विपुल रेगे। नागराज मंजुले की फिल्म झुण्ड मात्र 22 करोड़ के बजट से बनाई गई है। लागत अगले दो तीन दिन में निकल ही आएगी। मूल प्रश्न ये है कि फिल्म अपने उद्देश्य को प्राप्त कर पाई है या नहीं। नागराज नागपुर के सामाजिक कार्यकर्ता विजय बारसे पर बॉयोपिक बना रहे थे या एक खेल फिल्म बना रहे थे, या स्लम की समस्याएं दिखा रहे थे। इस बिंदु पर आकर नागराज भ्रमित दिखाई देते हैं।
नागपुर के सामाजिक कार्यकर्ता विजय बारसे ने स्लम में रहने वाले बच्चों के लिए एक फुटबॉल संस्था स्थापित की थी। उनके प्रयासों से स्लम के सैकड़ों बच्चों का जीवन सदा के लिए बदल गया। फिल्म निर्देशक नागराज मंजुले ने बारसे को आधार बनाकर ये फिल्म रची है। फिल्म समीक्षकों ने इस फिल्म की बहुत प्रशंसा की है। चूँकि एक सामाजिक विषय पर बनी फिल्म को लेकर आमतौर पर समीक्षकों का रवैया नर्म ही रहता है।
यही कारण रहा कि फिल्म की तार्किक समीक्षा पढ़ने-सुनने को नहीं मिली। झुण्ड पर सबसे अधिक तार्किक टिप्पणी ये थी कि इसकी लम्बाई को छोटा कर दिया जाता तो फिल्म अपना समग्र प्रभाव नहीं खोती व निखर कर आती। निर्देशक ने अपनी कथा को तीन घंटे की फिल्म में फैलाया है। यही तीन घंटे मंजुले की फिल्म पर बहुत भारी पड़े हैं। यदि आपकी फिल्म में थ्रिल नहीं है तो फिल्म की लंबाई गले की फांस बन जाती है।
नागराज मंजुले की इस प्रस्तुति की सबसे बड़ी त्रुटि ही यही है कि ये मूल विषय पर बहुत देर बाद आती है। शुरुआती आधे घंटे में कैमरे स्लम की गलियों में ही घूमते रहते हैं। पृष्ठभूमि बस इतनी ही दिखाई जानी चाहिए कि मूल विषय को निर्देशक रेखांकित कर सके। फिल्म की सिंगल लाइन थी कि एक फुटबॉल कोच स्लम के बच्चों को खेल की ओर लाने का प्रयास कर रहा है।
तो फिल्म को अधिकांश समय खेल के मैदान पर ही केंद्रित रहना था। हालाँकि झुण्ड कभी स्लम के बच्चों का झगड़ा दिखाती है। कभी वह अधिक डार्क होकर गैंगवार से होती हुई पुलिस थाने तक जा पहुँचती है। तो कभी स्लम के एक बच्चे से एक धनवान लड़की की प्रेम कथा पर भी पहुँच जाती है। यानि फिल्म मैदान को कई बार छोड़ती है। ये विषयांतर दर्शक को बोरियत का अहसास कराता है।
इस तरह के कथानक पर एक डाक्यू-ड्रामा श्रेष्ठ होता है। फिल्म की अवधि कम हो जाती है और दर्शक तक बात पहुँच जाती है। नागराज वास्तविकता और कल्पना के बीच झूलते दिखाई दिए हैं। वे इस बात पर असमंजस में रहे कि इसे आर्ट फिल्मों की तरह वास्तविकता की धार देनी है या कल्पना के घोड़े दौड़ाने हैं। निश्चित ही उन्होंने इस वास्तविक कथा में काल्पनिक पेंच डाले हैं।
अंतिम आधे घंटे में फिल्म ट्रेक पर लौटती है और अच्छा करती है किन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। दर्शक तब तक रुचि खो देता है। अमिताभ बच्चन ने अच्छा अभिनय किया है लेकिन उनसे और भी अच्छा काम लिया जा सकता था। इस किरदार में वे बहुत टाइप्ड दिखाई देते हैं। मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं है कि रिंकी राजगुरु वाला सेक्शन झुण्ड का सबसे प्रभावी भाग है।
रिंकू राजगुरु इस फिल्म की सबसे जीवंत कलाकार के रुप में उभरती है। बहरहाल इतना कहा जा सकता है कि झुण्ड एक टीम नहीं बन सकी। नागराज जैसा निर्देशक इसे एक टीम बना सकता था लेकिन अधकचरे प्रयोग और यहाँ-वहां भटकने के कारण झुण्ड एक सुसंगठित टीम नहीं बन सकी।