श्वेता पुरोहित :-
गतांक से आगे –
नरसी भक्त की परिवार से विदाई:
दुरितगौरी शीघ्र से शीघ्र अलग नरसी को अलग करने पर ही तुली हुई है, यह बात नरसिंह राम से छिपी नहीं रही। उन्होंने देखा कि अब अपनी ओर से साथ रहने पर जोर देना व्यर्थ है। अब तो भगवान के भरोसे इस घर से तुरंत निकल जाना ही मेरे लिये उचित है। अतएव वह अपनी धर्मपत्नी, षोडशवर्षीया पुत्री तथा पुत्र के साथ अलग होने के लिये तैयार हो गये। उन्होंने वंशीधर से कहा – “भाई ! आपलोगों की आज्ञा शिरोधार्य कर अभी अलग हो रहा हूँ। आप पुज्य हैं, आशिर्वाद दीजिए कि मैं अपना धर्म पालन करने में समर्थ हो सकूँ। साथ ही मेरी प्रार्थना है कि आप मुझ पर सदा स्नेह रखें, इसी से मैं कृतार्थ हो जाऊँगा। बस, विदा लेता हूँ। इतना कहकर उन्होंने बड़े भाई को प्रणाम किया।
उधर मणिकगौरी ने भी दुरितगौरी को प्रणाम करते हुए कहा – ‘जेठानीजी! आपको प्रणाम करती हूँ और आपकी शुभाशीष चाहती हूँ।’
वंशीधर अभी चुप ही थे कि दुरितगौरी बोल उठी – ”बस, अब अधिक ज्ञान न बघार। मैंने तो आज ही तेरा स्नान कर लिया; अब तू चाहे भीख माँग या राज्यासन पर बैठ, हमें इससे कोई मतलब नहीं, अपनी यह सीख किसी भीख माँगने वाले लँगोटिये को देना, हम संसारी लोगों को इसकी कोई आवश्यकता नहीं।”
वंशीधर अन्त तक मौन ही रहे, मानो मौनं सम्मति लक्षणम के न्याय से उनको भी इससे भिन्न कुछ न कहना हो। नरसिंह राम अपने छोटे से परिवार के साथ चुप-चाप घर से विदा हो गये। उनके मन में हर्ष या शोक की तनिक भी छाया नहीं थी। गीता में श्रीकृष्ण भगवान ने कहा है कि – ‘जिसका मन दुःखों की प्राप्ति में उद्धिग्न नहीं होता, जिसकी सुखों की प्राप्ति की स्पृहा दूर हो गयी है, जिसका राग, भय और क्रोध नष्ट हो गया हैं, वह मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है।’ सच्चे भगवन भक्त की यही स्थिति है, नरसिंह राम भी ऐसे ही भक्त थे। उनकी बुद्धि स्थिर थी।
परंतु स्त्रियों का ह्रदय बड़ा कोमल होता है। थोड़ा भी कष्ट आने पर उनके नेत्र झरने लगते हैं। भक्तराज की धर्मपत्नी मणिकबाई घर से निकलते ही रोने लगी। कुछ दूर जाने पर उन्होंने भर्रायी हुई आवाज में पूछा -‘नाथ ! अब हम किसके आधार पर रहेंगे?
‘प्रिये ! शोक करने का कोई कारण नहीं; विपति ही मनुष्य की कसौटी है। हम अभी गाँव के बाहर की धर्मशाला में चलकर निवास करेंगे। जो परमात्मा एक चींटी से लेकर हाथी तक का भरण-पोषण करता है, वह क्या हमें भूखो मारेगा ? हमें दुःखी रखेगा ? उस धर्मशाला में जलाशय और मंदिर भी है। अतएव यहाँ कम से कम स्नान-ध्यान में तो कोई अड़चन पड़ेगी ही नहीं। नरसिंह राम ने दृढ़ता के साथ कहा।
नरसी भक्त और महाजन अक्रूर की धर्मशाला में भेट वार्ता:
मणिकगौरी बोली – ‘प्राणेश ! धर्मशाला में तो यात्री और साधु फकीर रहा करते हैं; गृहस्थ लोग धर्मशाला में रहना अच्छा नहीं समझते। फिर हमारी नागर-जाति अत्यंत द्वेष करने वाली है; इस बात का भी विचार कर लेना चाहिये।’ माणिकबाई ने लौकिक व्यवहार की स्मृति दिला दी।
