श्वेता पुरोहित। ‘कल्याण’ वर्ष ३६ के अङ्क ८ एवं ९ में ‘रामरक्षास्तोत्र’ के विषय में बहुत कुछ प्रकाशित हो चुका है। इसी विषय में आजसे ढाई वर्ष पहले की एक सत्य घटना नीचे प्रस्तुत है –
मेरे छोटे बच्चे को (जबकि उसकी आयु केवल एक ही वर्षकी थी) एक दिन ठीक बारह बजे रात्रि में अचानक बड़े जोर से चीत्कार करते सुनकर हम सब घरवाले जाग पड़े; और देखा तो बच्चा इस ढंग से काँपता और इधर-उधर देखता हुआ रो रहा था, मानो उसे बहुत भय लग रहा था। उसी दशा में पूरी रात बीत गयी और सुबह नौ बजते-बजते बच्चेको तेज बुखार और फिट (खिंचाव) जैसे पुराने मिरगी के रोगीको आया करती है, आने लगी। उस दिन, दिनभर काफी उपचार (डाक्टर, वैद्य, झाड़ा-टोना आदि-आदि) होते रहे; परंतु कोई भी लाभ नहीं हुआ, बल्कि बच्चे की दशा और भी बिगड़ गयी कि उसका रोम-रोम काँपने लगा था और पहले जहाँ उसे एक-एक घंटे से फिट आती थी, अब बीस-बीस मिनट से आनी शुरू हो गयी। उसी दिन दो बजे रात्रि की गाड़ी से चाचाजी के यहाँ पुत्री की शादी के लिये बारात आने वाली थी। घरवालों की चिन्ता का कोई पार नहीं था; और मेरे तो आँसू रोकने पर भी नहीं रुक पा रहे थे। बल्कि शादी की साज-सजावट और सम्पूर्ण तैयारियाँ देख-देखकर और भी अधिक जी जल रहा था। रातको बारात आ गयी। होने वाला काम तो समय पर होता ही है – सुख में हो या दुःख में। दूसरे दिन सबेरे सभी बाराती आते हैं और बच्चे की दशा देखकर चुपचाप बिना कुछ कहे चले जाते हैं (अर्थात् बच्चे के जीवन की अब कोई आशा शेष नहीं रह गयी थी और विवाह के शुभ अवसर पर यह अशुभ ……)।
तीसरे दिन भी जब बच्चे का दुःख मरकर भी नहीं छूट सका, तब दुखी हृदय से मैंने एकान्त में प्रभु से कहा- ‘हे नाथ! अब तो इस छोटे-से जीवका दुःख देखा नहीं जाता। मैं नहीं चाहता कि यह रोगमुक्त होकर जीवित रहे; जैसे भी हो दीनबन्धु ! अब इसका दुःख दूर कर दो। इसे इस घोर दुःखसे छुटकारा दे दो।’
दोपहर के दो बजे माताजी की इच्छा हुई कि स्थानीय रामद्वारा में वयोवृद्ध संतजी के पास जाकर बच्चे के कुशल की कामना की जाय और उनसे (जैसा कि वे पहले कई बार भी करते सुने गये हैं) रामरक्षास्तोत्र से अभिमन्त्रित जल लाकर बच्चेको दिया जाय और शेष सभी उपचार बंद कर दिये जायें। मुझे यह बात बिल्कुल पसंद नहीं आयी। परंतु माताजी के अधिक कहने पर जाना ही पड़ा। वैसे तो संतजी मेरे परिचित थे, परंतु अधिक सम्पर्क तबतक नहीं था। मैं प्रणाम करके चुपचाप बैठ गया। पासमें एक-दो सज्जन और भी बैठे थे। एकाएक वास्तविक मनोकामना कहने की इच्छा नहीं हुई। कुछ सत्संग विषयक बातें होने के पश्चात् संत ने स्वतः ही पूछा- ‘क्यों? आज उदास कैसे हो?’ उत्तर में मैंने सभी बातें सत्य-सत्य निवेदन कर दीं। संत बड़े त्यागमूर्ति थे; कृपा करके कहने लगे- ‘तीन दिन हुए आकर कुछ कहा भी नहीं।’ और उठकर एक छोटा-सा पात्र जलसे भरकर लाये तथा मेरे सामने ही बैठकर उस पात्र के जलमें अँगुली डालकर घुमाते रहे और मुँह से धीरे-धीरे मीठे और प्रेमभरे स्वर से रामरक्षास्तोत्र का पाठ करते रहे। करीब आठ-दस मिनटके बाद मुझे वह जल देकर बोले- ‘जब भी बच्चे को जल पिलाने की आवश्यकता हो, साधारण जल के स्थानपर यह जल पिलाते रहना और कल आकर फिर मिलना, रामकृपा से सब ठीक होगा।’
मैं चुपचाप वह पात्र लेकर घर आ गया और आज्ञानुसार वह जल बच्चेको पिलाने लगा। महानुभाव ! कहना न होगा चौथे दिन सबेरे तक हालत सुधरते-सुधरते बच्चा माँ के स्तनपान की चाहना करने लगा। सभी घरवाले बड़े आनन्दित थे। मैं सबेरे ही संतजी के पास गया और सब हाल सुनाया तो वे कहने लगे- ‘भाई ! राम कृपा से क्या-क्या नहीं हो जाता।’
यह बिल्कुल सत्य घटना है जो कि मेरे हृदय में ‘रामरक्षास्तोत्र ‘का महत्त्व लिये बैठी हुई है और जीवनभर रहेगी। आज बच्चा साढ़े तीन वर्षका है और रामकृपासे अभीतक तो उसे वैसी कोई भी शिकायत फिर नहीं हुई है।
- मोहनलाल कंट्राक्टर
(कल्याण वर्ष ३६, पृष्ठ १४०३)