‘बनारस के घाट पर एक विदेशन पहुंची है। वह घाट पर बैठे साधु से कुछ सवाल करती है। साधु उसके प्रश्न का उत्तर एक स्लेट पर लिखकर देता है। पहला सवाल ‘आज से दस साल बाद भारत कैसा होगा’। जवाब मिलता है ‘आत्मविस्मृत’। दूसरा सवाल ‘भारत का बाजार कैसा होगा’। जवाब आता है संतरे और सेब। साधु का इशारा आने वाली संचार क्रांति की ओर होता है। तीसरा सवाल ‘ भारत की तस्वीर कैसी होगी’। जवाब मिलता है ‘सोचेगा कम बोलेगा ज्यादा इंडिया’। ये दृश्य डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म ‘अस्सी मोहल्ला’ की सारी कथा कह देता है। अस्सी मोहल्ला एक दर्पण है। जब देश का बहुसंख्यक समाज इसमें झांकेगा तो उसे अपने धर्म का शत्रु स्पष्ट दिखाई देगा। ये फिल्म कोई फिल्म नहीं बल्कि हिन्दुओं का ‘स्वान सांग’ है। स्वान सांग मृत्यु से ठीक पूर्व गाया जाने वाला गान माना जाता है।
प्रसिद्ध लेखक काशीनाथ सिंह की किताब ‘काशी का अस्सी’ से प्रेरित होकर ये फिल्म बनाई गई है। उनकी किताब में भारत में घटी तीन घटनाओं का समावेश किया गया है। आरक्षण आंदोलन, राम जन्मभूमि आंदोलन और भूमंडलीकरण का नया युग डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म में वैसे ही रिफ्लेक्ट होता है जैसे किताब में झलकता है। काशी का मूल स्वभाव वहां की बेलाग चौपालों में बैठकर पता चलता है।
‘अस्सी का मोहल्ला’ काशी की किसी संकरी गली की ऐसी ही चौपाल है। अस्सी का मोहल्ला में रहने वाले पंडित धर्मनाथ पांडेय को धर्म रक्षक माना जाता है। धर्म को लेकर उनकी भावुकता ऐसी है कि अयोध्या में जाकर गोली खा आते हैं। राम जन्मभूमि आंदोलन के बाद धर्म को लेकर एक उदासीनता का वातावरण बनता है। कभी काशी के हर घर में विराजने वाले महादेव विदेशी किरायेदार की खातिर घर से निकाले जाते हैं।
ये फिल्म को देखना एक पीड़ादायक यात्रा करने जैसा अनुभव है। पंडित धर्मनाथ के चरित्र में हर वह हिन्दू खुद को देख सकता है, जो अपनी मान्यताओं को लगभग तिलांजलि दे चुका है। उदारीकरण के दौर में पंडित धर्मनाथ बेरोजगार हो गया है। अब कोई संस्कृत सीखना नहीं चाहता। एक धर्म रक्षक को जीवन की आपाधापी कैसे तोड़ देती है, इसका चित्रण प्रभावशाली ढंग से किया गया है। फिल्म देखते हुए कई बार आप महसूस करते हैं कि पंडित धर्मनाथ पांडेय और कोई नहीं बल्कि आप ही हैं।
निर्देशक को फिल्म फ्लोर पर लाने से पहले कई बरस इंतज़ार करना पड़ा, साथ ही सेंसर बोर्ड के कई कट्स भी झेलने पड़े। फिल्म देखते हुए लगता है कि एडिटिंग से मूल प्रभाव में कमी आई है लेकिन इसके बावजूद निर्देशक दर्शक को अपना सन्देश देने में सफल रहता है। ये फिल्म एक आम दर्शक के लिए कतई नहीं है। इसे गंभीर सिनेमा की श्रेणी में रखा जा सकता है। फिल्म की मूल कॉपी पहले ही बाजार में आ चुकी है इसलिए तगड़ी ओपनिंग की आशा तो खुद निर्देशक ने भी नहीं रखी होगी।
सनी देओल ने ये किरदार कर खुद को विस्मृत होने से बचा लिया है। भविष्य में वे अपनी एक दर्जन फूहड़ फिल्मों के लिए नहीं बल्कि ‘अस्सी मोहल्ला’ के लिए याद किये जाएंगे। इस पंडित के किरदार में बहुत से शेड्स थे और सनी जैसे औसत अभिनेता के लिए इसे निभाना टेढ़ी खीर था। साक्षी तंवर ने ‘दंगल’ फिल्म के बाद फिर साबित किया है कि वे बड़े स्क्रीन पर भी लाजवाब हैं। सौरभ शुक्ला, मुकेश तिवारी, रवि किशन, राजेन्द् गुप्ता, मिथिलेश चतुर्वेदी के किरदार भी अत्यंत मनोरंजक हैं। लगभग सभी कलाकारों ने मेहनत से अपने किरदारों को परदे पर उतारा है।
फिल्म में जब अस्सी मोहल्ले के घरों से महादेव निकाले जाने लगते हैं तो पंडित अपनी पत्नी से एक संवाद बोलता है। ‘जो बड़े हमलों से नहीं हारे, वे छोटी जरूरतों से हार गए। ये हम कहाँ से कहाँ आ गए सावित्री। ये संवाद पूरी फिल्म का निचोड़ है। हज़ारों साल से धर्म की रक्षा करते करते अब पीढ़ियों के हाथ शिथिल हो चले हैं। ‘अस्सी मोहल्ला’ हमें यही सन्देश देती है। दर्दनाक है कि इस सटीक सन्देश को सुनने और देखने के लिए पहले शो में सौ दर्शक भी नहीं जुटे।
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