अपने गुरु का ऋण लौटाओ
गुरु की कृपा से तुम योगी हो , सदा गुरु का ध्यान धरो ;
गुरु ने जो भी राह दिखायी , सदा उसी पर चला करो ।
राजनीति है गंदा-कीचड़ , तुम “पंकज” की तरह रहो ;
कीचड़ में तो रहना होगा , पर उससे यूँ दूर रहो ।
“पंकज” जहां भी खिल जाता है , दूर गंदगी हो जाती है ;
राजनीति को नीचे रखो , वो दासी बन जाती है ।
जिसके सर पर राजनीति है , वो अब्बासी – हिंदू है ;
राजनीति की तरह ही गंदा , वो तो जिम्मी – हिंदू है ।
धर्म-सनातन की शक्ति से , राजनीति को साफ करो ;
कुछ भी नहीं असंभव तुझसे , धर्म से सारे काज करो ।
धर्म-सनातन सदा ही तुझको , सही राह दिखलायेगा ;
धर्म का साथ कभी मत छोड़ो , तू सब कुछ पा जायेगा ।
घिरा हुआ है तू कीचड़ से , धीरे-धीरे साफ करो ;
चरित्रवान सहयोगी ढूँढो , उनके द्वारा कार्य करो ।
बुझे हुये हैं जितने दीपक , तेरी लौ से जल जायेंगे ;
अंधकार में भटक रहे हैं , सही राह पा जायेंगे ।
देश-प्रदेश की जो भी आशा , तुझको पूरी करनी होगी ;
अपने गुरु का ऋण लौटाओ , युवा-वाहिनी लानी होगी ।
और नहीं कोई भी ऋण है , एक यही ऋण है तुझ पर ;
गुरु को तुझसे जो आशा थी, उसकी जिम्मेदारी तुझ पर ।
अभिमन्यु की तरह घिरा है , महासमर करना ही होगा ;
युवा-वाहिनी पांडव-सेना , साथ में उसको लेना होगा ।
गुरु की कृपा सदा है तुझ पर , “धर्म-युद्ध” तू ही जीतेगा ;
पहले तो बलिदान हुआ था,अब अभिमन्यु विजयी होगा ।
जो भी धुन्ध के बादल छाये , प्रखर-सूर्य से छंट जायेंगे ;
“हिंदू-धर्म-सूर्य” है योगी , अंधकार सब मिट जायेंगे ।
जीत सदा ही सत्य की होती , अब भी सत्य ही जीतेगा ;
सत्य-मार्ग की जो भी बाधा , वो बंधन भी टूटेगा ।
धर्म-सनातन रोक सके जो , वो मांई का लाल कहाँ ?
सूर्योदय को रोक सके जो , अंधकार में ताब कहाँ ?
सूर्य-ग्रहण होता ही रहता , पर जल्दी ही हट जाता है ;
राहु और केतु जो दोनों , सदा ही मुँह की खाता है ।
अब्बासी-हिंदू है ग्रहण धर्म का , जल्दी ही हट जायेगा ;
“हिंदू – राष्ट्र” बनेगा भारत , ये विश्व शांति पायेगा ।
“जय हिंदू-राष्ट्र”, रचनाकार : ब्रजेश सिंह सेंगर “विधिज्ञ”