कैप्टन अश्वथ रैना मंत्रालय में मंत्रियों और सलाहकारों के साथ बैठा हुआ है। टेबल पर चीन के परमाणु परीक्षण की चर्चा हो रही है। सलाहकार तरह-तरह की सलाह दे रहे हैं। इससे गंभीर माहौल हल्का हो गया है। एक सलाहकार मंत्री जी से कहता है ‘हम चीन पर प्रतिबंध लगा देंगे’। तभी कोने की कुर्सी पर बैठा अश्वथ रैना दृढ़ता से कहता है कि हमें भी परमाणु शक्ति बनना होगा। इस पर कमरे में हंसी की लहर फ़ैल जाती है। एक अधिकारी कहता है ‘हम परमाणु परीक्षण पहले कर चुके हैं।’ रैना कहता है ‘वह तो ऐसा हुआ कि गाड़ी की क्षमता गैरेज में ही देख ली, उसे चलाया ही नहीं।’ बहस को रोकते हुए मंत्री जी कहते हैं इन्हे बोलने दो, चाय आने तक थोड़ा मनोरंजन हो जाएगा’। अश्वथ समझाता है कि इस प्लानिंग को किस तरह अंजाम दिया जाएगा और वह एक फ्लॉपी निकालकर बता रहा है क़ी प्लानिंग इसमें है। कुछ देर बाद मंत्री जी चाय पीने के बाद उसी फ्लॉपी पर चाय का कप रख देते हैं’।
निर्देशक अभिषेक शर्मा की फिल्म ‘परमाणु: द स्टोरी ऑफ़ पोखरण’ का ये दृश्य हमें उस भारत के फ्लैशबैक में ले जाता है, जहाँ परमाणु परीक्षण करने की बात करना चुटकुले के समान थी। जॉन अब्राहम की ये फिल्म पोखरण परीक्षण से पहले की परिस्थितियों से प्रारम्भ होती है और आखिर में भारत की गर्व भरी उपलब्धि पर समाप्त होती है। पोखरण परीक्षण क्यों जरुरी था, उस वक्त देश की राजनीतिक परिस्थितियां क्या थी, अमेरिकन सेटेलाइट की आँखें हम पर क्यों लगी रहती थी, कैसे हम इस अभियान में सफल रहे, इन सब बातों का जवाब ये फिल्म बखूबी देती है। फिल्म का एक रेशा देशप्रेम में डूबा हुआ है तो दूसरा रेशा कैप्टन रैना जैसे भारतीय की कहानी कहता है जिसको उसके अविस्मरणीय योगदान के बदले न पैसा मिला न पद।
फिल्म उस समय के हालातों को बेहद मनोरंजक ढंग से हमारे सामने रखती है। निर्देशक ने बखूबी दिखाया है कि एक कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी कैसे सिस्टम से लड़ते हुए खुद को साबित करता है। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार आने के बाद पोखरण परमाणु परीक्षण एक बार फिर करने के प्रयास किये गए थे। भारत को अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में अभी साबित करना बाकी था कि हम भी परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र बन सकते हैं। एक बार हमारी योजना असफल हो चुकी थी क्योंकि अमेरिकन सेटेलाइट ने इस बात को प्रचारित कर दिया था। भारत के सामने चुनौती थी कि अमेरिकन सेटेलाइट को धोखा देते हुए इस काम को अंजाम दे। अभिषेक शर्मा की फिल्म इन सारी घटनाओं को सिलसिलेवार ढंग से दिखाती है।
जॉन अब्राहम यूँ तो एक औसत अभिनेता हैं लेकिन अपने किरदार के लिए बहुत मेहनत करते हैं। फिल्म उनके ही किरदार पर टिकी हुई है। कैप्टन रैना के किरदार में काफी सारे शेड्स थे, जिन्हे जॉन मंझे हुए अभिनेता की तरह प्रकट करते हैं। अटल जी के पीए बने हिमांशु शुक्ला के किरदार को बोमन ईरानी ने सजीवता से पेश किया है। ये एक सशक्त किरदार था, जिसके साथ वे पूरा न्याय करते हैं। नई लड़की अनुजा साठे ने कैप्टन रैना की पत्नी के रूप में अपनी मौजूदगी मजबूती से दर्शाई है। डायना पैंटी को लिया जाना ‘मिस्कास्टिंग’ का खूबसूरत उदाहरण है। वे इस किरदार के अनुरूप नहीं थी।
निर्देशक की कामयाबी ये है कि वह परमाणु विस्फोट जैसे जटिल विषय को आसानी से दर्शक को समझा पाते हैं। फिल्म का क्लाइमैक्स अद्भुत ढंग से बनाया गया है। चार बजकर पैतालीस मिनट पर जैसे ही पोखरण की धरती हिलती है, सब कुछ फ्रिज हो जाता है। एक तकनीक की मदद से उस पल में सब कुछ ठहर जाता है। आप भारत के उस गर्व को इस ‘स्टील शॉट’ में महसूस कर सकते हैं। इस फिल्म को आशानुरूप ओपनिंग मिली है। पहले दिन दर्शक की प्रतिक्रिया बता रही है कि फिल्म कामयाबी के पथ पर दौड़ेगी।
पहले शो में मैंने थिएटर में अधिकांश युवाओं को देखा जो जॉन अब्राहम के लिए चले आए थे लेकिन उनको भारत की महान उपलब्धि के बारे में कुछ पता नहीं था। फिल्म खत्म होने के बाद मैंने कई युवाओं की आँखें नम होती देखी। फिल्म के आखिर में बताया जाता है कि पोखरण-2 विश्व की गिनती विश्व के चुनिंदा ख़ुफ़िया ऑपरेशन में की जाती है। सिनेमा अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। परमाणु जैसी फ़िल्में इस माध्यम के प्रति आम दर्शक के मन में सम्मान प्रकट करती है। बहुत खूब अभिषेक शर्मा, बहुत खूब जॉन।
URL: Parmanu The Story Of Pokhran Review: Story of patriots like Captain Raina
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