एक सुबह,
जब मैं घर से निकला,
देखा तुम छत पर,
ओस की बूंदों सी झिलमिल,
बालों को तौलिए से झटकते हुए,
खुद बूंद-बूंद सी पिघलती जा रही थी!
एक सुबह,
जब मैं घर से निकला,
तुम मुसकुराती हुई एक अधखिले गुलाब को चूमती हुई,
खुद खिली-खिली महकती गुलाब हुई जा रही थी!
एक सुबह,
जब मैं घर से निकला,
तुम नहीं थी,
नजरें इधर-उधर घुमाई,
लेकिन तुम नहीं दिखी,
पता चला,
एक गौरैये के टूटे घोंसले से तुम आहत थी,
गौरैये के चूं-चूं की नीरवता में तुम खामोश हुई जा रही थी!
उस सुबह के बाद,
मैंने कभी छत पर तुम्हें नहीं देखा,
उस सुबह कुछ टूट-सा गया शायद,
इनसानों के कत्लगाह में एक सुबह,
पता चला,
तुम गौरेये की तरह ही फना हो गयी!