प्रो. रामेश्वर मिश्र । पंकज ब्राह्मणों से तंग आकर ईस्ट इंडिया कंपनी के भारतीय अधिकारियों ने यूरोप के अनेक पादरियों (ईसाई अध्येताओं) को ब्राह्मणों पर चोट के लिये कुछ लिखने-पढ़ने को पुरस्कृत करने की घोषणा की। फ्रेंच पादरी एबै दुबाय ने फ्रेंच भाषा में एक बड़ा परचा लिखा।
इसके लिये फोर्ट विलियम नामक किले के कंपनी प्रबंधक विलियम हेनरी बेंटिक ने (जिसे इस विषय में मूर्ख और अनपढ़ भारतीय नेता तथा लेखक लोग भारत का गवर्नर जनरल कहते हैं) उस समय कंपनी की ओर से आठ हजार रूपये दिये। जिसका वर्तमान में मूल्य होगा अस्सी लाख रूपये।
फिर कंपनी की ओर से इसे अंग्रेजी में अनुदित कर छपवाया गया और बाद में जब 1858 ईस्वी से लगभग आधे भारत में स्वयं ब्रिटिश शासन हिन्दू राजाओं-रानियों और मुस्लिम नवाबों तथा बेगमों से संधि कर काबिज हो गया, तो उसने 1864 ईस्वी में संशोधित संस्करण के रूप में अंग्रेजी पाठ छपवाया।
1899 ईस्वी में इसे स्वयं पादरियों के सबसे बड़े बौद्धिक संस्थान ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से नये रूप में छापा गया। भारत में इसे पढ़ने की प्रेरणा दी गई और 1947 ईस्वी के बाद कांग्रेस शासन के शिक्षा विभाग ने इसे समस्त देश में समाजशास्त्र के अध्ययन का आधार बना दिया, जो लगातार जारी है। पुस्तक का नाम Hindu Manners, Customs and Ceremonies था।
1823 ईस्वी में इसी एबै दुबाय ने ‘भारत में ईसाइयत का वर्तमान और भविष्य’ (स्टेट ऑफ क्रिश्चियनिटि इन इंडिया) नामक एक पर्चा लिखा जिसमें कहा कि ‘अगर हम ईसाई लोग हिन्दू समाज से बहुत अधिक घुलते मिलते हैं, तो भी यहाँ के मुख्य समाज के लोग कभी भी ईसाई नहीं बनेंगे।
परन्तु वे हिन्दू धर्म के प्रति शंका पाल सकते हैं और ‘एथिइस्ट’ हो सकते हैं। ब्राह्मणों के अभेद्य और दुर्भेद्य पूर्वाग्रहों के चलते भारत में ईसाइयत का कोई भविष्य नहीं है। नितांत गरीब और सबसे निचली कही जा रही जातियों में धन और चालाकी से हमें थोड़ी बहुत सफलता मिल सकती है।’ यह पत्र इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी के रिकार्ड मंे सुरक्षित है।
इसके बाद ब्रिटिश शासन की प्रेरणा से लुई डुमा नामक एक दूसरे पादरी ने ईसाइयत की सेवा में बहुत परिश्रम किया। लुई डुमा उस्मान साम्राज्य के क्षेत्र में पैदा हुआ था और इस्लाम तथा हिन्दू धर्म को नष्ट करने के लिये छटपटा रहा था। उसने भारत की जाति प्रथा को ईसाइयत के मार्ग में सबसे भीषण अवरोध देखा और इसके लिये ब्राह्मणों पर प्रहार उसे आवश्यक लगा। तब उसने एक समाजशास्त्रीय और नृतत्वशास्त्री के रूप में Homo Hierarchicus: The Caste System and Its Implications नामक पुस्तक लिखी जो मूल रूप मंे फ्रेंच में लिखी गई थी।
जिसका फ्रेंच शीर्षक था – ‘Homo Hierarchicus: Essai sur le système des castes’। यह पुस्तक भारत के विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र विभाग में उच्चतर अध्ययन का स्रोत ग्रंथ विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की अनुमति से बनी हुई है। इसमें जाति प्रथा पर कटुतम आक्षेप हैं और ब्राह्मणों के विषय में जटिल शब्दावली में ऐसी विवेचना है जो उन्हें कोई महाधूर्त समुदाय इंगित करती है। किसी भी बात के विषय में कोई भारतीय प्रमाण ये पुस्तकें नहीं दे पातीं।
वस्तुतः ये केवल इन ईसाई लेखकों की दिमागी ‘मिथ’ हैं और सत्य से इनका संबंध दूर-दूर तक नहीं है। परन्तु शिक्षित भारतीय इनको ही वेद और उपनिषद से अधिक प्रमाणिक मानते हैं। इसके बाद एक अगला पादरी आया रिचर्ड द स्मेत। यह बेल्जियम का जे सुइट पादरी था। इसने ब्रिटिश शासन के सहयोग से स्वयं को सांख्य दर्शन और अद्वैत दर्शन का विद्वान प्रचारित कराया और पुणे में दर्शनशास्त्र का प्राध्यापक हो गया।
जब डॉ. राधाकृष्णन ने शंकराचार्य को महान तर्कबुद्धि सम्पन्न दार्शनिक बताया तो रिचर्ड द स्मेत ने तत्काल उन पर बौद्धिक आक्रमण कर दिया और कहा कि नहीं, शंकराचार्य तो ‘स्तुतिवादिन’ हैं और अपौरूषेय का सहारा लेकर अपनी बात रखते हैं। अतः रेशनल नहीं हैं। इस ख्रीस्त पादरी ने अनेक पुस्तकें लिखीं जिनमें तीन हैं – Hinduismus und Christentum , Religious Hinduism & Brahman and Person ।
इन तीनों ही पुस्तकों के द्वारा हिन्दू धर्म पर सांघातिक चोटें की गईं और ब्राह्मणों को दोषी ठहराया गया। भारत के विश्वविद्यालयों में कांग्रेस से लेकर भाजपा शासन तक ये पुस्तकें ही उच्च शिक्षा में स्रोत ग्रंथ बनी हुई हैं। जबकि ये ।तइपजतंतल वितंडा मात्र हैं। इस प्रकार जाति व्यवस्था और ब्राह्मण संस्था पर नियोजित प्रहार 400 वर्षों से चल रहे हैं और भारत के विभिन्न राजनैतिक दलों में सम्मिलित ब्राह्मणों को भी इस झूठ के विरूद्ध सार्थक पहल का उपाय या पुरूषार्थ अभी तक नहीं सूझा है।