डॉ शैलेन्द्र कुमार: केरल के मलप्पुरम में मोप्पला (मुसलमानों) द्वारा किए गए हिन्दुओं के संहार के ठीक सौ वर्ष हुए हैं । परंतु लगता नहीं है कि हमने ऐसी भीषण त्रासदी से कुछ भी सीखा है। यदि सीखा होता, तो ढाई दशक बाद ही देश का विभाजन नहीं होता और लाखों लोगों की जान नहीं जाती । सात दशक बाद ही कश्मीर में हिन्दुओं का संहार और बचे हुए हिन्दुओं का कश्मीर से निष्कासन नहीं हुआ होता। सच यह है कि हमने इस्लाम के वास्तविक चरित्र को समझने का प्रयास ही नहीं किया । अतः इस्लाम सहित इब्राहिमी मजहबों को समझना हमारे लिए आवश्यक है।
मानवजाति के इतिहास में सनातनियों और इनसे मिलते-जुलते प्रकृति पूजकों के समय तक संप्रदाय के आधार पर मनुष्यों में व्यापक पैमाने पर वैमनस्य और मारकाट नहीं थी । परन्तु इब्राहिमी मजहब और विशेषकर ईसावाद के जन्म के बाद से कुछ ऐसा हुआ, जिसकी मनुष्यमात्र ने कल्पना तक नहीं की थी। ईसावाद से वस्तुतः मानव-विरोधी एक ऐसा चलन आरंभ हुआ, जिसका लक्ष्य अपने से पृथक संप्रदाय को पूरी तरह मिटाना रहा है। यहाँ ध्यातव्य है कि ईसावाद को लेकर ईसाइयों ने स्वयं कहा है ट्राएम्फ ऑफ क्रिश्चियनिटी, 4 जबकि निक्सी बताती हैं कि रोमन ट्राएम्फ’ का अर्थ होता है पूरी तरह मिटाना, विनाश – आदि (Catherine Nixey, “The Darkening Age: The Christian Destruction of the Classical World” Pan Macmillan, 2017 ) । इस प्रकार इसका अर्थ केवल विजय नहीं है। ऐसा ही एक शब्द है- नेस्तनाबूत, जिसका प्रयोग मुसलमान करते हैं । जड़मूल से नष्ट करना या बर्बाद करना। स्पष्ट है कि युद्ध की स्थिति – इसका अर्थ होता है में ईसाई और मुसलमान जय-पराजय में नहीं, वरन समूल नाश करने में विश्वास करते हैं। हिन्दू धर्म से यह एक ऐसा भेद है, जिसे हम समझ नहीं पाते ।
कोई आश्चर्य नहीं कि ईसाइयों द्वारा संपूर्ण अमरीका की सभी सभ्यताओं को नष्ट किया गया और वहाँ के स्थानीय लोगों का संहार किया गया। अफ्रीका के साथ भी बहुत सीमा तक यही हुआ । अन्यत्र सांस्कृतिक संहार किया गया। इसी चलन को आधार बनाकर मोहम्मदवाद भी आगे बढ़ा। कारण यह कि ईसावाद और मोहम्मदवाद में कोई मौलिक भेद नहीं है। कुरान का एक बड़ा हिस्सा बाइबिल की नकल है। दोनों एक ही गॉड या अल्ला को मानते हैं। दोनों अपने से भिन्न लोगों को अपने घेरे में लाने को हर समय बेचैन रहते हैं। दोनों का आरंभ शून्य से होता है और निरंतर लोगों को अपने खेमे में लाकर अपनी संख्या और बल बढ़ाते हैं। दोनों केवल अपने मजहब को सत्य और अन्य को मिथ्या मानते हैं। यही वैमनस्य और हिंसा कामुख्य कारण बनता है। दोनों का एक ही उद्देश्य है दूसरों को समाप्त करके सर्वत्र अपना शासन स्थापित करना । दोनों की ही मान्यता है कि उनसे भिन्न संप्रदायों का इस विश्व में रहना अनुचित अथवा अवैध है और इसलिए उनको समाप्त करना इन दोनों का कर्तव्य है।
