मानसून की बारिश में जहाँ ज्यादातर लोगों के चहरे पर ख़ुशी दिखती है पहाड़ों में रहने वाले लोगों के चहरे पर परेशानी के बदल मंडराने लगते है ,कौन जाने कब बादल फट जायें और तिनका-तिनका जोड़ा आशियाना सैलाब में बह जाये, हर साल बादल फटने की घटनाओं के बीच पहाड़ सिमटा रहता है! प्रकृति के विनाशकारी तांडव के आगे हमारे प्रयास तिनके का सहारा जैसी हैं! हम सब बेबस हैं प्रकृति के आगे।
प्राकृतिक आपदा हमें लाचार ही नहीं दीन-हीन कर देती है ! मानव प्रगति कर रहा है,अपने ऐशोआराम के साधन जुटा रहा है पर कभी सोचा है किस कीमत पर ? दिन पर दिन ताकतवर होता जा रहा है प्रकृति की जड़ों पर वार कर लेकिन प्रकृति के आगे उसके सारे प्रयास व्यर्थ हैं ! मित्रों जरा सोचिये ‘विकास के नाम पर प्रकृति की अवहेलना करना कहाँ तक जायज है’ ? हर क्रिया के प्रति प्रतिक्रिया होती है और प्रकति जब अपनी प्रतिक्रिया पर आती है तो मानव द्वारा वर्षों के विकास को कुछ ही पलों में वहीँ ला कर खड़ा कर देती है जहाँ से विकास ने चलना शुरू किया था।
कुछ साल पहले बद्री-केदार घाटी और कल पिथौरागढ़ के सींगाली गावं में कल आई प्राकृतिक आपदा प्रकृति का सन्देश है ! जब तक शांत हूँ अच्छी हूँ अगर बिगड़ गयी तो कोई नहीं रोक सकता ! वनों का दोहन,कंक्रीट की बस्तियां, ग्लोबल वार्मिंग ने प्रकृति के चक्र को इतना ज्यादा प्रभावित कर दिया है मुझे लगता है अगर अभी भी इंसान नहीं रूका तो सारी इंसानियत खतरे में पड़ जायेगी,पड़ जायेगी क्या पड़ चुकी है।
जरा विचार करें आप अपने भविष्य को क्या देकर जाना चाहते हैं ? एक स्वस्थ और आदर्श पर्यावरण अथवा डरा सहमा कल,जो प्राकृतिक असम्भवनाओं से भरा हुआ हो ,विचार अवश्य कीजियेगा क्योंकि यह भविष्य का सवाल है।