श्वेता पुरोहित :-
कन्हैया कन्हैया पुकारा करेंगे लताओं में व्रज कि गुजारा करेंगे अगर रूठ जाऐंगे मेरे बाँकेबिहारी चरण चित लगा नित मनाया करेंगे
🌿 भगवान् श्रीकृष्ण ने करताल देकर गृहस्थऋण मुक्ति हेतु वापसी 🌿
गतांक से आगे –
भगवान ने कहा – वत्स! तुम्हारी निष्ठा धन्य है। परंतु जगत में प्रत्येक गृहस्थ के ऊपर तीन प्रकार के ऋण होते हैं –
पहला ऋण है स्त्री-पुत्रादि का।
दूसरा पितरों का।
तीसरा देवों का।
मनुष्य गृहस्थाश्रम को स्वीकार करके जबतक उन ऋणों से मुक्त नहीं हो जाता तब तक उसे पुर्नजन्म धारण करना पड़ता है। अतः मेरी आज्ञा से मृत्यु लोक में जाकर तुम इन तीनों ऋणों से मुक्त हो जाओ।’
नरसिंह राम को यह सुनकर बड़ा दुःख हुआ। भगवान से अलग होना उनके लिये असहनीय था। अतः उन्होंने सजल नेत्रों से कहा – ‘प्रभो ! आपके चरणों की धूली प्राप्त होने पर भी क्या कोई ऋण शेष रहता है ? नाथ! ऐसी आज्ञा देकर आप पुनः मुझे संसार में न फँसाइये। मैं संसार से त्रसित होकर आपके चरणों में आया हूँ। आपके चरणों से विमुख होकर मैं पुनः संसार के व्यावहारिक कार्यों में नहीं फसूँगा।
भगवान ने कहा -”भक्तराज! सत्य है, मेरी शरण प्राप्त होने पर जीव सभी ऋणानुबन्ध से मुक्त हो जाता हैं। तुम भी अपने ऊपर कोई ऋण न समझो – पर लोक संग्रह के लिए तो ऋणों से मुक्त होना ही चाहिए। तुम जाओ और सब काम मेरी पूजा समझ कर करो, साथ ही मेरे विग्रह की भी अर्चना करो। तुम्हारे जैसे ऐकान्तिक भक्त के लिये यधपि मूर्ति – अर्चना करने और ध्यान करने से तुम्हारी भक्ति और भी दृढ़ हो जायेगी।
साथ ही यह करताल भी मैं देता हूँ। इस करताल के द्वारा जब तुम मेरा कीर्तन करोगे तभी मैं तुम्हारे पास उपस्थित हो जाऊँगा और तुम्हारे गृहस्थाश्रम के सभी कार्यों को सिद्ध कर दूँगा। मेरा यह प्रण है कि –
अनन्याश्चिन्तयन्तों मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियक्तानां योगक्षेमं वह्यमयहम ॥
जो अनन्यभाव से मुझमें स्थित भक्त मुझ परमेश्वर को निरंतर चिन्तन करते हुए निष्काम भाव से भजते हैं, उन नित्य एकीभाव से मुझमें स्थित पुरुषों का योग क्षेम मैं स्वयं वहन करता हूँ। जो मनुष्य मेरे इस प्रण को स्मरण रखकर तदनुकुल आचरण करता है वह गृहस्थाश्रमी होने पर भी कभी दुर्गति को नहीं प्राप्त होता। अतः तुम जूनागढ में जाकर अन्य भाव से मेरी भक्ति करो।
भगवान के इस प्रकार आश्वासन देने पर नरसिंह राम राजी हो गये। भगवान ने उन्हें अपनी प्रतिमा और करताल सौंप दी एवं पीताम्बर और मयूरपंख का मुकुट पहना दिया। नरसिंह राम ने भगवान के चरणों पर गिरकर बार-बार प्रणाम किया और फिर भागवती प्रेरणा से तुरंत जूनागढ जा पहुँचे।
नरसी भक्त की भाई वंशीधर के घर वापस आना
प्रातःकाल का समय था; भगवान भुवन भास्कर ने अपने उषाकालीन प्रकाश से दसों दिशाओं को सुवर्णमयी बना रखा था। इसी समय भक्तप्रवर नरसिंह राम जूनागढ के समीप गरूड़ासन से उत्तर पड़े। उन्होंने एक समीपवर्ती तालाब पर स्नानादि नित्य-क्रियाओं से छुट्टी पा कुछ देर भगवद भजन किया। उसके बाद उन्होंने सोचा -” मैं किसके पास चलूँ ? भाई ‘भौजाई ने तो उसी दिन घर से निकाल दिया था; वे लोग क्यों मेरा स्वागत करेंगे? परंतु उनके सिवा अपना दूसरा है भी कौन? पहले तो उन्हीं के पास चलना चाहिए, चाहे वे मेरा अपमान ही क्यों न करें’।
उनके पास भगवान की दी हुई प्रतिमा, करताल , मोरपंख का मुकुट और पीताम्बर के सिवा और कुछ तो था नहीं। इन्हीं वस्तुओं के साथ वैष्णव-वेष में वे अपने घर आये। उन्होंने बड़ी नम्रता के साथ अपने भाई-भौजाई को प्रणाम किया। उनके इस वेष को देखकर वंशीधर को बड़ा आश्चर्य और साथ ही क्रोध हुआ। उन्होंने कहा -“अरे मुर्ख ! तैने यह क्या बाना धारण किया है? मस्तक पर तिलक, गले में तुलसी की माला, हाथ में करताल, सिर पर मोरपंख का मुकुट और कमर में पीताम्बर – यह सब किसने तुझे पहनाया है! उतार फेंक इस वेष को।’
नरसिंह राम ने बड़ी विनय के साथ कहा – “भाईजी ! यह आप क्या कह रहे हैं? यह वेष स्वयं वैकुण्ठवासी भगवान श्रीकृष्ण जी का दिया हुआ है। मेरे लिये यही उनका परम पवित्र प्रसाद है। भगवान के प्रसाद की आज्ञा स्वयं भगवान की आज्ञा है।
वंशीधर ने तिरस्कार पूर्ण शब्दों में कहा – ‘अरे मुर्ख! क्यों पागलपन की बातें करता है, नादानी छोड़, अब तू लड़का नहीं रहा, दो बालकों का पिता है। यह भिखारियों का सा वेष छोड़ कर दो पैसा पैदा करने का उपाय कर। नात-जात में क्यों मेरी हेठी कराता है? ये सब चाल छोड़ कर ठीक रास्ते पर आ जाय तो अब भी राजा से कह-सुनकर तुझे दस-पाँच की कोई नौकरी दिला दूँ। इस पागलपन में कया रखा है? भूखों मरना पड़ेगा।’
भगवान भोलेनाथ की जय 🙏
योगेश्वर श्री कृष्ण की जय 🙏
भक्तराज श्री नरसी मेहता की जय 🙏
क्रमशः – भाग – १३