
अच्छा नहीं, बेहतर बनने की कोशिश करें!
कमलेश कमल। अच्छा होना एक अस्पष्ट अवधारणा है, जबकि बेहतर बनना सुस्पष्ट है और परिणामकेन्द्रित है। अच्छा और बुरा वैसे भी सापेक्षिक शब्द हैं। इसलिए, होना यह चाहिए कि हमारा ध्येय हो कि हम जैसे हों, उससे बेहतर बनने की कोशिश करें।इसका फ़ायदा यह है कि हमें ख़ुद से ही प्रतिस्पर्धा रहती है और तनावजनित व्याधियों की संभावना कम हो जाती है।
दूसरों से तुलना करना उचित नहीं, न ही हर कोई हर काम कर सकता है। जो हम करना चाहते हैं, उसमें निरन्तर प्रगति करें, यही सफलता है। वैसे अपनी योग्यता को भी बेहतर बनाने के लिए लोगों में दो तरह की अवधारणा रहती है। स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रख्यात मनोवैज्ञानिक केरोल ड्वेक कहते हैं कि अपनी योग्यता को लेकर व्यक्ति या तो अस्तित्ववादी विचारधारा का होता है (entity theorist) या फ़िर विकसनशील विचारधारा का (incremental theorist)।
Entity theorist मानते हैं कि योग्यता जन्मजात या अस्तित्वगत होती है, और परिश्रम से थोड़ा बहुत तो अंतर आ सकता है पर ज़्यादा नहीं। ऐसे लोग मानते हैं कि अगर उनमें संगीत, स्नूकर या घुड़सवारी का जन्मजात गुण नहीं है, तो वे इसमें बहुत अच्छा कर ही नहीं सकते। इससे अलग incremental theorist मानते हैं कि योग्यता को बढ़ाया जा सकता है, अर्जित कर सर्वोत्तम बना जा सकता है। दूसरे शब्दों में वे मानते हैं कि योग्यता अर्जन योग्य है-(ability is malleable!)
अध्ययन से पता चला है कि विकसनशील अवधारणा वाले व्यक्ति जीवन में ज़्यादा सफ़ल होते हैं। वैसे भी, यह माना जाता है कि हम अगर सोचते हैं कि हम कर सकते हैं, या हम सोचते हैं कि हम नहीं कर सकते हैं; तो दोनों ही मामले में हम सही होते हैं। (if you think you can, or you can’t; you are right both ways.) सनातन मान्यता में इसे ही सूत्रात्मक शैली में कहा जाता है- “जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि!”
यह तो बात हुई योग्यता को लेकर विश्वास की, पर उद्देश्य की प्राप्ति सिर्फ़ योग्यता पर तो निर्भर करती नहीं है। लक्ष्य को लेकर हमारी दृष्टि कैसी है- यह भी महत्त्वपूर्ण है। इसका महत्त्व तो इतना है कि हम क्या सोच रहे हैं, इससे भी फ़र्क पड़ता है- हम कितना सफ़र तय कर चुके हैं यह सोच रहे हैं या कितना सफ़र करना बाक़ी है, यह सोच रहे हैं। बात थोड़ी अटपटी लग सकती है, पर मनोवैज्ञानिक परीक्षणों से यही निष्कर्ष निकल कर आए हैं।
शिकागो विश्वविद्यालय के दो प्रख्यात मनोवैज्ञानिक मिनजुंग कू और ऐलेट फिशबेक ने अपने परीक्षण में पाया कि कितना कार्य पूरा हो गया है, इस पर केंद्रित रहने वाले एक premature sense of accomplishment से या कार्यसिद्धि के मिथ्याबोध से ग्रसित हो जाते हैं। उन्होंने पाया कि कितना कार्य बाक़ी है, इस पर ध्यान रखने वाले उन लोगों से बेहतर परिणाम देते हैं, जो यह ध्यान रखते हैं कि कितना कार्य हो गया है।
एक विद्यार्थी जो यह सोचता है कि 70 प्रतिशत पाठ्यक्रम पूरा हो गया है, उस विद्यार्थी से पिछड़ सकता है जो यह सोचता है कि 30 प्रतिशत पाठ्यक्रम बाक़ी है, अपूर्ण है। इससे हमें यह निष्कर्ष मिलता है कि ख़ुद को बेहतर बनाने की होड़ में लगे रहकर तथा यह विश्वास रखते हुए कि योग्यता अर्जित की जा सकती है, बेहतर परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। साथ ही, अगर हम कितना कार्य हो गया है (to date thing) पर ध्यान न देकर कितना कार्य शेष है (to do thing) पर ध्यान दें, तो सफलता के आसार बढ़ेंगे।
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