जो लोग इन दोनों मजहबों के वास्तविक चरित्र से परिचित नहीं हैं, वे धोखा खाने को अभिशप्त हैं। दोनों के दो रूप हैं पहला है सार्वजनिक, किन्तु बनावटी, जिसमें ये चिकनी-चुपड़ी बातें – करते हैं और सामान्य लोगों को अपने में मिलाने के लिए प्रयासरत रहते हैं; दूसरा वह है, जिसमें इनका वास्तविक रूप खुलकर सामने आता है। जब तक ये शक्तिहीन या अल्पमत में रहते हैं, तो पहले रूप का प्रयोग करते हैं और जब बहुमत में आ जाते हैं, तो दूसरे रूप का । मोपला ( मुसलमानों द्वारा मलप्पुरम और कश्मीरी मुसलमानों द्वारा कश्मीर के हिन्दुओं का जिस प्रकार संहार किया गया, वह मोहम्मदवाद का दूसरा और वास्तविक रूप था। हमें इस रूप को पहचानना होगा । अन्यथा इसकी पुनरावृत्ति होती रहेगी। वीर सावरकर का मुख्य उद्देश्य हिन्दू समाज को इस्लाम के वास्तविक रूप से परिचित कराना था । जब मलप्पुरम में मोप्पलों द्वारा खिलाफत को स्थापित करने का अभियान चल रहा था, तब हिन्दुओं से कहा गया कि मोप्पलों का धन हिन्दुओं ने चुराया है, जिसके परिणामस्वरूप मोप्पला निर्धन हैं और इसलिए मोप्पला कार्यकर्ताओं का व्यय हिन्दुओं को उठाना पड़ेगा । मोप्पलों ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि यदि हिन्दू धन न दे पाएँ, तो दूसरे तरीके से उनसे धन लेने का अधिकार उन्हें मिलना चाहिए और यह अधिकार उन्हें तत्क्षण मिल गया। यह भी स्पष्ट किया गया कि हिन्दुओं से प्राप्त धन को जजिया’ कहा जाएगा। जजिया मुसलमान और गैर-मुसलमानों में विभेद करने वाला सबसे बड़ा सार्वजनिक प्रमाण है। मोप्पलों ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि मुसलमान हिन्दुओं के अधीन नहीं रह सकते। जिन्ना द्वारा पाकिस्तान की माँग के पीछे यह सबसे बड़ा कारण था। सभाओं में मुसलमान खुल कर बोलते थे कि यदि मेरे मजहब के खिलाफ कोई (हिन्दू) बोला तो उसकी जीभ काट लेंगे।
हिन्दू मंदिरों को नष्ट करने के विषय में कहा गया कि हमारा मजहब मंदिरों, मूर्तियों और मूर्तिपूजकों पर आक्रमण करने का अधिकार देता है । कोई आश्चर्य नहीं कि अनेक मंदिर नष्ट किए गए, जिनमें सर्वाधिक उल्लेखनीय है • श्रीरंगा मंदिर । बिना समय गँवाए श्रीरंगा मंदिर – के ऊपर चार मीनारें खड़ी कर दी गईं, जिससे कि उसका बाह्य स्वरूप मस्जिद जैसा हो जाए। देव विग्रहों को तोड़-तोड़कर उनके टुकड़ों का प्रयोग पैर के नीचे रखने के लिए किया गया । मंदिर परिसर में गाय की बछिया की हत्या करके उसके रक्त से मस्जिद को पाक किया गया।
वीर सावरकर ने जहाँ हिन्दुओं में प्रचलित अस्पृश्यता और हिन्दू समाज को उससे हुई अपूरणीय क्षति का निर्ममता से वर्णन किया है, वहीं मुसलमानों में प्रचलित किंतु अल्पज्ञात जाति-भेद और नस्लभेद का भी रहस्योद्घाटन किया है। मुसलमानों में शिया सुन्नी, अहमदिया, पसमांदा आदि के रूप में कठोर जातिगत विभाजन है और सुन्नी तो शिया, अहमदिया आदि को मुसलमान ही नहीं मानते। एक सुन्नी नेता बोलता है कि खिलाफत राज्य में हिन्दुओं को मुसलमान बना दिया जाएगा और शियाओं को मार कर साफ कर दिया जाएगा। इसी प्रकार