काश मैं भी भ्रष्ट होता , चरित्रहीन – मक्कार भी होता ;
बगुला-भगत , पाखंडी होता , कौम का मैं गद्दार भी होता ।
तब दिल में कोई दर्द न होता, धर्म की कुछ चिंता न करता ;
चाहे जितने गले भी कटते , मैं तो हरदम मौज में रहता ।
राजनीति में निश्चित आता , बहुत बड़ा नेता बन जाता ;
दांत निपोरे हंसता रहता , अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी पाता ।
अरबों-खरबों का धन आता , मुफ्त में रहना-खाना होता ;
मुफ्त में पूरी यात्रा होती , दुनिया भर में मौज मनाता ।
रोज-रोज मेकअप करवाता , चार बार वस्त्रों को बदलता ;
रंग-बिरंगी पगड़ी पहनकर , फोटो- सेशन भी खूब कराता ।
टीवी के जितने चैनल हैं , मैं ही मैं छाया रहता ;
किसी काम को कोई भी करता , मगर श्रेय मैं ही ले जाता ।
बड़े-बड़े ओहदों में रहता , कमजोरों पर धौंस जमाता ;
शाहीन – बाग भी होने देता , रोड – जाम भी खूब कराता ।
संविधान में आग लगाकर , अपनी रोटी सेंका करता ;
वोट-बैंक में खाता खुलवाकर , राजनीति चमकाया करता ।
धर्म-संस्कृति में लात मारकर , विश्व का नेता मैं बन जाता ;
मनमाने मंदिर तुड़वाकर , पक्का-सेक्युलर मैं बन जाता ।
माहिर होता लफ्फाजी में , नौटंकी का मैं बेस्ट-एक्टर ;
महामूर्ख हिंदू-जनता है , मरती रहती है सब-कुछ देकर ।
नोबेल-प्राइज की आशा में , तुष्टीकरण मैं खूब बढ़ाता ;
पोप के आगे नाक रगड़ता , कभी तो मेरा नंबर आता ।
हिंदू का क्या ? गाजर-मूली , मजहब वाले काट के खायें ;
रहे सलामत मेरा ओहदा , चाहे देश भाड़ में जाये ।
यही रीति है इस भारत की , गांधी ने शुरुआत करी है ;
फिर भी राष्ट्रपिता बन बैठा , मैंने तो बस नकल करी है ।
मैं भी गांधी – 2 बन जाऊं , राष्ट्र-पितामह बन जाऊंगा ;
दुनिया भर में छा जाऊंगा , अपने बुत लगवा जाऊंगा ।
इतना सब कुछ होने पर भी , मैं क्या चैन से मर पाऊंगा ?
जो भी साम्राज्य बनाया होगा, क्या मैं साथ लिये जाऊंगा ?
ऐसा कुछ नहीं होने वाला , कुछ भी साथ नहीं जायेगा ;
केवल कर्म ही साथ जायेंगे, उनका भुगतान भुगतना होगा ।
और जीतेजी भीक्या चैन मिलेगा,क्या मैं दर्पण देख पाऊंगा
मैं जैसा हूँ , सर्वोत्तम है , चैन से जीवन – मृत्यु पाऊंगा ।
“जय हिंदू-राष्ट्र”
रचनाकार : ब्रजेश सिंह सेंगर “विधिज्ञ”