और समाज सब आपदा में अवसर तलाश रहे हैं।
चीन के जैविक हमले में हमारे तो लाखों लोग मर गए व मर रहे हैं और हम कुछ न कर सके। शायद हम जबाब देने लायक़ ही नहीं। हम सभी को यह सच स्वीकार करना होगा कि कोरोना के कारण देश के हालात बद से बदतर हो गए हैं। हर ओर मरीज़ व मौत ही दिखाई देती है। सरकारी स्तर पर व्यापक कुप्रबंधन हुआ है।
जनता में भारी आक्रोश है। जो भारी पड़ सकता है। मिनिमम गवर्न्मेंट- मैक्सिमम गवेरनेंस के सरकारी नारे के बीच कारपोरेट और सरकारी गवेरनेंस दोनो ग़ायब हैं। इस खेल में मेडिकल माफिया तीस – चालीस लाख करोड़ का टर्नओवर ज़रूर कर लेगा। चीन में पूरी दुनिया की कम्पनियों कि निवेश था और यह स्वीकृत अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों के अनुरूप वर्षों से हो रहा था। वायरोलोज़ी के शांतिपूर्ण उपयोग के लिए अनेक देश व बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ परस्पर सहयोग करती रही हैं। यहाँ तक कुछ भी ग़लत नहीं हुआ।
ग़लत यह हुआ कि चीन ने वेश्विक महाशक्ति बनने के लिए वायरोलोज़ी का उपयोग एक जैविक हथियार के रूप में किया जिसके विनाशकारी परिणामों के कारण वेश्विक स्तर पर न तो स्वीकृति है न ही मान्यता। इसको ऐसे भी समझ सकते हैं कि ऐल्फ़्रेड नोबेल ने डायनामाइट का अविष्कार चट्टान व पहाड़ तोड़कर रास्ते व नहरें बनाने के लिए किया मगर बाद में उसका उपयोग बम के रूप में होने लगा। बाक़ी अब जब बीमारी फैला दो गयी है तो उससे जुड़ी फ़ार्मा कम्पनियों का व्यापार तो खड़ा हो ही जाता है।
लोग मरते है तब भी ताबूत, कफ़न व लकड़ी आदि का व्यापार भी तो होता ही है। मगर इस त्रासदी ने पुराने बिज़नेस मोडल व खिलाड़ियों की कमर तोड़ दो है और नई तकनीक वाले नए खिलाड़ी मेदान में छा गए हैं। इन विषम परिस्थितियों में मुझे तो लगता है कि अंतत: आक्रामक राष्ट्रवाद ही एकमात्र विकल्प है। कोरोना से घर पर मरने से अच्छा है सीमा पर लड़ते हुए मरे।
राष्ट्रीय आपातकाल घोषित कर पहले आंतरिक देशद्रोहियों का सफ़ाया और चीन से आयात पर पूर्ण प्रतिबंध लगे और इसके बाद क्वाड की सहायता से चीन से निर्णायक जंग। तमाम विरोधों व कुप्रबंधन के बीच राष्ट्रवादी लोगों का तर्क है कि हिंदुत्व, सनातन संस्कृति व राष्ट्रवाद की रक्षा के लिए मोदी जी का बना रहना बहुत ज़रूरी है। ये लोग स्वयं कुछ नहीं करते और पूर्णतः मोदी जी पर ही निर्भर हैं।यही विडंबना है।
ममता की सरकार आने के बाद ये बंगाल में हिंदुओं पर हुए अत्याचार व , हिंसा व पलायन से आक्रोशित हैं। हिंदुत्व की बात करने वाले वीरों से मैं पूछना चाहता हूँ कि बंगाल के हिंदुओं को लड़ने मरने की सलाह तो आप लोग बड़ी आसानी से दे रहे हो मगर दिल्ली एनसीआर में जो हालात बिगड़े है उसको ठीक करने के लिए आपने क्या क़ुर्बानी दी है ? यहाँ तो केंद्र, यूपी और हरियाणा में आपकी सरकार है और दिल्ली के भी आधे से ज़्यादा अधिकार आपकी सरकार के पास हैं।
अपने जीवन की सबसे कठिन चुनोती से जूझ रहे मोदी जी के लिए अगले कुछ माह अग्निपरीक्षा के हैं और बे चक्रव्यूह में घिर चुके हैं। व्यापक जन आक्रोश के बीच उनको विपक्ष और अंदरूनी हमलों का भी सामना करना है। बदहाल अर्थव्यवस्था और ख़स्ताहाल समाज को अगर वे पटरी पर न ला पाए तो देश में बड़ा आंतरिक राजनीतिक संकट आना तय है।
ईश्वर करे सब महाआपदा से पहले जैसा हो जाए। मोदी जी व शाह जी इस महाआपदा से उभार कर सब कुछ ठीक कर दें। देश को पुनः हिंदू राष्ट्र बना दे व पाकिस्तान और चीन के टुकड़े टुकड़े कर दे और अवैध बांग्लादेशियो को खदेड़ दें। अगर यह सब कर सके तो उनकी तानाशाही भी मंज़ूर और कोरोना से हुए नरसंहार की त्रासदी भी।