विपुल रेगे। सम्राट पृथ्वीराज में ऐतिहासिक झूठ फैलाने के बाद यशराज फिल्म्स की दूसरी ऐतिहासिक फिल्म ‘शमशेरा’ का रिलीज प्रोमो देखकर लग रहा है कि यशराज के मुखिया आदित्य चोपड़ा की इतिहास की क्लास वही इतिहासकार ले रहे हैं, जिनके दामन पर भारत का इतिहास दूषित करने के आरोप लगते रहे हैं। देश के सामाजिक ढांचे को ध्वस्त करने का सिनेमाई खेल फिर से शुरु हो गया है। ब्राम्हण अत्याचार को अंग्रेजों के गठजोड़ के साथ जोड़कर ‘शमशेरा’ में पेश किया जाने वाला है।
यशराज फिल्म्स के मुखिया आदित्य चोपड़ा ‘सिस्टमैटिक लीक’ करने के माहिर खिलाडी हैं। पहले उन्होंने शमशेरा का पोस्टर ये कहते हुए फेंका कि लीक हो गया है। उसके तुरंत बाद फिल्म छोटा सा टीजर फेंका। और अब फिल्म का संपूर्ण ट्रेलर रिलीज हो गया है। आजकल ट्रेलर रिलीज करने में बड़ा जोखिम होता है। ये बात आदित्य जानते हैं। इसलिए वे प्रथम दो प्रयासों से दर्शकों का मन जानने का प्रयास करते रहे।
ध्यान रहे कि इसी ट्रेलरबाज़ी ने उनकी पिछली फिल्म सम्राट पृथ्वीराज के तले में बड़ा सा छेद कर दिया था और ये नाव कभी किनारे तक पहुंच ही न सकी। यशराज की नई फिल्म शमशेरा से बॉलीवुड पुरानी लीक पर लौट आया है। फिल्म में संजय दत्त का लुक ही नहीं, इसकी विषय वस्तु भी वैमनस्य पैदा करने वाली दिखाई देती है। इसकी कहानी किसी सत्य घटना पर आधारित नहीं है। ये बात फिल्म में मुख्य भूमिका निभा रहे रणबीर कपूर ने स्पष्ट कर दी है।
निर्देशक ने ब्रिटिश काल की पृष्ठभूमि पर एक काल्पनिक कथा गढ़ ली है। बॉलीवुड वाले जब कल्पना पर आ जाते हैं तो उनका एक ही पैटर्न चलता है। ये पैटर्न बरसों पूर्व अशोक कुमार की फिल्म ‘अछूत कन्या’ से शुरु हुआ था और आज तक चल रहा है। उनको कहानी में वजन लाना है तो खलनायक को वे लोग ब्राम्हण, ठाकुर ही बनाएँगे। उनका चिकना डकैत बनियों के घर की तिजोरी लूट लाता है क्योंकि फिल्मवालों की निगाह में बनिए बड़े ही दुष्ट होते हैं।
उनका खलनायक विशेष रुप से माथे पर तिलक या त्रिपुण्ड लगाए होता है। वह दुष्ट ब्राम्हण है तो उसकी जनेऊ लटकती दिखानी आवश्यक होती है। हालांकि जब उनका हीरो एक ब्राम्हण हो, तब नियम बदल जाते हैं। उनका सामान्य वर्ग का चिकना हीरो तिलक विशेष अवसर पर ही लगा सकता है। जनेऊ तो वह धारण कर ही नहीं सकता। परदे पर वह स्पेक्टैक्युलर नहीं लगता है लेकिन जब ब्राम्हण एक खलनायक हो तो माथे पर बड़ा सा त्रिपुण्ड उसकी खलनायकी को और बढ़ा देता है।
जब रणबीर स्वयं कह चुके हैं कि कथा काल्पनिक है तो इतिहास में घुसने की आवश्यकता ही नहीं है। फिर भी पाठकों की जानकारी के लिए बता देते हैं कि सन 1700 से लेकर 1857 के स्वाधीनता संग्राम तक भील समुदायों द्वारा ब्रिटिशों व उनका समर्थन प्राप्त राजाओं के विरुद्ध कुल ग्यारह बार विद्रोह किया गया था। इनमे धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा और कोमाराम भील की गाथाएं आज तक सुनी जाती हैं।
राजामौली की हालिया प्रदर्शित आर आर आर में जूनियर एनटीआर का किरदार कोमाराम भील के व्यक्तित्व से ही प्रेरित था। शमशेरा में फिल्माया गया ब्रिटिश काल 1871 का बताया जा रहा है। इस काल में तो युआन-जुआंग विद्रोह हुआ था। इस विद्रोह के मुखिया ‘रन्न नायक’ थे। हालाँकि शमशेरा का किरदार इनमे से किस आदिवासी नायक से प्रेरित है, ये तो इतिहासकार आदित्य चोपड़ा ही बता सकते हैं। दर्शक इतना जागरुक कहाँ होता है कि वह फिल्म के बारे में रिसर्च करे और फिर देखने जाए।
ऐसे में बॉलीवुड दर्शकों के साथ ऐतिहासिक खेल खेलता है। वह सम्राट पृथ्वीराज को लेकर अंडबंड झूठ फैलाता है लेकिन देश की सरकार का सूचना व प्रसारण मंत्रालय तनमन से आइफा में उपस्थित रहता है। अब बारी सत्तावन के बाद के भारत की ऐसीतैसी करने की है। मुझे नहीं पता कि निर्देशक करण मल्होत्रा ने फिल्म निर्देशक प्रियदर्शन की ‘सजा-ए-कालापानी देखी है या नहीं। देखी होती तो वे समझ पाते कि पीरियड फिल्मों के दृश्यों की डिटेलिंग में कितनी बारीकी की आवश्यकता होती है।
प्रोमो देखकर ये समझ आता है कि ब्रिटिशों ने एक ब्राम्हण शुद्ध सिंह को इस आदिवासियों के समूह पर अत्याचार करने के लिए नियुक्त कर रखा है। ये वही बॉलीवुड है जो अछूत कन्या से शुरु पैटर्न को ज़हरीली हवा देकर बड़ा करता गया। इस पैटर्न में गजब का सम्मोहन है। अत्याचारी धनिकों पर गरीब चिकने डकैत की विजय श्री। मिथुन की डकैत फिल्मों तक ये पात्र खुरदुरा सा हुआ करता था। इसका देसी खांटीपन देखकर लगता था कि माचिस की काड़ी से चांदी का दांत कुरेद रहा हट्टा-कट्टा वजनी आदमी चंबल का डकैत है। अब के डकैतों के न शरीर में मांस, न आवाज में हनक है। और बनना उनको शमशेरा है।