तुम्हारे भीतर से जब तुम बाहर की तरफ जाते हो तो चीजें एक दूसरे से दूर होती जाती हैं, फासला बढ़ता जाता है।
इसलिए हजार तरह के विज्ञान पैदा हो गये हैं, होंगे ही; क्योंकि फासला बड़ा होता जाता है। रोज नये विज्ञान पैदा हो रहे है; क्योंकि जैसे—जैसे हम आगे बढ़ते हैं, और फासला हो जाता है।अब वैज्ञानिक बहुत परेशान है; क्योंकि वे कहते है कि एक विज्ञान की भाषा दूसरे की समझ में नहीं आती।
और अब ऐसा एक भी आदमी पृथ्वी पर नहीं जो सभी विज्ञान को समझता है; जो सभी के बीच कोई संश्लेषण कर ले। ऐसे तो बहुत कठिन हो गया मामला।
एक ही विज्ञान को जानना असंभव जैसा है, तो दुनिया में ज्ञान बहुत है, लेकिन संश्लेषण बिलकुल खो गया है।
और, धर्म एक है, उनके नाम कितने ही अलग हों; क्योंकि जैसे ही कोई व्यक्ति भीतर की तरफ आता है, फासला कम होने लगता है।
केंद्र पर सब चीजें जुड़ जाती है। केंद्र परम संश्लेषण है—अल्टीमेट सिंथीसिस।
वितर्क अर्थात विवेक से आत्मज्ञान होता है। तोड़ो मत! बाहर मत जाओ!
दूसरे पर ध्यान मत रखो! भीतर ध्यान लाओ! जोड़ो! धीरे—धीरे सरकते आओ केंद्र की तरफ; उस जगह पहुंच जाओ, जहां तुम्हारे प्राणों का मध्यबिंदु है। वहां ठहर जाओ; महाऊर्जा उत्पन्न होगी।
वह जो हम प्रकाश देखते हैं—बुद्ध और महावीर में; वह जो हम आनंद देखते हैं—कृष्ण में, मीरा में, चैतन्य में—वह किस बात का आनंद है?
वह रोशनी किस बात की खबर है? वे उस जगह पहुंच गये, जो अनंत ऊर्जा का स्रोत है। अब वे दरिद्र नहीं हैं। अब वे दीन नहीं हैं। अब वे किसी से मांग नहीं रहे हैं। अब वे सम्राट हो गये हैं। उनका सम्राट होना तुम्हारी भी संभावना है।
लेकिन एक—एक कदम उठाना जरूरी है।
विस्मय—स्व में स्थिति की धारणा, वितर्क से स्वयं तक पहुंचने का उपाय,
और चौथा सूत्र है—लोकानंद समाधिसुखम—अस्तित्व का आनंद भोगना समाधि—सुख है।
और, जब तुम स्वयं में पहुंच गये, ठहर गये तो तुम अस्तित्व की गहनतम स्थिति में आ गये।
वहां सघनतम अस्तित्व है; क्योंकि वहीं से सब पैदा हो रहा है। तुम्हारा केंद्र तुम्हारा ही केंद्र नहीं है, सारे लोक का केंद्र है।
हम परिधि पर ही अलग—अलग है। मैं और तू का फासला शरीरों का फासला है।
जैसे ही हम शरीर को छोड़ते और भीतर हटते है, वैसे—वैसे फासले कम होने लगते हैं। जिस दिन तुम आत्मा को जानोगे, उसी दिन तुमने परमात्मा को भी जान लिया।
जिस दिन तुमने अपनी आत्मा जानी उसी दिन तुमने समस्त की आत्मा जान ली; क्योंकि वहां केंद्र पर कोई फासला नहीं।
परिधि पर हममें भेद हैं। वहां भिन्नताएं हैं। केंद्र में हममें कोई भेद नहीं। वहां हम सब एक अस्तित्वरूप हैं।
शिव कहते हैं: उस अस्तित्व को स्वयं में पाकर समाधि का सुख उपलब्ध होता है।
ओशो
शिवसूत्र