तमिलनाडु के द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) के नेता एम. करुणानिधि कल 94 वर्ष की लंबी आयु को प्राप्त करने के बाद अन्तोगत्वा मृत्यु को प्राप्त हुये है। वैसे तो किसी की भी मृत्यु दुःखद होती है लेकिन मेरा मानना है कि राष्ट्र के परिपेक्ष्य में हर मृत्यु को दुख व सुख की कसौटी पर नही परखी जाना चाहिये। मैं समझता हूं की जयललिता के बाद करुणानिधि को जाना, तमिलनाडु के लिये एक प्रकार से नवीनता का संचार है। लगभग अर्ध शताब्दी से, हिन्दू विरोधी द्रविड़ राजनीति के दलदल में फंसे तमिलनाडु को अब नये राजनैतिक नेतृत्व मिलेंगे। अब देखना यह है कि यह नया नेतृत्व तमिलनाडु को नई दिशा देगा कि उसी दलदल में लिपटा रहेगा।
भगवान राम के अस्तित्व को नकारने वाले हिन्दू विरोधी करुणानिधि पर लिखना मेरे लिए मुश्किल है क्योंकि करुणानिधि पर लिखने से पहले रामास्वामी पेरियार, जस्टिस पार्टी, 20वी शताब्दी के पहले उत्तरार्थ में ब्राह्मण और हिंदी विरोधी आंदोलन को समझना होगा। मैंने बहुत कुछ समझा है लेकिन इस विषय पर अधिकार पूर्वक लिख पाऊंगा इस पर संदेह है लेकिन फिर भी, बिना गूढ़ता में जाये संक्षेप में करुणानिधि को समझाने का प्रयास करता हूँ।
तमिलनाडु स्वतंत्रता के बहुत पहले से ही एक ऐसा राज्य रहा है जो शेष भारत से विपरीत, भारत एक राष्ट्र की अवधारणा को, सांस्कृतिक व सामाजिक स्तर पर चुनौती देता रहा है। 19वी शताब्दी में ब्रिटिश व योरोपियन इतिहासकारों द्वारा प्रतिपादित ‘इंडो आर्यन थ्योरी’ की सर्वग्राहिता तमिलनाडु(तब का मद्रास) में ही थी और यही द्रविड़ राजनीति के मूल में रहा है। यही पर विदेश से आये आर्यों(उत्तरी भारत) और मूलनिवासी(दक्षिण के द्रविड़) के विचार को पहले सामाजिक स्तर पर और बाद में राजनैतिक स्तर पर स्थापित किया गया था। इस द्रविड़ अस्मिता को भारत के ही कथानक से बाहर करने के लिये तमिलनाडु की उस वक्त की सामाजिक विषमताओं (जो सारे भारत मे भी थी) जिसे रामास्वामी पेरियार की जस्टिस पार्टी ने ब्राह्मण विरोधी आंदोलन और कालांतर में हिंदी विरोधी आंदोलन करके खड़ा किया था।
रामास्वामी पेरियार पर 1920 के मद्रास (तमिलनाडु उसका एक भाग है) की सामाजिक व्यवस्था और उसको लेकर वहां चर्च द्वारा ब्राह्मण विरोधी जो भावनाये उभारी थी इसका प्रभाव था। उनके बाद का व्यक्तित्व, द्रविड़ संस्कृति को लेकर संवेदनशीलता और मार्क्स के विचारों (निजी उद्योग को लेकर पेरियार के विचार मार्क्स के विपरीत थे) से परिपक्व हुआ था। परिस्थितिवश पेरियार की पूरी अवधारणा ही हिन्दू विरोधी हो गयी थी और सर्वजिनिक रूप से नास्तिक हो गये थे। इस कारण से इनके साथ वे लोग ही साथ आ पाये जो हिन्दू धर्म विरोधी व नास्तिक थे। पेरियार ने 1944 में अपनी जस्टिस पार्टी का नाम बदल कर ‘द्रविड़ कड़गम’ कर दिया जो हालांकि गैर राजनैतिक दल था लेकिन उसके मूल में “द्रविडनाडू”(द्रविड़ो का देश) की मांग थी। यह सब स्वतंत्रता से पहले का घटनाक्रम है जिसमे ब्रिटश राज का पूरा सहयोग था।
करुणानिधि का जाना सुखद, दक्षिण और उत्तर के बीच नफरत की दीवार ढहने की उम्मीद!
