संदीप देप। कल मैंने आपको 1802 से लग रहे कुंभ का प्रमाण कुमार निर्मलेंदु की पुस्तक ‘प्रयागराज और कुंभ’ से दिया था, जिससे स्पष्ट हो रहा था कि 2025 का यह कुंभ केवल मार्केटिंग में 144 वर्षीय ‘महाकुंभ’ है, जबकि इसका सच्चाई से कोई लेना-देना नहीं। हां, यह ‘पूर्ण कुंभ’ है और इसमें स्नान की उतनी ही शास्त्रीय महत्ता है, जितनी अभी से पहले सभी कुंभों में स्नान की रही है!
यह कोई अलग तरह का कुंभ नहीं है, जिसको मार्केटिंग से प्रतिपादित कर 60 करोड़ लोगों को यहां ला कर 3.5 लाख करोड़ राजस्व पैदा करने का आर्थिक टारगेट रखा गया था, जिसे कल स्वयं मुख्यमंत्री ने कहा है।
कुंभ, पूर्ण कुंभ, अर्द्ध कुंभ और महाकुंभ का शास्त्रीय साक्ष्य देने से पहले एक कथा से शास्त्रों का आधार समझ लेते हैं। वाल्मीकि रामायण में कथा आती है कि जब श्रीराम ने बाली को मारा तो उसने इसे अधार्मिक कहते हुए कहा कि “दो की लड़ाई में तीसरे द्वारा छुप कर मुझे मारना अधार्मिक है, जबकि मैंने तो आपका कुछ बिगाड़ा भी नहीं था, न ही मेरी आपसे कोई शत्रुता ही थी।”
प्रथमदृष्टया बाली की बात धार्मिक लगती है, परंतु वाल्मीकि जी इसे धर्म की जगह ‘धर्माभास’ कहते हैं! धर्माभास अर्थात जो धर्म नहीं है, लेकिन धर्म का आभास कराता है। फिर धर्म क्या है और उसकी पहचान कैसे निर्धारित हो? तो श्रीराम जी बाली को मनुस्मृति के श्लोकों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि कैसे उसका वध धार्मिक था। शास्त्रों के उद्धरण को देखकर बाद में बाली भी यह स्वीकार कर लेते हैं कि उनकी हत्या धार्मिक थी। तो रामचंद्र जी भले भगवान हैं, परंतु धर्म के लिए वह भी श्रुति -स्मृति पर ही आधारित हैं। श्रुति माने वेद और स्मृति माने धर्मशास्त्र।
महर्षि वशिष्ठ से लेकर वेदव्यास जी तक, सबका यही कहना है कि जो वेद सम्मत है वह धर्म है। जो उसे नहीं मानता वह नास्तिक है।
अब देखते हैं कि क्या वेद में ‘कुंभ’ का वर्णन आया है? सिर्फ एक उदाहरण लेते हैं:-
अथर्ववेद में एक श्लोक है:- चतुर: कुम्भांश्चतुर्धा ददामि(अथर्व| 4| 34| 7)
अर्थात्:- ब्रह्मा जी कहते हैं, “हे मनुष्यों! मैं तुम्हें ऐहिक तथा आमुष्मिक सुखों को देने वाले चार कुंभ पर्वों का निर्माण कर चार स्थानों (हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक) में प्रदान करता हूं।

