मूवी रिव्यू : मुंबई सागा
विपुल रेगे
फिल्मों की काल्पनिक कहानियां कभी-कभी वास्तविक रुप ले लेती है। संजय गुप्ता की फिल्म ‘मुंबई सागा’ में एक काल्पनिक पात्र है जो मुंबई के बहुचर्चित एंटीलिया काण्ड के आरोपी सचिन वझे से मिलता-जुलता है। सावरकर नामक ये किरदार एक नेता की पार्टी का कार्यकर्ता होता है और फिर मुंबई पुलिस में आता है। पुलिस सेवा में होने के बावजूद वह आदेश उस हिन्दूवादी नेता का मानता है, जिसका चरित्र बाला साहेब ठाकरे से मिलता-जुलता है। ये एक एवरेज फिल्म है लेकिन जॉन के करिश्मे से साँस लेती महसूस होती है।
‘मुंबई सागा’ एक ऐसे गैंगस्टर डीके राव के जीवन पर आधारित है, जो तीन बार पुलिस एनकाउंटर से बच निकला था। एक समय छोटा राजन का खास रहा डीके दाऊद के निशाने पर था। एक समय था जब ये कुख्यात गैंगस्टर आधी मुंबई पर राज कर रहा था। आखिरी बार उसे सन 2017 में एक बिल्डर से वसूली के आरोप में गिरफ्तार किया गया था।
इसके बाद से वह जेल में ही है। इसकी कहानी पर निर्देशक संजय गुप्ता ने एक संतुलित प्रयास किया है लेकिन कुछ गलतियों के चलते इसे एक बेहतरीन फिल्म बनाने से चूक से गए हैं। इस फिल्म का एकमात्र आकर्षण जॉन अब्राहम की उपस्थिति है। यदि जॉन को निकाल दिया जाए, तो फिल्म में देखने लायक कुछ भी नहीं बचता।
संजय गुप्ता ने कुछ होमवर्क किया होता तो ये फिल्म ‘सत्या’ और ‘अग्निपथ’ की कतार में शामिल हो सकती थी। कुछ कमियों के बावजूद फिल्म दर्शक को आकर्षित कर रही है। कोरोना प्रतिबंधों के होने का असर फिल्म की ओपनिंग पर दिखा है लेकिन फिर भी ये फिल्म आशाजनक प्रदर्शन तो कर ही रही है।
मुंबई सागा का सबसे बड़ा आकर्षण जॉन अब्राहम के एक्शन दृश्य हैं। यही एक्शन सीक्वेंस फिल्म की यूएसपी है। फिल्म में डीके राव को अमरत्या राव के नाम से प्रस्तुत किया गया है। फिल्म की खूबी जॉन है तो फिल्म की कमियों के रुप में मिस्कास्टिंग का जिक्र सबसे पहले आएगा।
अमोल गुप्ते, इमरान हाश्मी और सुनील शेट्टी का चयन यहाँ गलत सिद्ध हुआ। अमोल गुप्ते गैंगस्टर की भूमिका से न्याय नहीं कर पाते। इमरान हाशमी को ये किरदार क्यों दिया गया, समझ के बाहर है। ऐसे ही सुनील शेट्टी और गुलशन ग्रोवर को ज़ाया किया गया है। समीर सोनी का व्यक्तित्व ऐसा नहीं है कि अपराध फिल्मों में फिट हो सके।
महेश मांजरेकर ने अवश्य अपने किरदार को बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत किया है। मांजरेकर ने भाऊ का किरदार निभाया है, जो शिवसेना सुप्रीमो बाला साहेब ठाकरे से प्रेरित है। फिल्म के एक दृश्य में व्यापारी की पत्नी एसपी कार्यालय जाकर एलान करती है कि उसके पति के हत्यारे अमरत्या के सिर में जो गोली मारेगा, उसे दस करोड़ देगी।
इस तरह के दृश्य न केवल लार्जर देन लाइफ लगते हैं, बल्कि वास्तविकता को तार-तार कर देते हैं। मुंबई सागा उथले पानी में तैरती है, गहराई में नहीं जा पाती। उथले पानी में तैरती ये फिल्म केवल जॉन अब्राहम के मैनरिज्म पर टिकी हुई है। संभव है फिल्म को बड़ी सफलता न मिले लेकिन ये समझ में आया कि दर्शक जॉन अब्राहम जैसे सितारों को आज भी थियेटर में जाकर देखना चाहता है।
जॉन अब्राहम को अब तक वह नहीं मिला, जिसके वे अधिकारी हैं। वह पाने के लिए उन्हें नए निर्देशकों का चुनाव करना होगा। जॉन के भीतर की आग अब भी दबी पड़ी है। उन्हें चाहिए कि योग्य निर्देशकों का चयन करें। कोरोना के बाद जैसे थियेटर खाली हुए, वैसे ही एक नंबर के सितारे का सिंहासन भी खाली पड़ा है। जॉन अब्राहम शान से इस पर बैठ सकते हैं।