स्वतंत्रता के बाद मद्रास राज्य का विभाजन हुआ और आंध्रप्रदेश राज्य की स्थापना हुई थी। जिसके बाद से राजनैतिक सत्ता में भागीदारी करने व राजनैतिक मार्ग पर चल कर उद्देश्यों को पूरा करने को लेकर, पेरियार व उनके सहयोगी सीएन अन्नादुरई के बीच मतभेद हो गये और अन्नादुरई ने द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) का गठन किया था। तमिलनाडु में जब 60 के दशक में हिंदी विरोधी आंदोलन हुआ, जो बाद में ब्राह्मण विरोधी बन गया था, उससे द्रविड़ मुनेत्र कड़गम ताकतवर हुई थी और उसके परिणाम स्वरूप वो पहली बार 1967 में, कांग्रेस को परास्त कर के तमिलनाडु(मद्रास) में सत्ता में आई थी। इसी वर्ष ही जब अन्नादुराई की मृत्यु हुई तो एम करुणानिधि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बन गये।
यहां से द्रविड़ राजनीति, समाजिक से, सत्ता की राजनीति में परिवर्तित जरूर हो गयी थी लेकिन मूल में ब्राह्मण विरोध के नाम पर हिन्दू विरोध ही था। यह 70 के दशक में भारत विरोध भी बन गया था जब तमिलनाडु की द्रविड़ राजनीति का सीधा असर, पडोस में श्रीलंका पर पड़ा, जहां सिंहला विरोधी श्रीलंका के तमिलों को इनलोगों ने सहायता की और प्रश्रय दिया था। स्वयं करुणानिधि और बाद में उनके विरोधी ‘आल इंडिया द्रविड़ मुनेत्र कड़गम’ के एम जी रामचंद्रन ने भी ‘ब्रह्त तमिलनाडु’ (पेरियार के द्रविडनाडू का ही स्वरूप) की महत्वांक्षा को हवा दी और परोक्ष रूप से ‘लिट्टे’ व उनकी ‘तमिलईलम’ की मांग का समर्थन किया था। यहां यह लिखना आवश्यक है कि 80 की दशक में जयललिता के प्रभाव में एम जी रामचंद्रन की द्रविड़ राजनीति ने कट्टरवादिता से किनारा करके, भारत की अखंडता स्वीकार कर के, लिट्टे से दूरी बना ली थी लेकिन करुणानिधि, जब तक लिट्टे का सफाया नही होगया उनको प्रश्रय देते रहे थे।
अब ऐसे करुणानिधि की मृत्यु पर कोई भावभीनी श्रद्धांजलि तो मुझसे लिखते नही बन रही है लेकिन इतना अवश्य है कि 94 वर्ष की आयु में जिस करुणानिधि की मृत्यु हुई है, वह वो करुणानिधि नही थे जिन्होंने 60 के दशक में तमिलनाडु के सामाजिक ढांचे को तोड़ दिया था। मेरे लिये 94 वर्ष में शिथिल हो कर मृत्यु को प्राप्त करुणानिधि, भारत और हिंदुत्व से हारे हुये राजनैतिज्ञ थे जिन्होंने सामाजिक न्याय के लिये जहां बहुत कुछ सार्थक काम किया था वही धर्म की ही समझ न होने के कारण तमिलनाडु में हिंदुत्व का बड़ा नुकसान भी किया था।
URL: Muthuvel Karunanidhi was the leader of ethnic poison and hypocrisy-1
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