अब देखते हैं कि ‘पूर्ण कुंभ’ शब्द वेद में आया है कि नहीं?
अथर्ववेद में ही एक श्लोक है:-
पूर्ण: कुम्भोऽधि काल अहितस्तं वै पश्यामो बहुधा न सन्त:।
स इमा विश्वा भुवनानि प्रत्यंकालं तमाहु: परमे व्योमन् ( अथर्ववेद| 19| 53|3)
अर्थात्:- हे संतगण पूर्ण कुंभ 12 वर्ष के बाद आता है, जिसे हम अनेक बार चार तीर्थस्थलों में देखते हैं। कुंभ उस काल विशेष को कहते हैं, जो महान् आकाश में ग्रह राशि आदि योग से होता है।
तो कुंभ की तरह 12 वर्ष पर लगने वाला पूर्ण कुंभ भी वैदिक है और इसका आधार आकाशीय ग्रहों की दशा है।
अब ‘अर्द्ध कुंभ’ देखते हैं कि वेद में है या नहीं?
कुंभ पर गीता प्रेस की पुस्तक ‘महाकुंभ पर्व’ के अनुसार अर्धकुंभ के प्रारंभ होने के संबंध में कुछ लोगों के विचार हैं कि मुगल साम्राज्य में हिंदू धर्म पर जब अधिक कुठाराघात होने लगा उस समय चारों शंकराचार्यों ने हिंदू धर्म की रक्षा के लिए हरिद्वार एवं प्रयाग में संतों की बैठक कर इसे आरंभ किया तभी से हरिद्वार और प्रयाग में अर्द्ध कुंभ लगने लगा।
तो ‘अर्द्ध कुंभ’ वेद में तो नहीं है, परंतु इस शब्द के पीछे सनातन धर्म के चारों औपचारिक पीठों का धार्मिक आधार है। ज्ञात हो कि धार्मिक मंथन और शास्त्रार्थ के लिए कुंभ का वृहत आयोजन आदि गुरु शंकराचार्य जी ने ही आरंभ कराया था।
गीता प्रेस की पुस्तक के अनुसार, हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक-इन चारों स्थानों में प्रत्येक 12 वर्ष में कुंभ पड़ता है। किंतु इन चारों स्थानों के कुंभ का क्रम ज्योतिषी गणना पर आधारित है, जिसका विवरण नीचे के SS में है।






अब ‘महाकुंभ’ पर आते हैं। यह शब्द खोजने पर भी वेदों या पुराणों में कहीं नहीं मिलता है। सरकारों, मीडिया और प्रकाशकों ने अपनी-अपनी ओर से इसे लोक व्यवहार में प्रचलित कर दिया है, जैसे गीता प्रेस की यह पुस्तक, परन्तु किसी वेद-पुराण में ‘महाकुंभ’ शब्द नहीं आया है। 1977, 2013 और अब 2025- अपने-अपने हिसाब से संबंधित सरकारों ने इसे ‘महाकुंभ’ कह कर प्रचारित किया है, जबकि इसका कोई शास्त्रीय आधार वेदों या पुराणों में नहीं है।

अब यह 144 वर्ष का क्या गणित है? चूंकि कुंभ का इतिहास देवासुर संग्राम के अरबों सालों के इतिहास से जुड़ा है, अतः इस 144 साल की छोटी काल गणना का कोई वैदिक-पौराणिक आधार उपलब्ध नहीं होता है।
पूर्व के किसी साल से प्रारंभ मान कर सरकारें अपने हिसाब से इस 144 साल की गणना को बैठा देती है, जैसे 1977, 2013 और 2025- इन तीनों को 144 साल बाद आया महाकुंभ का लेबल लगाकर तत्कालीन सरकारों ने मीडिया के सहयोग से प्रचारित कर दिया!
कुंभ की काल गणना समुच्य में नहीं होती कि कोई भी पूर्व का साल लेकर 12×12 = 144 साल घोषित कर दिया जाए। यह केवल कौतुक पैदा कर भीड़ और धन कमाने के लिए किया गया उपक्रम है, इससे अधिक कुछ नहीं! यह 144 साल की गणना वैदिक नहीं है, इसीलिए यह मानने योग्य भी नहीं है। इसे मानने वाला अवैदिक और नास्तिक ही कहलाएगा!
कुंभ का ज्योतिषीय काल गणना निर्धारित है और यह 12 साल तक अमृत प्राप्ति के लिए चले देवासुर संग्राम से जुड़ा है। देवताओं का एक दिन मनुष्यों का 1 वर्ष माना जाता है, इसलिए हर 12 वर्ष पर कुंभ लगता है। इसके पीछे ज्योतिषी गणना भी महत्वपूर्ण है।
अब अगले अंक में स्वतंत्रता के बाद कुंभ की एक तिथि को लेकर हुए घमासान और एक साल के अंतर पर मनाए गये दो कुंभ को लेकर जानकारी दूंगा, जिसमें शंकराचार्यों ने अलग और अखाड़ों ने अलग कुंभ मनाया था। साथ ही निर्विवाद रूप से किस वर्ष के कुंभ के मुहुर्त को अगले 150 साल तक सबसे शुभ माना गया है संतों द्वारा, उस पर भी एक तथ्यपरक रिपोर्ट दूंगा!… धन्यवाद। क्रमशः…
Part-1 यह कोई महाकुंभ नहीं है! ‘मास हिस्टीरिया’ से बाहर निकलो सनातनी हिंदुओं!