अरब और स्थानीय मुसलमान की चिरंतन नस्लीय समस्या की ओर भी वीर सावरकर ने हमारा ध्यान आकर्षित किया है। एक मौलवी, जो अपने आप को सीधे-सीधे मोहम्मद के वंश से जोड़ता है, वह वास्तव में स्थानीय मुसलमान निकलता है। अरब, कुरैश आदि से अपना संबंध जोड़कर ये मुसलमान स्थानीय मुसलमानों को तुच्छ समझते हैं। पोल खुलने पर अरब के इस नकली मौलवी की एक मुसलमान महिला हत्या कर देती है। यह घोर नस्लवाद का उदाहरण है। इस प्रकार इस्लाम जिस समानता या बराबरी की बात करता है, वह बिल्कुल मिथ्या सिद्ध होती है। वस्तुतः इस्लाम में न कभी समानता रही है और न रहेगी।
संभवतः वीर सावरकर की लेखनी में ही वह साहस है कि पाठकों का इस्लाम के वास्तविक रूप से साक्षात्कार होता है। हिन्दू सदा मुसलमानों के हित में उनके साथ हो जाते हैं, परंतु मुसलमान कभी भी हिन्दू-हित के लिए हिन्दुओं का साथ नहीं देते। उदाहरण के लिए, एक सभा में जब किसी हिन्दू ने ‘वन्दे मातरम’ का नारा लगाया, तो मुसलमानों ने साथ नहीं दिया। इस पर हिन्दुओं ने ही अल्ला हु अकबर’ का नारा लगाना शुरू कर दिया, जिससे कि मुसलमानों का साथ मिले। इसी प्रकार खिलाफत आंदोलन का साथ हिन्दुओं ने तो दिया, परंतु स्वराज का साथ मुसलमानों ने नहीं दिया। इस्लाम का अमानवीय रूप देखिए कि हिन्दू महिलाओं को माले – गनीमत माना गया अर्थात उनका भोग करना मुसलमानों का अधिकार माना गया, जो स्थिति दुर्भाग्य से आज तक बनी हुई है। हाल के वर्षों में इस्लामी स्टेट से लेकर कश्मीर तक में हम यह देख सकते हैं। प्रछन्न रूप में हम इसे लव जिहाद में भी देख सकते हैं। मोप्पला नेताओं ने जब युवा मुसलमानों को हिन्दुओं के घरों पर आक्रमण करने के लिए उकसाया, तो उसमें हिन्दू महिलाओं को भोग के लिए प्राप्त करना और लूट के प्राप्त करना शामिल था । इस प्रकार हिन्दुओं के संहार में ये दोनों उद्देश्य सर्वाधिक प्रभावी सिद्ध हुए । इस्लाम में बदर की छापेमारी से ही यह चलन जारी है।
दुर्भाग्य से हम मोहम्मदवाद के असली रूप से परिचित नहीं हो पाए और यह इसी अज्ञानता का परिणाम है कि बार-बार धोखा खाकर भी हम सीख नहीं पाते। तब की कांग्रेस पार्टी, जिसके अधिकतर नेता हिन्दू थे, ने जिस प्रकार इस जघन्य नरसंहार की लीपापोती की, उससे स्पष्ट है कि उन्हें मोहम्मदवाद के वास्तविक चरित्र की पहचान नहीं थीं। हाँ, यह संभव है कि जिन्हें थोड़ी-बहुत पहचान रही भी होगी, उन्होंने राजनीतिक स्वार्थ के कारण चुप्पी साध ली। फिर भी कांग्रेस पार्टी को क्षमा नहीं किया जा सकता। सबसे निंदनीय भूमिका तो थी गांधीजी की, जिन्होंने, आंबेडकर के शब्दों में, “ कहा कि मोपला भगवान से डरनेवाले बहादुर लोग हैं और वे उस बात के लिए लड़ रहे हैं, जिसे वे मजहब समझते हैं; और उस तरीके से लड़ रहे हैं, जिसे वे मजहबी समझते हैं।” (भीमराव रामजी आंबेडकर, ” पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन,” सम्यक प्रकाशन, 2009, पृष्ठ 165 ).
……… शेष अगले भाग में