प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज । जवाहरलाल नेहरू जी से प्रारंभ की गई और अटल बिहारी वाजपेयी तथा नरेन्द्र मोदी जी के शासन में निरंतर मानविकी विद्याओं में जारी कथित पढ़ाई (वस्तुतः झूठा प्रोपेगंडा और मिथ) के विषय में स्वाभाविक ही औसत शिक्षित भारतीय कुछ भी नहीं जानते और वे इसे परिश्रमपूर्वक की गई ईसाइयों की पढ़ाई रूपी सेवा के रूप में ही देखते हैं। परंतु सत्य यह है कि ब्राह्मणों के विरूद्ध और जाति व्यवस्था के विरूद्ध ईसाइयों का आक्रमण 17वीं शताब्दी ईस्वी से ही पूरी तरह नियोजित और छलकपट से भरा हुआ है।
17वीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ में टस्किन निवासी इतालवी जेसुइट मिशनरी राबर्ट डी नोबिली दक्षिण भारत आया। उसने स्वयं को ‘श्वेत ब्राह्मण’ बताया। वह माथे पर चंदन लगाता था और यज्ञोपवीत धारण करता था। उसने तमिल के एक धर्मगुरू स्वामी शिवधर्म का स्वयं को शिष्य घोषित किया और सन्यासी वेशभूषा धारण करने लगा। उसने संस्कृत तेलुगू और तमिल भाषायें सीखीं।
इसके बाद वह कुछ अन्य मिशनरी सेवकों को साथ लाया और सबको ब्राह्मणों की तरह धोती पहनना और यज्ञोपवीत धारण करने कहा। ईसाइयों के बीच वह यज्ञोपवीत की यह व्याख्या करता था कि इसमें जो तीन धागे हैं वे ईसाइयत की ‘ होली ट्रिनिटी’ के आधार हैं – होली फादर, होली सन और होली घोस्ट। अर्थात् जीसस पिता गॉड, जीसस एवं पवित्र प्रेतात्मा, जिसने मरियम के गर्भ में जीसस को गर्भ के रूप में प्रतिष्ठित किया।
इस प्रकार स्वयं को इतालवी ब्राह्मण बताते हुये ही वह तमिलनाडु और गोवा में ईसाइयत का प्रचार करने लगा। उसने ‘येशुर्वेद’ लिखा और उसमें यीशु को वेदों में वर्णित पवित्र देवता भी बताया। उसी समय गोवा में थॉमस स्टीफंस नामक एक अन्य दुष्ट पादरी ने ‘ख्रीस्त पुराण’ लिखा और उसमें यीशु को भगवान का अवतार बताया तथा सर्वोपरि एवं सर्वपूज्य देवता बताया। नोेबिली ने तमिल के अनेक शब्दों को ईसाइयों के बीच प्रतिष्ठित किया – पूजागृह के लिये ‘कोविल’ शब्द और बाईबिल के लिये ‘वेदम’ तथा ईसाई चर्च की विशेष रस्म ‘मॉस’ के लिये पूजा शब्द चलाया और उसमें बाटें जाने वाले रोटी के टुकड़े और शराब को प्रसादम कहकर निचले वर्गों में बांटने लगा।
माथे पर चंदन और कंधे पर यज्ञोपवीत धारण करने का जब अन्य मिशनरियों ने विरोध किया तो मामला पोप तक पहुँचा और तब पोप ग्रेगरी 15वें ने 31 जनवरी 1623 ईस्वी को विशेष आदेश जारी किया। जिसमें भारत में ईसाइयत के प्रचार के लिये स्नान करने, यज्ञोपवीत धारण करने और माथे पर चंदन लगाने को वैध करार दे दिया। उल्लेखनीय है कि तब तक ईसाई मिशनरियों के अनुसार नित्य स्नान करना या महीने में एक से अधिक बार नहाना भी पापपूर्ण कार्य माना जाता था और कहा जाता था कि जो पापी है उसे ही नित्य या सप्ताह में एक बार नहाने की जरूरत पड़ती है।
शेष मिशनरी लोग तथा तत्कालीन सामान्य यूरोपीय जन भी वर्ष में एक या दो बार ही नहाते थे। इसीलिये नहाने की विशेष रस्म वहाँ होती थी जिसे ‘बाथ’ कहा जाता था। ‘नाईटहुड’ उपाधि देने की रस्म में इस प्रकार नहाना एक विशेष रस्म थी। क्योंकि सामान्यतः यूरोपीयजन 20वीं शताब्दी ईस्वी से पहले नित्य स्नान अथवा महीने में एक बार स्नान भी नहीं करते थे। इसीलिये केरल, तमिलनाडु और गोवा क्षेत्र में ईसाइयत के प्रचार के लिये मिशनरी लोग नित्य स्नान कर सकते हैं और स्थानीय लोगों में लोकप्रिय होने के लिये या घुलने-मिलने के लिये यज्ञोपवीत धारण कर सकते हैं तथा माथे पर चंदन लगा सकते हैं और इन सबकी ईसाई पंथ के अनुरूप व्याख्या कर सकते हैं तथा पुराणों की मान्यता भारतवर्ष में बहुत अधिक होने के कारण ख्रीस्त पुराण का पारायण कर सकते हैं और वेदों की सर्वोपरि मान्यता होने के कारण ‘येशुर्वेद’ को वेदम् कहकर प्रचारित कर सकते हैं, इसके लिये पोप ग्रेगरी 15वें को विशेष आदेश जारी करना पड़ा।
इन सब कामों को ही वे ‘चर्च’ की ‘सर्विस’ कहते हैं। इस तथ्य से अनजान शिक्षित हिन्दू सर्विस को मानव सेवा समझ कर अपनाये हुये हैं और इस प्रकार छल-कपट, वंचना, विश्वासघात और पापाचार को सेवा मान बैठे हैं। इसीलिये गांधीजी को भी कहना पड़ा कि शिक्षित हिन्दू ईसाइयत को उतना ही समझते हैं जितना कि कोई बकरी (या भैंस) समझ सकती है।
परंतु प्रारंभ में जो अध्ययनशील सनातनधर्मी हुये, उन्हें बाईबिल और ईसाइयत की पोल पहचानने में कोई समस्या नहीं आई। स्वामी दयानंद ने तो उसकी धज्जियां ही उड़ा दीं। इसीलिये सन्यासियों और ब्राह्मणों से ईसाई मिशनरियों की आरंभ से ही दुश्मनी है और वे उन्हें अप्रतिष्ठित करने के लिये झूठी कहानियां गढ़ते रहे हैं। परंतु इसमें उन्हें तब तक सफलता नहीं मिली, जब तक उन्होंने भारत की अपनी शिक्षा परम्परा को नष्ट नहीं कर दिया।
उसे नष्ट करने के बाद शिक्षा की यूरो-ईसाई जानकारी को ही आधुनिक ज्ञान मान लेने के बाद क्या घटित हुआ है, यह हम इसी तथ्य से जान सकते हैं कि हिन्दूवादी समूह भी पूर्त कर्मों के लिये अर्थात् समाज के अभावों की पूर्ति के लिये समाज के सम्पन्न समूहों द्वारा अनिवार्य रूप से किये जाने वाले पूर्त कार्यों को सेवा कार्य कहने लगे हैं। अर्थात् पापाचार को वैधता तो दी ही, स्वयं अपने पवित्र आचरण को भी पापाचार का पर्यायवाची सम्बोधन दे दिया। (क्रमांक 2 पर जारी क्रमशः)