जब इस फिल्म की कॉस्ट सामने आई थी, तभी अहसास हो चला था कि निर्देशक आशुतोष गोवारिकर ने अपने फिल्म करियर का सबसे भद्दा अध्याय शुरू किया है। ‘पानीपत’ को फिल्म के विद्यार्थियों के बीच ‘मिस्कास्टिंग के परफेक्ट केस’ की तरह पढ़ाया जाना चाहिए।
हिन्दी फिल्म के इतिहास में ‘मिस्कास्टिंग’ के इतने प्रखर उदाहरण कम ही देखने को मिलते हैं। वैसे आशुतोष गोवारिकर के लिए ये ‘ज़ोर का झटका’ नहीं है। फिल्म उद्योग और दर्शकों को इस फिल्म से ऐसे ही झटके की आशंका थी, जो सत्य होती दिखाई दे रही है। एक यादगार ऐतिहासिक घटनाक्रम को बोरियत की हद तक ले जाती है ‘पानीपत’।
ये किसी भी तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि आशुतोष जैसे योग्य निर्देशक न केवल ऐसा बेदम स्क्रीनप्ले तैयार करें बल्कि जिस गहराई के लिए वे जाने जाते हैं, वह एक सीन में भी नज़र न आए। जो निर्देशक अपने कॅरियर में ‘लगान’ और ‘जोधा-अकबर’ जैसे विश्व स्तरीय कालखंड फ़िल्में बना चुका हो, उसकी ऐसी गिरावट देखना एक यातना भरा अनुभव है।
पानीपत की महान लड़ाई, जिसमे एक ओर हिन्द के तख़्त पर लार टपकाए खड़ा अब्दाली था तो उसके सामने डटकर खड़े सदाशिव राव भाऊ जैसे योद्धा थे। सदाशिव भाऊ जानते थे कि खजाना खाली हो रहा है और अब्दाली की एक लाख की सेना के विरुद्ध वे अन्य शासकों की सहायता के बिना जीत नहीं सकेंगे। ये कथा भारत को एक सूत्र में पिरोने की कथा थी लेकिन इस कहानी का वह दर्शन फिल्म में दिखाई ही नहीं देता।
जैसा कि मैंने कहा कि फिल्म में मिस्कास्टिंग सबसे बड़ी विलेन साबित हुई है। फिल्म के सबसे केंद्रीय पात्र सदाशिवराव भाऊ के लिए जब आप अर्जुन कपूर जैसे औसत अभिनेता का चयन करते हैं तो लड़ाई शुरू होने से पहले ही हार जाते हैं। अर्जुन कपूर ही ‘मैच के मुजरिम’ हैं।
अब तक के कॅरियर में वे ये सिद्ध नहीं कर सके कि उन्हें अभिनय आता है। और ऐसे अभिनेता को फिल्म का सेंट्रल कैरेक्टर दे दिया जाता है। यहाँ जरूरत थी कि अर्जुन कपूर ‘सदाशिव’ के चरित्र में उतर जाते, सोते-जागते, उठते-बैठते केवल भाऊ ही बन जाते लेकिन पूरी फिल्म में ‘अर्जुन कपूर’ की जगह ‘सदाशिव भाऊ’ ले ही नहीं पाता। वे न मेथॅड एक्टिंग कर पाते हैं, न ही संवाद अदायगी के गुर उन्होंने सीखे हैं।
मोहनीश बहल, पद्मिनी कोल्हापुरे, नवाब शाह, मंत्रा, कुणाल कपूर, रविंद्र महाजनी के हाथ में कुछ नहीं था क्योंकि वे गलत किरदार को निभा रहे थे। मिस्कास्टिंग के कारण ये अच्छे कलाकार होते हुए भी निष्प्रभावी ही सिद्ध होते हैं। एक पीरियड ड्रामा बनाया है लेकिन इसकी कहानी एक सीधी लकीर में चलती है। कोई रोमांच नहीं, कोई उत्तेजना नहीं।
जिस महान लड़ाई को आप फिल्म के दूसरे भाग में दिखाने वाले हैं, उसकी स्ट्रांग सिचुएशन आप पहले भाग में पैदा ही नहीं कर पाते। न कोई केमेस्ट्री अर्जुन कपूर और कृति सेनन के बीच उभर पाती है। फिल्म के हर विभाग से गहराई गायब है। आप दर्शक को ये फील ही नहीं करा पाते कि वह इतिहास की एक महान लड़ाई देखने जा रहा है।
संजय दत्त ने अब्दाली के किरदार के लिए ठीक से तैयारी नहीं की थी। यहाँ देखने योग्य बात ये है कि संजय दत्त और अर्जुन कपूर दोनों ही अपनी पहचान मिटाकर अब्दाली और सदाशिव को परदे पर जीवंत करने में पूर्णतः असफल रहे हैं। ढाई घंटे की इस फिल्म में दर्शक रोमांच तलाशता रह जाता है। उसे न अभिनय मिलता है और न एक उम्दा कहानी। इस तरह की फिल्मों में दर्शक की रूचि बनाए रखना आवश्यक होता है लेकिन निर्देशक ने इस बात की परवाह नहीं पाली कि पहले हॉफ में वे न मनोरंजन दे पाते हैं, न रोमांच।
शुक्रवार को फिल्म बहुत सीमित फुटफाल्स के साथ खुली है। युवा दर्शकों ने इसे देखने में कम उत्साह दिखाया है। माउथ पब्लिसिटी की बात करना ही बेकार है। शुरूआती समीक्षाएं सकारात्मक हैं लेकिन दर्शक की राय उनसे भिन्न दिखाई दे रही है। फिल्म का भविष्य लगभग तय हो चुका है कि बहुत जल्द ये ‘वॉक आउट’ कर जाएगी। सबसे बड़ी तकलीफ ये है कि हमने इस फिल्म का मर्सियाँ पढ़ते-पढ़ते एक होनहार निर्देशक की मौत देखी है। यदि अर्जुन कपूर सदाशिव राव को महज पांच प्रतिशत भी ग्लोरिफ़ाई कर पाते, वैसे शौर्यवान दिख पाते तो फिल्म के दूसरे भाग में फिल्माए गए शानदार एक्शन सीक्वेंस भी कुछ अर्थ रखते।