हम सब अपने पर बहुत भरोसा करते हैं। हममें से अधिक लोग अपने को सेल्फमेड मानते हैं। अपने को सेल्पमेड मानना, अपने को अपने द्वारा निर्मित मानना वैसे ही है, जैसे कोई अपना बाप होने की कोशिश करे।
करते हैं सभी लोग। पूरी जिंदगी यही चेष्टा है कि हम सिद्ध कर दें कि हम अपने बाप हैं। या ऐसी चेष्टा है कि कोई अपने जूते के बंद को पकड़कर अपने को उठाने की कोशिश करे।
करते हैं हम सब। थक जाते हैं, बंद टूट जाते हैं, हाथ—पैर टूट जाते हैं। कोई उठा नहीं पाता अपने को। जूते के बंद से पकड़कर अपने को उठाना!
लेकिन यह अपने पर भरोसा छोड़ना प्रार्थना है। छोड़े यह भरोसा कि मैं खुद ही उठा लूंगा। छोड़े यह भरोसा कि मैं खुद ही उठा लूंगा। छोड़े यह भरोसा कि मैं खुद ही खोज लूंगा। छोड़े यह भरोसा कि सन्मार्ग मैं बना लूंगा, मैं पहुंच जाऊंगा। छोड़े यह भरोसा कि मंदिर की यात्रा मुझसे हो सकती है।
फिर भी मैं कहता हूं यात्रा आपसे ही होगी। कोई और यात्रा करवाने वाला नहीं है। लेकिन इस भरोसे के छोड़ते ही यात्रा शुरू हो जाती है। यह भरोसा ही बाधा है।
जटिल मालूम पड़ेगा थोड़ा सा। जटिल जरा भी नहीं है। यह भरोसा ही बाधा है। यह अपने पर भरोसा छोड़े। और अपने पर भरोसा छोड़ते ही आपकी ऊर्जा मुक्त हो जाती है।
अपने पर भरोसा छोड़ते ही आपकी ऊर्जा परमात्म—प्रतिष्ठित हो जाती है। अपने पर भरोसा छोड़ते ही आप ही देवता हो जाते हैं। अपने पर भरोसा छोड़ते ही।
कोई और अग्निदेवता नहीं है, जो आपको ले जाएगा। आपके ही भीतर छिपी हुई अग्नि काफी है। आपके भीतर ही दिव्यता काफी छिपी है, वही यात्रा शुरू कर देगी।
लेकिन जितना अहंकार उतनी ही वह दिव्यता संकुचित हो जाती है। जितना अहंकार उतना ही उस दिव्यता को मार्ग नहीं मिलता। जितना अहंकार उतने ही द्वार—दरवाजे बंद।
जितना अहंकार उतनी ही वह दिव्यता लाख उपाय करे तो ऊपर नहीं जा सकती। क्योंकि अहंकार पत्थर की तरह गले में लटका होता है। और अहंकार डुबाता है नदी में। छोड़े भरोसा। उस पत्थर को, जिसको गले में बांधे हैं, उसे अलग करें। आप तैर जाएंगे। आप ही तैर जाएंगे।
प्रार्थना सिर्फ अपने अज्ञान की स्वीकृति है। सिर्फ अज्ञान की ही नहीं, असहाय अवस्था की भी। अज्ञान ही नहीं है, बड़े असहाय हैं। कोई कूल नहीं दिखता, कोई किनारा नहीं दिखता, कोई नाव नहीं दिखती, कुछ नहीं दिखता।
सागर अनंत दिखता है। गहराई भयंकर है। सामर्थ्य नहीं है बिलकुल। आंख बंद करके समझे चले जाते है कि नाव में हैं — कागज की नावें हैं! आंख बंद करके समझे चले जाते हैं कि ठीक है सब, तट पर खड़े हैं। बड़ी असहाय — बिलकुल हेल्पलेस है।
प्रार्थना में अज्ञान की स्वीकृति है, साथ ही स्वीकृति है इस बात की कि मैं असहाय हूं। कोई उपाय नहीं, निरुपाय हूं। और जिसने यह की घोषणा कि मैं निरुपाय हूं उसके हाथ आया उपाय।
यह निरुपाय होने की घोषणा ही उपाय है। यह असहाय होने की पूर्ण स्वीकृति ही परम सहारे को उपलब्ध हो जाना है। जिसने छोड़ा अपने को, उसने पाया प्रभु को।
जिसने कहा, अब से तू ही चला तो मैं चलूंगा, तू ही उठा तो मैं उठूंगा, अब तू जहां ले जाए वहीं मैं जाऊंगा। जिसने इतनी सरलता से, अनकंडीशनल, बेशर्त समर्पण से, सरेंडर से अनंत के प्रति ज्ञापन किया, उसके भीतर का द्वार खुला।
ये प्रार्थनाएं द्वार खोलने की कुंजियां हैं। ये छोटी—छोटी प्रार्थनाएं बड़ी गहरी हैं। ये बड़ी दूरगामी हैं।
इस प्रार्थना को स्मरण रखें। उठते, बैठते, सोते, चलते, क्षणभर को मौका मिले, तो कहें अपने से, नहीं कुछ जानता हूं असहाय हूं। प्रभु, तू ले चल।
फिर भी मैं कहता हूं जोर देकर कहता हूं कि कोई आपको ले जाने वाला नहीं आएगा। लेकिन यह प्रार्थना आपको ले जाएगी। आप ही समर्थ हो जाएंगे प्रार्थना के करते ही। प्रार्थना शक्ति है, बड़ी महत शक्ति है।
छोटे से अणु में अगर विराट ऊर्जा छिपी है, तो छोटी सी प्रार्थना में अनंत अणुओं से भी ज्यादा विराट ऊर्जा छिपी है। करें और देखें।
तत्क्षण परिणाम है, तत्क्षण। एकदम हल्के हो जाएंगे। पंख निकल आएंगे और उड़ने की तैयारी हो जाएगी। भार गया। भार है ही हमारी अस्मिता में, अहंकार में, ईगो में।
और हम ऐसे कुशल हैं कि हम प्रार्थना तक से अहंकार को भर लेते हैं।
ओशो
ईशावास्य उपनिषद