
हिंदी का बाज़ार बढ़ रहा है, लेकिन एक खास विचाधारा ने हिंदी साहित्य को मृतप्राय बना दिया है!
सोनाली मिश्रा। एक बार फिर से साहित्य अकादमी सम्मानों की घोषणा हुई है और एक बार फिर से उन्हें विवादों में घसीट लिया गया है। हालांकि विवादों के बिना पुरस्कार और सम्मान याद नहीं रहते। हालिया टाइम्स पर्सन ऑफ द इयर की बात हो या फिर साहित्य में नोबेल पुरस्कार की बात, विवादों ने इन्हें यादगार बना दिया है. फिर हिंदी साहित्य में तो विवादों की अंतहीन परम्परा है। अभी अधिक दिन नहीं हुए जब रजा फाउंडेशन द्वारा कराया गया युवा सम्मलेन विवादों की छाया में गहरा गया था। आखिर ऐसा क्या है जो विवाद इस तरह से सम्मानों का पीछा करते हैं, या यूं कहें ये विवाद जानबूझ कर कराए जाते हैं, चर्चा में आने के लिए! पर चर्चा में आना कौन चाहता है? विवाद करने वाले या उन्हें हवा देने वाले या आयोजक? यह विचारणीय है।
साहित्य अकादमी के पुरस्कार का विवाद इन दिनों अलग है! इस वर्ष लेखिका नासिरा शर्मा को उनके उपन्यास पारिजात के लिए साहित्य अकादमी सम्मान दिया जा रहा है। साहित्य अकादमी की चयन प्रक्रिया है, चयन समिति के सदस्यों के परस्पर विमर्श और रचना की खूबी कमियों के आधार पर यह सम्मान प्रदान किए जाते हैं। यह एक पारदर्शी प्रक्रिया है, जिसे साहित्य जगत के सभी विद्वान् परिचित हैं। और यह स्वायत्त संस्था है, जिसमें सरकार का हस्तक्षेप प्रत्यक्ष नहीं है। फिर विवादित क्या? विवाद इस वर्ष बात को लेकर है कि पहली बार साहित्य अकादमी सम्मान किसी मुस्लिम लेखक को मिल रहा है, यहाँ मैं इत्तेफाक नहीं रखती, लेखक अपने रचनाकर्म में समग्र होता है। लेखक की द्रष्टि एकांगी नहीं होनी चाहिए, और यदि नासिरा शर्मा को पढ़ा जाए तो यही समग्रता उनके लेखन में प्राप्त होती है।
नासिरा शर्मा धर्म से परे हैं. अब आते हैं, सवाल उठाने वालों पर! यह सत्य है कि वर्ष 1955 से आरम्भ हुए इन सम्मानों में हिंदी से किसी भी मुसलमान लेखक को यह सम्मान नहीं मिला। तो इसके लिए दोषी कौन है? मुझे लगता है कि हमें रचनात्मक क्षेत्र में धर्म और जाति से परे होकर ही चर्चा करनी चाहिए, मगर चूंकि धर्म और जाति हमारे भारतीय समाज का एक अभिन्न अंग है तो उन्हें चर्चा से परे रखने का कोई सवाल ही उत्पन्न नहीं होता। यदि आज कुछ कथित प्रगतिशील यह प्रश्न उठा रहे हैं कि इस कथित दलित विरोधी और ब्राहमण वादी सरकार में नासिरा शर्मा को केवल इस कारण सम्मान मिल रहा है कि उनका उपनाम शर्मा है, तो आज तक हिंदी में किसी भी मुसलमान लेखक को साहित्य अकादमी से सम्मानित न किए जाने को लेकर किसी ने कोई आवाज़ उठाई? क्या किसी भी लेखक ने यह कहकर सम्मान लेने से इंकार किया कि मेरे समकालीन मुस्लिम या दलित लेखक की रचना मेरी रचना से बेहतर है, इसलिए आप उन्हें सम्मानित करें! क्या किसी लेखक ने मंच से यह बोला कि साहित्य अकादमी को इस भेदभाव को बंद करना चाहिए! और आज जब नासिरा जी को उनके रचनाकर्म के लिए यह सम्मान मिला है तो उन्हें बेवजह इस विवाद में घसीटे जाने का कारण समझ नहीं आता! क्या इस सरकार से ही आप को सब उम्मीदें हैं? या इस सरकार के दौरान हर उचित निर्णय और हर उचित व्यक्ति के विरोध को आप अपना हक़ मानते हैं। विवाद उत्पन्न करने वाले हर चीज़ में जाति और धर्म खोजते हैं।
यही तुष्टिकरण और अनर्गल विरोध की राजनीति ने हिंदी साहित्य को पाठकों की नजर में हंसी का पात्र बना दिया है। हिंदी का बाज़ार बढ़ रहा है, मगर हिंदी साहित्य? उसकी क्या स्थिति है, यह इस विवाद से ही स्पष्ट हो जाती है। नासिरा जी आपकी नज़र में क्या हैं? विवाद या विरोध करने वालों से यह प्रश्न भी पूछा जाना चाहिए. जब लेखन को जाति और धर्म के दायरे में बांधकर देखना आरम्भ कर दिया जाता है तो कहीं न कहीं वह पाठकों से दूर होने लगता है। इस विवाद का कोई भी असर नासिरा शर्मा की कृतियों पर नहीं पड़ेगा, क्योंकि वे साहित्य की धरोहर हैं। हां, इस विवाद से एक बार फिर से उन लोगों की सत्यता सबके सम्मुख आ गयी है जो स्वयं को प्रगतिशील समझते हैं। क्या प्रगतिशीलता का अर्थ निरर्थक विवाद और विरोध है? विरोध करते करते आपने न जाने कितने नायक गढ़ दिए हैं, और इस विरोध का परिणाम क्या होगा, यह तो अभी समय के गर्भ में है, परन्तु इस बहाने आपने यह अवश्य स्थापित कर दिया है कि जो काम पूर्व में नहीं हुए वे अब होंगे। आप विरोध और विवाद में समय बिताइए परन्तु आलोचना और निंदा में अंतर की एक सूक्ष्म रेखा होती है, उस अंतर को पार न करने का एक अनुरोध इस उभरती हुई कहानीकार की तरफ से है!
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