आचार्य कामेश्वर उपाध्याय, काशी। नागा साधु का जीवन शिव योगी का जीवन होता है। योग की वह प्रणाली जो सामान्य योग से सर्वथा पृथक होती है उसे शिव योग कहते हैं। ऋषभ देव, वामदेव, शिलाद, दधीचि आदि शिवयोगी की परम्परा में आते हैं। प्रकृति के साथ रहकर प्रकृति के सभी गुणों को सहजता के साथ सह लेने की क्षमता नागा साधुओं में होती है।
वे अपनी योगाग्नि से शीतकाल में हिम शिखर पर रहते हैं औरअपनी शांभवी शीतलता के बलपर ५०डिग्रीसेल्सियस गर्मी में अग्नि भी तापते रहते हैं। ये अनेक सिद्धियों से युक्त योगी होते हैं। इन नागाओं में काम भाव का अंश भस्म होकर बाहर उड़ जाता है।इनमें सांसारिक लोगोंकी तरह सोचने की प्रवृत्ति भी समाप्त होजाती है।ये किसीकी प्रसन्नताकेलिए प्रदर्शन करना नहीं जानते। इनके लिए शरीर एक जड़ तत्त्व होता है जिसके भीतर वे चेतन रूप में रहते हैं।
स्वयं के शरीर के किसी भाग को ये उतना ही महत्व देते हैं जितना वे अपने नखो और बालों को देते हैं। वे अपनी कुरूपता में अपनी शिव रूपता का दर्शन करते हैं। चिता भस्म, जटा जूट, रुद्राक्ष माला और अग्नि प्रज्वलित करने के उपकरण ही इनके लिए महत्त्व के होते हैं। इन्हें वे हीचीजें प्रिय हैं जितनी चीजें शिव को प्रिय हैं।इनके सम्पर्क में आकर सर्प विष त्याग देते हैं। सिंहादि हिंसक पशु भी दुष्टता त्याग देते हैं।
जो नग्नता को न जानता हो न ही नग्नता को देखता हो वह नागा है। बुद्धि और चित्त की अवस्था जिसकी शिवमय हो वह नागा साधु कहलाता है।अनेक नागा साधु अपनी साधनासे स्व वीर्य को मूर्धा में ले जाकर बिंदुरूप में विलय कर देते हैं। ये परमहंस शिव योगी होते हैं। अग्नि और शीत प्रकृति के गुण हैं जो नागा साधुओं की साधना से इनकी इच्छा के वशीभूत होते हैं। ऐसे साधकों की साधना को अंध विश्वास कहना या उनसे उनकी नग्नता के बारे में प्रश्न करना अज्ञानता, उदंडता या धर्म द्रोह की श्रेणी में आता है। शिव योगियों के बारे में स्कंद पुराण में अनेक स्थलों पर वर्णन आया है। जहर पीकर न मरना, सर्पों के बीच रहना,श्मशान वास करना,भस्म में रमना, पंचाग्नि तपना, रुद्राक्ष से लदे रहना इनका स्वभाव होता है।ये सृष्टि में शिव के अतिरिक्त और किसी को नहीं जानते। या तो शिव बन कर रहते हैं या शिव के गण बन कर जीते हैं।
ज्यादातर सिद्ध नागा साधु सांसारिक मनुष्यों से दूर रहते हैं।यदि वे बारह वर्षों पर एक बार मनुष्यों के सामने आते हैं और मनुष्य उनको वस्त्र गत सभ्यता से आंकता है तो वे भी व्यभिचारी और सर्व इन्द्रिय भोग पारायण मनुष्यों को पाप का पिण्ड समझकर दूर ही रहना चाहते हैं।जैसे मनुष्य को साधन प्रिय है वैसे ही उन्हें साधना प्रिय है।
जितनी ठंढ में मनुष्य का रक्त जम जाता है उतनी में वे नग्न बदन खड़े रहकर शिव का अभिषेक करते हैं। ऐसे नागा साधुओं को प्रणाम नहीं कर सकते हों तो उनसे दूर रहिए। अपनी ऑक्स बुद्धि जिसे फोर्ड से डिग्री लेकर मचलते हैं अपने पास रखिए। ये शरीर मात्र न होकर साधना की पराकाष्ठा होते हैं। अपनी योजनाओं को इन नागा साधुओं पर मत थोपिए।
ॐ तत् सत्
साभार: कामेश्वर उपाध्याय जी के फेसबुक वाल से