माला दीक्षित। पाकिस्तान सहित 20 इस्लामिक देश एक बार में तीन तलाक को ख़तम कर चुके हैं। भारत में भी इसके खिलाफ आवाज उठ रही है।फिलहाल मामला सुप्रीम कोर्ट में है। मुद्दा देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक वर्ग से जुड़े होने के कारण सरकार भी सीधे तौर अपना रूख स्पष्ठ करने से कतरा रही है। लेकिन तीन तलाक के तूल पकड़ते मुद्दे पर मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने बीच का रास्ता तलाशना शुरू कर दिया है। सवाल यह है कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। सुप्रीम कोर्ट में तीन तलाक के खिलाफ लड़ाई लड़ रही फरहा फैज कहती हैं कि जैसे मुस्लिम देशों में तीन तलाक को एक मानकर इसका हल निकाला। यही राय यहाँ भी अपनाई जानी चाहिए। कुरान में एक साथ तीन तलाक की बात नहीं कही गयी है।
इसका विरोध कर रही मुस्लिम महिलाओं का कहना है कि तीन तलाक बोल कर उन्हें अलग कर दिया जाना उनके मौलिक अधिकारों का हनन है। तीन तालक का प्रचलन सुन्नियों में है। सुन्नियों में चार वर्ग होते हैं। हनफी, मालिकी,शाफई और हम्बली। इसके अलावा एक वर्ग अहले हदीस भी हैं जो कि कुरान के बारे में मुस्लिम विद्वान इब्ने तयमिया की व्याख्या मानता हैं। इब्ने तयमिया की व्याख्या में में एक बार में तीन तलाक को एक ही माना जाता हैं। इसे सबसे पहले 1929 में मिस्र ने स्वीकार था। बाद में एक-एक कर 20 मुस्लिम देशों ने इसे अपनाया। इसमें ट्यूनीशिया,श्रीलंका,इराक,बांग्लादेश, तुर्की, पाकिस्तान आदि शामिल हैं।
हमारे देश में में इसके हक़ में कोर्ट का आदेश भी हैं। दिल्ली हाइकोर्ट के न्यायाधीश बी.डी अहमद ने 3 अक्टूबर 2007 में एक अहम् फैसला दिया जिसमें इस्लामी कानूनों पर व्यवस्था कर दी गयी। कोर्ट ने कहा शिया तीन तलाक को नहीं मानते। इससे तलाक ए बिदअत कहा जाएगा। यहाँ तक की सुन्नी मुसलामानों में इसे एक बार कहा गया तलाक माना जायेगा और रिवोक यानी वापस हो सकता हैं। कोर्ट ने कहा अति क्रोध में दिया गया तलाक न प्रभावी होगा न वैध। अगर तलाक देने की जानकारी पत्नी तक नहीं पहुची तो जब उसकी सूचना पत्नी को मिलेगी उसी तिथि से तलाक प्रभावी माना जायेगा। इस फैसले का निष्कर्ष हैं कि एक साथ बोले गए तीन तलाक को एक तलाक माना जायेगा।
मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड तीन तलाक और चार शादियों के प्रचलन पर भले ही अड़ा हो लेकिन मुस्लिम विद्वान डॉ.जफ़र महमूद कहते हैं कि एक साथ तीन तलाक ख़तम होना चाहिए। उनका कहना हैं की बुद्धिजीवी वर्ग मिल बैठ कर समय के अनुसार चीजो में बदलाव करने के लिए आगे आये। सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता राष्ट्रवादी मुस्लिम महिला संघ की अध्यक्ष फरहा फैज कहती हैं कि समस्या का हल कि पर्सनल लॉ कोडीफाई हो। लिखित कानून होने के बाद कोई भ्रम नहीं रह जाएगा। लेकिन जो भी कानून बनाया जाए वह क़ुरान पर आधारित हो न की वर्गों कि व्याख्याओं पर।
भारत में ज्यादातर सुन्नी हनफ़ी मत के हैं जिनमें तीन तलाक वैध हैं।जमीयत उलीमा-ए-हिन्द के सचिव मौलाना नियाज अहमद फारुखी कहते हैं कि जो वर्ग जिस व्याख्या में विश्वास करता है उसे उसका पालन करना देना चाहिए।धार्मिक मामले में कोर्ट या किसी को दखल नहीं देना चाहिए। दारूल उलूम देवबंद के कुलपति मुफ़्ती अबुल कासिम नोमानी का मानना है की तलाक तीन अलग-अलग बार कहा जाए या एक साथ उसका मतलब एक ही है और वह तत्काल प्रभावी होगा। हालांकि वे मानते हैं कि यह गलत तरीका है। लोगों को जागरूक किया जाता है ताकि वे तलाक न लाइन और अगर बहुत जरूरी है तो सही तरीका अपनायें।
साभार: दैनिक जागरण