फिल्म समीक्षा: पलटन
स्टार कास्ट: अर्जुन रामपाल, सोनू सूद, जैकी श्रॉफ, सिद्धांत कपूर, लव सिन्हा, ईशा गुप्ता, सोनल चौहान, मोनिका गिल
निर्देशन: जे पी दत्ता
मुंह पर ‘हिन्दी-चीनी भाई भाई कहकर 1962 में ड्रेगन ने धोखे से पीठ में खंजर घोंपा था। सेना पुरजोर जवाब दे सकती थी लेकिन राजनीतिक नेतृत्व ने घुटने टेक दिए थे। पांच साल बाद ड्रेगन फिर बुरी नीयत लेकर आया लेकिन भारत ने अबकी बार उसकी पूंछ पर पैर धर दिया। भारतीय सेना ने चीन को वह मार मारी कि आज भी गलती दोहराने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ती। 62 की हार खूब प्रचारित की गई लेकिन 67 की अभूतपूर्व विजय को इतिहास में वह सम्मान नहीं मिला, जिसकी वह हक़दार थी। ये जीत इस कदर अहम थी कि चीन कामयाब हो गया होता तो हम सिक्किम खो देते। जेपी दत्ता की ‘पलटन’ उस बिसराई हुई जीत को स्मरण करवाने का प्रयास है। दुःखद बात ये है कि इस प्रयास को दर्शकों का साथ नहीं मिल पा रहा है।
62 की धोखे से हासिल की हुई जीत के बाद चीन गलफहमी में था कि वह मनोवैज्ञानिक रूप से भारत पर दबाव बना लेगा। नाथू ला दर्रे पर हुई ऐतिहासिक जंग से पहले दोनों ओर से मनौवैज्ञानिक युद्ध हुआ था। जेपी दत्ता ने उन घटनाओं को सिलसिलेवार ढंग से प्रस्तुत किया है। चूँकि फिल्म एक सच्ची घटना पर बनाई गई है इसलिए सारी परिस्थितियों को दिखाना तो होगा ही। चीन द्वारा सीमा पर लाऊड स्पीकर लगाकर दबाव बनाना, फेंसिंग लगाने को लेकर विवाद होना। दोनों ओर से तनाव बढ़ना। युद्ध दिखाने से पहले ये सब दिखाना आवश्यक हो जाता है। लिहाजा पहले भाग में फिल्म धीमी लगती है।
जेपी दत्ता ऐसे फ़िल्मकार नहीं हैं जो बॉक्स ऑफिस की सफलता के लिए समझौते कर ले। वे इस लड़ाई में काल्पनिक तथ्य डालकर भीड़ खींचने का इरादा भी नहीं रखते। उन्होंने नाथू ला की लड़ाई को फिल्म द्वारा ‘डाक्यूमेंट’ करने की कोशिश की है। पहला भाग धीमा होने के कारण दर्शक इसमें रूचि खोने लगता है। वह दर्शक जो इस फिल्म से भारी मात्रा में मनोरंजन चाहता है, खरीदी गई टिकट की पूरी वसूली चाहता है। जो दर्शक नाथू ला की बर्फीली रणभूमि की गाथा देखना चाहते हैं, वे धैर्य के साथ क्लाइमैक्स का इंतज़ार करेंगे। पहले भाग में कहानी को विस्तार दिया गया है। कहानी का फैलाव कुछ बोर लगता है लेकिन स्क्रीनप्ले को देखते हुए ये आवश्यक था।
पलटन का क्लाइमैक्स इसकी सबसे बड़ी यूएसपी है। फिल्म के अंतिम तीस मिनट में कहानी पूरे शबाब पर होती है। सीमा पर तारबंदी करते समय चीन अचानक हमला बोल देता है और दोनों तरफ से भयंकर गोलीबारी शुरू हो जाती है। उन तीस मिनटों के लिए ये फिल्म जरूर देखना चाहिए। जेपी दत्ता ने क्लाइमैक्स में अपना पूरा अनुभव झोंक दिया है। ये ऐसा सीक्वेंस है जो दर्शक के जेहन में घर पहुँचने तक बरक़रार रहता है। इस सीक्वेंस में तकनीक और एक्शन का सुंदर तालमेल देखने को मिला है।
एक अरसे बाद जेपी दत्ता लौटे तो उन्हें बड़े सितारों का साथ नहीं मिला। इसका बुरा असर फिल्म की ओपनिंग पर हुआ है। सोनू सूद और अर्जुन रामपाल भले ही बेहतर अभिनेता हो लेकिन उनकी स्टार प्रेजेंस दमदार नहीं है। इस कास्टिंग का खामियाज़ा बहुत ही कम ओपनिंग के रूप में मिला है। इन दोनों अभिनेताओं ने अपने किरदार के साथ इंसाफ किया है लेकिन इंस्टेंट मनोरंजन चाहने वाले दर्शकों के लिए कम है। एक सितारा इन सबके बीच उभरकर आया है। इसका नाम है हर्षवर्धन राणे। हर्षवर्धन ने मेजर हरभजन सिंह का किरदार निभाया है। मध्यप्रदेश के ग्वालियर के निवासी हर्षवर्धन के रूप में इंडस्ट्री को नया सितारा मिला है। फिल्म का बॉक्स ऑफिस पर जो भी अंजाम हो लेकिन हर्षवर्धन जैसा मौलिक अभिनेता तो मिल ही गया है। सारे सितारों के बीच उनका अभिनय सबसे अधिक सराहनीय है।
पलटन के संवाद सुनने लायक हैं। एक जगह लेफ्टिनेंट कर्नल राय सिंह यादव अपने माहतत से कहता है ‘फौजी जंग नहीं चाहता। इसलिए नहीं चाहता कि वह जिनको पीछे छोड़ आया, उनसे प्यार बहुत करता है।’ फिल्म का कैमरा वर्क लाजवाब है। जेपी दत्ता की फिल्म दर्शनीय लगती है तो सुंदर कैमरा संचालन के कारण। लड़ाई ख़त्म होती है। हर ओर लाशों का मंज़र है। शहीदों के घर उनकी अस्थियां पहुंचाई जा रही हैं। यहाँ एक गीत शुरू होता है जो फिल्म के अंत तक जारी रहता है। अंतिम शॉट में लहराते तिरंगे के साथ लिखा आता है। ‘तिरंगा कभी हवा के कारण नहीं लहराता। वह लहराता है सैनिकों के साँस लेने से’
URL- ‘Paltan’ movie review- must watch due to beautiful camera work
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