
राजनीति बदल गई, राजनीतिक टूल्स बदल गए!
कमलेश कमल । इस चुनाव को राजनीतिक विश्लेषक अलग-अलग तरह से परिभाषित करेंगे; परंतु सामान्य बुद्धिलब्धि (कॉमन-सेंस) से भी इतना तो समझा जा सकता है कि विगत एक दशक में राजनीति बदल गई है; राजनीतिक टूल्स बदल गए हैं। कोई पार्टी तब तक किसी प्रदेश अथवा देश में ही अल्पसंख्यक तुष्टीकरण करते हुए जीत सकती थी, जब तक बहुसंख्यक जनता बरदाश्त कर सकती थी। यह अपने चरम पर पहुँच गई, तो बहुसंख्यक जनता एक ऐसी सशक्त पार्टी की राह तकने लगी, जो उसकी बात करे; जो इफ़्तार पार्टी अगर करे तो दीवाली और होली मिलन भी निश्चित रूप से करे। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने यही किया। यह अकारण नहीं है कि नरेंद्र मोदी का गोल टोपी पहनने से इनकार करना बहुसंख्यक अस्मिता का प्रतीक बन गया था।
अभी उत्तरप्रदेश का प्रचंड जनादेश भी बहुसंख्यक अस्मिताबोध की अभिव्यक्ति है। ध्यान रहे 2014 के बाद यह पहला अवसर है जब किसी बड़े प्रदेश में भाजपा मोदी के नाम पर चुनाव नहीं लड़ी। जी हाँ, बात एकदम साफ है कि बहुसंख्यक अस्मिताबोध के लिए मोदी से बड़े प्रतीक जब योगी मिल गए, तो सहज ही उत्तरप्रदेश के चुनाव में मुख्य चेहरा योगी आदित्यनाथ बन गए।
दूसरी बड़ी बात कि जब धर्म की बात होती है, तब जातीय समीकरण ढीले पड़ जाते हैं। मुसलमानों में यह धारणा सदा से रही है, अब हिंदुओं में भी धीरे-धीरे यह बात आ रही है। इसका मतलब है आगे सालों-साल तक बहुसंख्यक जनता की अनदेखी करने वाली पार्टी हाशिये पर रहेगी।
इस चुनाव ने यह स्पष्ट संकेत दिया है कि अब वे दिन लद गए जब कुछ परिवारवादी पार्टियाँ दलितों को सदा-सदा के लिए अपना वोटबैंक समझती थीं। विगत 3-4 दशकों का सामान्य अनुभव जनता के बीच में है कि दलितों-वंचितों को वोटबैंक की तरह इस्तेमाल करनेवाली पार्टियों ने स्वयं का साम्राज्य खड़ा किया, दलितों ग़रीबों का कोई भला नहीं किया और उन्हें अपनी ज़ागीर समझा। इस चुनाव में भी दलितों के मसीहा बनानेवालों की जमानतें देशभक्त दलित जनता ने ही ज़ब्त करवाई है…आँकड़े इसकी गवाही देते हैं। चंद्रशेखर रावण का उस सीट से जमानत ज़ब्त हो जाना जहाँ दलित मतदाताओं की संख्या लाखों में है, इसका एक ताज़ा उदाहरण है।
कभी राज्य की सबसे सशक्त पार्टी बसपा देखते ही देखते कहाँ से कहाँ आ गई? मायावती के जीते जी बसपा उत्तरप्रदेश विधानसभा में दो सीटों पर सिमट जाएगी, इसकी कल्पना उनके धुर विरोधियों ने भी नहीं की होगी। पार्टी का अपना कैडर था, अकूत संसाधन थे, तो चूक कहाँ हुई? चूक दरअसल राजनीतिक टूल्स के उपयोग में हुई। मायावती के किसी भी भाषण को उठाकर देख लीजिए, केवल और केवल दुहराव मिलेगा। उन्होंने यह मान लिया था कि चाहे वे कुछ करें अथवा न करें, दलित उनको वोट करेंगे।
इसी तरह कांग्रेस एकदम पुराने टूल्स के साथ राजनीति कर रही है। राजनीति अगर ट्विटर से संभव होती तो कितनी सरल होती! ज़मीनी मुद्दे छोड़कर अल्पसंख्यक तुष्टीकरण, फोटो अपोर्चुनिटी आदि के सहारे चुनाव की बैतरणी पार करने के दिन अब लद गए।
कुलमिलाकर सपा ही उत्तरप्रदेश में ज़मीन पर भाजपा का मुक़ाबला करती दिखी और यह स्पष्ट दिख रहा है कि भाजपा विरोधी मतों का संकेन्द्रण सपा की ओर गया। अगर अतीत के गुंडाराज का बोझ और अल्पसंख्यक तुष्टीकरण का कलंक सपा के साथ नहीं होता और कदाचित् अखिलेश यादव थोड़े विनयशील होते, तो आज सपा बहुत बेहतर स्थिति में होती।
पंजाब की स्थिति से भी स्पष्ट है कि अब राजनीतिक उपकरण पूर्व से भिन्न हो गए हैं। आम आदमी पार्टी ने बिखरी हुई कांग्रेस पार्टी के विकल्प के रूप में स्वयं को स्थापित करने का उद्यम किया और उसमें सफल भी रही। रोज़गार, बिजली-पानी आदि ज़मीनी मुद्दों पर चुनाव में उतरी आम आदमी पार्टी को जनता ने स्पष्ट जनादेश दिया है, जिसे उसे पूरा करना होगा। भाजपा यहाँ उत्साहहीन थी और फ्रंटफुट पर नहीं खेल रही थी, तो उसे इससे अधिक मिलना भी नहीं चाहिए था। सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले समय में अपना कोर्स करेक्शन करती हुई भाजपा पंजाब में अब पूरी ताक़त के साथ कमर कसती हुई दिखाई देगी।
उत्तरप्रदेश की ही भाँति उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में भाजपा ने जनता की आकांक्षाओं को समझा और जनता ने उसे निराश नहीं किया है। बात एकदम साफ है। यह राष्ट्रवादी तेवर वाला नया भारत है। यहाँ जनसरोकार और राष्ट्रीय हित के मुद्दों पर जनता-जनार्दन की मुहर लगेगी, लगती रहेगी।
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