विपुल रेगे। महात्मा गाँधी को लेकर एक वैचारिक युद्ध बीते कई दशकों से चल रहा है। इस वैचारिक युद्ध की खाद से कई फ़िल्में निकली है और अब भी निकल रही है। रिचर्ड एटनबरो की ‘गाँधी’ इस खाद से नहीं निकली थी और तमाम पूर्वाग्रहों से मुक्त थी। बाद की ‘गाँधी फिल्मों’ के लिए हम ऐसा नहीं कह सकते। फिल्म निर्देशक राजकुमार संतोषी भी गाँधी आधारित ‘गाँधी-गोड़से -एक युद्ध’ लेकर आ रहे हैं। फिल्म की आने की खबर लगने के बाद सोशल मीडिया पर इसे लेकर एक नया वैचारिक युद्ध शुरु हो गया है।
वामपंथी लेखक असगर वजाहत ने सन 2012 में ‘गाँधी-गोड़से’ नाटक लिखा था। ऐसा माना जाता है कि इस नाटक की प्रेरणा अन्ना का आंदोलन था। ‘गाँधी-गोड़से’ की पृष्ठभूमि वर्तमान का भारत है। ये एक पूर्णतः काल्पनिक नाटक है। इसका उस दौर के गाँधी से कोई सीधा ताल्लुक नहीं है। राजकुमार संतोषी ने क्या बनाया है, अभी किसी को नहीं मालूम लेकिन ये तय है कि ये फिल्म जिस कालखंड में प्रदर्शित होगी, उस समय की सरकार के खिलाफ बात करती दिखाई देगी।
वजाहत ने चतुराई से गांधी के सामने से ब्रिटिशों को हटाकर देश की सरकारों को रख दिया है। एक फिल्म निर्देशक को अपनी बात कहने के लिए संविधान ने ‘सिनेमाई स्वतंत्रता’ दे रखी है। इस स्वतंत्रता का उपयोग वे कैसे भी कर सकते हैं। अब मूल नाटक की बात करते हैं। ‘गाँधी-गोड़से’ का कथानक नाथूराम गोड़से द्वारा गांधी की हत्या के प्रयास के बाद उपजी काल्पनिक परिस्थितियों को दिखाता है।
नाटक में गाँधी मरे नहीं हैं। उनके शरीर से तीन गोलियां निकाल दी गई है। उपचार करा रहे गांधी और गोडसे के बीच संवाद होता है। इसी संवाद को वजाहत वैचारिक युद्ध की संज्ञा देते हैं। गांधी गोड़से से पूछ रहे हैं कि तुमने मुझ पर गोली क्यों चलाई। इस पर गोड़से कहते हैं कि तुमने हिन्दू हितों की अनदेखी की। गोड़से कहते हैं कि मुझे ये सिद्ध करना था कि हिन्दू कायर नहीं है, इसलिए वे फांसी पर चढ़ रहे हैं।
नाटक का कालखंड उसी समय का है, जब गांधी को गोली मारी गई थी इसलिए नेहरु का पात्र भी इसमें दिखाई दिया है। गाँधी कह रहे हैं कांग्रेस को गांव में सेवा करने दो और तुम लोग अपनी नई पार्टी बनाओ। फिर कांग्रेस गांधी का प्रस्ताव रद्द कर देती है। वजाहत के नए गाँधी पूरी तरह ‘पॉलिटिकल’ है। सोशल मीडिया पर कुछ लोग ये लिख रहे हैं कि फिल्म में गाँधी की सहायता से कांग्रेस पर निशाना लगाया जाएगा।
यदि फिल्म निर्देशक उस कालखंड को हटाकर वर्तमान कालखंड में फिल्म सेट कर देते हैं तो फिल्म वर्तमान सरकार के खिलाफ सेट हो जाएगी। यहाँ कुछ भी हो सकता है। अब फ़िल्में राजनीतिक निशानेबाज़ी के काम आने लगी है, इसलिए ऐसी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। सिनेमेटिक लिबर्टी का लाभ लेकर संतोषी चाहे तो अपनी फिल्म का बैकग्राउंड वर्तमान समय का भी बना सकते हैं।
ऐसा करने का संवैधानिक अधिकार संतोषी के पास है। सवाल ये उठता है कि मोहनदास करमचंद गांधी को लेकर एक काल्पनिक नाटक लिखा गया। उस काल्पनिक नाटक पर एक काल्पनिक फिल्म बनाई जा रही है। एक वास्तविक जननेता की कथा में घालमेल कर अपने हिसाब से कथा बना ली गई है ताकि गांधी के कैरेक्टर से बाद की सरकारों को गाली दिलवाई जा सके।
हम नहीं जानते कि बाद के वर्षों में गाँधी जीवित रहते तो देश की चुनी हुई सरकारों के प्रति उनका क्या रुख रहता। ये हमारे लिए एक कल्पना ही है। चाहे संतोषी अपनी फिल्म से कांग्रेस के विरुद्ध निशाना साध ले या भाजपा के विरुद्ध, वह एक काल्पनिक कथा के माध्यम से ही किया जाना है। देश के सेंसर बोर्ड को देखना है कि जिस व्यक्ति को देश की बड़ी पार्टी और लाखों लोगों ने जननेता का दर्जा दे रखा है, उस पर एक काल्पनिक फिल्म बनाकर निशाना साधा जाएगा।
रिचर्ड एटनबरो की ‘गाँधी’ मोहनदास करमचंद की वास्तविक जीवन यात्रा पर आधारित थी। वह एक सच्चा अफ़साना थी और संतोषी की फिल्म एक झूठी सच्चाई की तरह होगी।