विपुल रेगे। ‘हंगामा-2’ देखने के बाद ऐसा अनुभव होता है कि एक निर्देशक के रुप में प्रियदर्शन का पूर्णतः पतन हो चुका है। हंगामा और हंगामा-2 के बीच के वर्षों में प्रियदर्शन की सारी रचनात्मकता जाती रही। एक समय था जब उनकी फ़िल्में परिवार के साथ देखी जाती थी। वे बच्चों से लेकर बूढ़ों तक के प्रिय निर्देशक थे। हंगामा-2 की लज्जास्पद असफलता के बाद प्रियदर्शन को अपनी पुरानी फ़िल्में देखनी चाहिए और मनन करना चाहिए कि उनका वह निर्देशकीय कौशल कहाँ ग़ुम हो गया है।
सन 1992 में मलयाली फिल्म निर्देशक प्रियदर्शन ने हिन्दी फिल्मों में अपनी यात्रा एक सुंदर फिल्म ‘मुस्कराहट’ से की थी। इसके बाद उन्होंने ‘गर्दिश’ और ‘विरासत’ जैसी यादगार फ़िल्में बनाई। प्रियदर्शन ने हिन्दी पट्टी के लिए मनोरंजक और हास्य प्रधान फ़िल्में बनाई। ‘काला पानी’ ब्रिटिश काल पर बनाई गई प्रियदर्शन की ऐसी फिल्म थी जो भारतीय फिल्मों के इतिहास में एक उत्कृष्ट फिल्म की श्रेणी में आती है।
उनकी ‘हेराफेरी’ की हंगामेदार सफलता भला कौन भूल सकता है। ऐसा निर्देशक जब ‘हंगामा – 2’ जैसी प्राणहीन फिल्म बनाता है तो प्रतीत होता है कि उसके खाते में रचनात्मकता बची ही नहीं है। फिल्म की कहानी साधारण है और स्क्रीनप्ले उससे भी स्तरहीन है। एक युवा लड़के की प्रेमिका घर वापस आ जाती है। उसके साथ एक छोटी बच्ची है। प्रेमिका का दावा है कि ये लड़का ही उसकी बच्ची का पिता है।
लड़का इस बात से मना कर रहा है। लड़के की सगाई कहीं और होने जा रही है। लड़की घर से जाने के लिए तैयार नहीं है। लड़की के मन में एक रहस्य दबा पड़ा है, जिसका पता फिल्म के अंत में चलता है। ये एक साधारण कथा थी और प्रियदर्शन अपने निर्देशकीय कौशल से इसे देखने योग्य बना सकते थे। हालांकि वे इस निर्जीव कथा में प्राण नहीं फूंक सके। फिल्म में अभिनय करते कलाकारों को देखकर विश्वास नहीं हुआ कि इन लोगों का चयन प्रियदर्शन ने किया है।
परेश रावल जैसे अभिनेता को उन्होंने इस फिल्म में बेकार कर दिया। परेश रावल उनकी फिल्मों की यूएसपी हुआ करते थे। हंगामा – 2 में उनको जो किरदार दिया गया है, वह दर्शकों को पसंद नहीं आएगा। जिस किरदार में परेश को होना चाहिए था, उस किरदार में आशुतोष राणा दिखाई देते हैं। आशुतोष राणा अपने किरदार को जीवंत नहीं कर सके। जिन दृश्यों में हास्य की उम्मीद बनती थी, उन्हें आशुतोष ने बर्बाद करके रख दिया।
फिल्म का मुख्य पात्र मीज़ान जाफ़री ने निभाया है और वे दर्शक को ज़रा भी प्रभावित नहीं कर सके हैं। शिल्पा शेट्टी को बड़ा ही कमज़ोर किरदार दिया गया। उनके हिस्से में कम दृश्य आए हैं। इस फिल्म में शिल्पा शेट्टी का पात्र न भी होता तो कुछ फर्क नहीं पड़ता।
प्रियदर्शन को अब कोई और फिल्म बनाने से पूर्व अपनी पुरानी क्लासिक फ़िल्में देखना चाहिए। उन्हें पता चलेगा कि बतौर निर्देशक वे समय के साथ कमज़ोर हो गए हैं। वे अत्यंत प्रतिभावान निर्देशक हैं। विध्वंस में ही सृजन के बीज छुपे होते हैं। प्रियदर्शन को स्वयं का विध्वंस कर नया प्रियदर्शन गढ़ने की बहुत आवश्यकता है।