‘प्रिये ! यह संसार भी एक प्रकार की धर्मशाला ही है। जिस प्रकार इस छोटी सी धर्मशाला में यात्रियों का आना ‘जाना बराबर जारी रहता है, उसी प्रकार संसार रूपी विशाल धर्मशाला में भी यात्री रूपी अनेक जीवों का आवागमन लगा रहता है। राजा से लेकर रंक तक सभी मनुष्यों का यही हाल है। इसमें विचार करने की कोई बात नहीं। नरसिंह राम ने तात्विक ढंग से समझाया।
जैसी आपकी इच्छा, कहकर पतिव्रता माणिकबाई चुप हो गयी।
भक्तराज सकुटुम्ब गाँव से बाहर धर्मशाला में जाकर ठहर गये। उनके परिवार की एक मात्र सम्मति थी।
सायंकाल हो जाने पर भक्तराज भगवान की दी हुई प्रतिमा करताल और मुकुट के सामने बैठकर प्रेम पूर्वक भजन करने लगे। उनके नेत्रों से प्रेमाश्रु बह रहे थे।
प्रायः आधी रात तक भजन निरन्तर चलता रहा। उसके बाद भजन बंद कर नरसिंह राम शयन की तैयारी कर रहे थे कि ठीक उसी समय एक धनाढ्य सेठ ने नरसिंह राम के पास आकर प्रणाम किया और फिर वह एक ओर बैठ गये।
नरसिंह राम मनुष्य मात्र को ‘हरि-जन’ समझते थे और इसीलिए सबको इसी शब्दों से समाबोधित किया करते थे। उन्होंने कहा – हरिजन! आप कहाँ रहते हैं ?
‘भक्त राज ! मैं एक परदेशी महाजन हूँ, आजकल यात्रा कर रहा हूँ। कृपया आप अपना हाल सुनाइये। सेठ जी ने संक्षेप में अपना परिचय देकर प्रश्न किया।
नरसिंह राम ने अथ से इति तक अपनी सारी घर बीती सुना दी। साधु पुरूषों के दिल में किसी से कुछ छिपाव तो होता नहीं। सेठ जी ने उनकी दशा पर संवेदना प्रकट करते हुए कहा – ”भक्तराज आपकी स्थिति सुनकर मुझे बड़ा कष्ट हुआ। यदि आप बुरा न मानें तो मैं आपकी कुछ सेवा करना चाहता हूँ।
सेठ जी! आपकी उदारता धन्य है। मैं आपका आभारी हूँ, परंतु सबसे पहले मैं आपका पूरा परिचय जानना चाहता हूँ।’ नरसिंह राम ने आग्रह पूर्वक कहा।
भक्त शिरोमणि! यदि आपकी यही इच्छा है तो मैं पहले अपना पूरा परिचय ही देता हूँ। आपसे कोई छिपाव तो है नहीं। मेरा नाम अक्रूर है। भगवान श्री कृष्ण को आपके निर्वाह की अत्यंत चिंता रहती है। इसलिए भगवान की आज्ञा से मैं आपके पास आया हूँ। आपको जो कुछ चाहिए, उसे निसंकोच भाव से मुझे सूचित कीजिए।’ अक्रूर जी ने कहा।
भगवान अकस्मात कृपा जानकर भक्त राज गदगद हो गये। उनके मन में निश्चय हो गया कि भगवान का ‘योग क्षेमं वह्मम्यहम ‘वचन सर्वथा सत्य है। कुछ क्षण कृतज्ञता पूर्ण हर्दय से भगवान का स्मरण करके भगवान की प्रेरणा से ही नरसिंह राम बोले -‘ महाराज ! रहने के लिए एक मंदिर, जीवन रक्षा के लिए कुछ अन्न-जल तथा साधु सेवा के लिए आवश्यक सामग्री, इसके सिवा मुझे और क्या चाहिये?
अच्छा प्रातःकाल होते ही आपके आज्ञानुसार सारी व्यवस्था हो जायेगी। फिर तो कोई चिंता नहीं रहेगी?’ अक्रूर जी ने प्रश्न किया।
अभी तो कोई चिंता नहीं रहेगी। अगर कल ईश्वरेच्छा से कोई नयी चिन्ता उत्पन्न हो जाय तो उसे भगवान जाने और आप जाने।’ भक्तराज ने अपनी ओर से निश्चिन्ता प्रकट की।
भक्त राज की निश्चिन्ता तथा ‘जलपद्मवत ‘ संसार से निलिप्तता देखकर अक्रूर जी दंग रह गये और उनका द्वि-अर्थी उतर सुनकर हँसते हुए उनकी वाकचातुर की प्रशंसा करने लगे ।
भगवान भोलेनाथ की जय 🙏
योगेश्वर श्री कृष्ण की जय 🙏
भक्तराज श्री नरसी मेहता की जय 🙏
क्रमशः – भाग – १७