हरिनाथ अभ्यंकर जब अपने सफ़ेद झक कुर्ते की सलवटे हाथों से ठीक करता हुआ स्क्रीन की फ्रेम में दाखिल होता है तो दर्शक एक खौफ महसूस करता है। कोल्हापुरी चप्पलों में डग भरता हुआ जब वह जनता के बीच जाता है तो हमें उससे वितृष्णा होने लगती है। गोल चश्मे से झांकती उसकी धूर्त आँखें हमें डराती है। ये ‘खौफ’ एक अरसे से गायब था। शोले के गब्बर सिंह ने रुपहले परदे पर पहली बार इस खौफ को पैदा किया था। सीधे शब्दों में कहूं तो हरिनाथ अभ्यंकर को हम आज का ‘गब्बर’ कह सकते हैं। रजनीकांत की ‘काला’ नाना पाटेकर के बगैर उतनी ही अधूरी है, जितनी कि बिना नमक की दाल।
रजनीकांत की हालिया फिल्मों में उन्हें एक महानायक की तरह प्रस्तुत किया जाता रहा है। उन्होंने अंडरवर्ल्ड पर कई फ़िल्में की है लेकिन ‘काला’ उनमे कुछ अलग स्थान रखती है। दक्षिण की फिल्मों का अनिवार्य ‘अतिरेक’ काला में भी मौजूद है लेकिन एक चुस्त पटकथा और रजनीकांत-नाना पाटेकर का रोचक अभिनय उस अतिरेक को हावी नहीं होने देता। निर्देशक पीए रंजीथ ने संतुलित निर्देशन किया है लेकिन कुछ कमियां भी रह गई हैं। इन कमियों के बावजूद ये एक सराहनीय प्रयास कहा जाएगा। काला करिकालान तमिलनाडु से भागकर मुंबई की झुग्गी धारावी में शरण लेता है। उसका पिता इस बस्ती को बसाने में मदद करता है। हजारों करोड़ की इस जमीन पर स्थानीय नेता हरिनाथ अभ्यंकर की नज़र लगी हुई है। हरिनाथ बहुत ताकतवर है और काला की शक्ति उसके समर्थकों से है।
निःसंदेह ‘काला’ रजनीकांत की पिछली फिल्म कबाली से हर मामले में बेहतर है। तकनीक, निर्देशन, कलाकारों का अभिनय बहुत बेहतर रहा है। कई सीक्वेंस बहुत आनंद देते हैं। खास तौर से जब रजनीकांत और नाना पाटेकर सामने होते हैं तो वे दर्शकों के लिए सबसे अच्छे पल होते हैं। रजनीकांत हमेशा की तरह महानायक की तरह प्रस्तुत किये गए हैं। उनके इस नए रूप में ताज़गी दिखाई देती है। हुमा कुरैशी, ईश्वरी राव, अंजलि पाटिल ने अपने किरदारों के साथ बेहतर किया है।
नाना पाटेकर का अचूक अभिनय इस हंगामेदार फिल्म का हासिल है। एक शक्तिशाली नेता के किरदार को इतनी खूबसूरती से निभाया है कि उनके इस किरदार से नफरत होने लगती है। कहने में गुरेज नहीं कि कई दृश्यों में नाना रजनीकांत से अधिक प्रभावी सिद्ध हुए हैं। निर्देशक ने रजनीकांत जैसे दिग्गज के सामने उन्हें सशक्त किरदार दिया। मुकाबला तगड़े अभिनय और टर्मिनेटर छवि के बीच है, जिसे आनंद लेकर देखा जा सकता है। एक्टिंग के नए विद्यार्थी नाना को देखकर जान सकते हैं कि ‘मेथर्ड एक्टिंग’ क्या होती है और एक किरदार को कितनी बारीकी से गढ़ा जा सकता है।
एक दृश्य में काला हरिनाथ से मिलने उसके घर गया है। इस सीन का आर्ट डायरेक्शन बेजोड़ है। नेता का घर पूरा सफ़ेद है। सफ़ेद सोफे पर काले कपड़ों में ‘काला’ बैठा है। काला उससे कहता है कि पत्नी और बेटे की मौत के बावजूद वह टूटा नहीं है। इस सीन के संवाद सुनने लायक है। नाना ने इस दृश्य में अपना सर्वस्व झोंक दिया है। दृश्य दिखाता है कि काले कपड़े वाले का दिल उजला है और सामने सफ़ेद कुर्ते में बैठे नेता के मन में उतनी ही कालिख है। फिल्म का ‘मास्टर सीन’ यही है।
हिन्दी बेल्ट के दर्शक को कई दृश्यों से आपत्ति हो सकती है। जैसे नाना का किरदार एक खास दल की ओर अस्पष्ट संकेत देता है। रजनीकांत की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं इस फिल्म में झलक रही हैं। उनकी इस फिल्म में सभी धर्म-जातियों के किरदार दिखाई देते हैं। ईसाई समुदाय का दिखाया जाना भी इस बात का संकेत है कि वे अपने राज्य के प्रत्येक समुदाय को लुभाने का प्रयास कर रहे हैं।
फिल्म का क्लाइमैक्स इसकी सबसे कमज़ोर कड़ी है। हरिनाथ अभ्यंकर जब धारावी में भूमि पूजन करने पहुँचता है तो निर्देशक अंत को ‘रचनात्मक’ बना देते हैं। एक बच्ची हरिनाथ की ओर कालिख फेंकती है और कुछ देर में वह काले रंग में घिर जाता है। दर्शक को समझ नहीं आता कि उसकी मौत आखिर कैसे हुई। दर्शक फिल्म के सबसे सशक्त किरदार का तार्किक अंत देखना चाहेगा न कि रचनात्मकता।
रजनीकांत और नाना पाटेकर के प्रशंसक हैं तो देख सकते हैं। फिल्म में हिंसा का अतिरेक है जो महिला दर्शकों को शायद पसंद न आए। फिल्म के कुछ दृश्यों को देखने के लिए बहुत साहस चाहिए। कुल मिलाकर इस सप्ताहांत में अपराध फिल्म देखने का शौक रखते हैं तो ‘काला’ आपके लिए अच्छा विकल्प रहेगा।
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