विपुल रेगे। अन्विता दत्त गुप्तन की ‘कला’ मसाला-मनोरंजन वाले दर्शकों की फिल्म नहीं है। ये अहसासों के धागों से बुना अफ़साना है। एक कलाकार जब ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा की रस्सियों में कसा जाता है तो उसके जीवन का आनंद कहीं खो जाता है। ‘कला’ एक ऐसी सुंदरतम पेंटिंग हो सकती थी, जिसे समस्त दर्शक वर्ग सराह सकता था लेकिन यहाँ निर्देशक की स्वतंत्रता आड़े आ गई। निर्देशक ने इस सुंदर पेंटिंग पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के गहरे धब्बे छोड़ दिए, जिसके कारण ‘कला’ अपना संपूर्ण अर्थ पाते-पाते रह जाती है।
ओटीटी मंच : नेटफ्लिक्स
अन्विता दत्त गुप्तन की प्रशंसा इस नाते आवश्यक है क्योंकि मानव संवेदनाओं को देखने का उनका लैंस बड़ा अनूठा है। पीरियड ड्रामे को किस बारीक़ी के साथ बनाया जाता है, ये आज के निर्देशकों को उनसे सीखने की ज़रुरत है। ये फिल्म तीस के दशक में सेट की गई है। एक बड़े कलाकार की पत्नी अपनी बेटी ‘कला’ को इतनी बड़ी गायिका बनाना चाहती है कि उसके नाम के आगे ‘पंडित’ संबोधन लग जाए, जो उसके पिता के नाम के आगे लगा करता था।
बेटी की तालीम शुरु होती है लेकिन थोड़े ही समय में शास्त्रीय संगीत में पारंगत माँ समझ जाती है कि ‘कला’ एक कलाकार तो है लेकिन उसके पास संगीत का ईश्वरीय वरदान नहीं है। एक दिन किसी संगीत समारोह में वह जगन को गाते सुनती है। जगन की गायकी पक्की है, उसकी लयकारी में जान है। उसके सामने कला का संगीत बहुत औसत है। कला की माँ उर्मिला मंजुश्री जगन को अपने घर ले आती है और उसके लिए संगीत जगत में अवसर खोजने लगती है। कला को इस बात से ईर्ष्या होने लगती है।
वह अबोध है और इस बात को नहीं जानती कि जगन को संगीत एक ईश्वरीय देन है, इसलिए उसकी माँ ने जगन को बेटा बनाया है। ये एक स्ट्रांग स्क्रीनप्ले था। उस पर सिद्धार्थ दीवान की सम्मोहक सिनेमेटोग्राफी, रमेश यादव के आर्ट डायरेक्शन और वसुधा सकलानी के सेट डायरेक्शन ने मिलकर एक ऐसा सम्मोहन रचा है, जिसमे दर्शक डूब जाता है। निर्देशक जानती है कि एक पीरियड ड्रामा को वास्तविक दिखाने के लिए क्या-क्या जतन करने होते हैं। ये फिल्म ‘सबकी’ हो सकती थी लेकिन ‘कुछ’ की ही बनकर रह जाती है।
ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि निर्देशिका ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कुछ एडल्ट दृश्य फिल्म में डाल दिए हैं। यदि ये गलती न हुई होती तो ये फिल्म बहुत से दर्शकों की हो सकती थी। फिल्म के सेंट्रल कैरेक्टर ‘कला मंजुश्री’ को तृप्ति डिमरी ने बड़ी ही इंटेंसिटी के साथ निभाया है। ईर्ष्या की आग में जल रही कला बहुत महत्वाकांक्षी है। वह आगे बढ़ने के लिए हर अच्छा-बुरा मार्ग अपनाने को तैयार है लेकिन उसका कलाकार मन उसे धिक्कारता भी है।
ऐसे मनोभाव अभिव्यक्त करना किसी नए कलाकार के लिए आसान नहीं होता लेकिन यहाँ तृप्ति अभिनय के आकाश पर दिखाई देती है। बॉलीवुड के लिए वे एक शक्तिशाली संभावना बनकर उभरती हैं। फिल्म का केंद्रीय विचार एक सूक्ष्म बिंदु की तरह कहानी के साथ प्रवाहमान है। कला की माँ उसे एक मौक़ा देती है और कहती है कि ‘ऐसी कलाकार बनो कि तुम्हारे नाम के आगे पंडित लगे न कि तुम्हारे नाम के पीछे बाई का संबोधन लग जाए।’ कला ये नहीं समझ पा रही है कि जगन उससे अधिक प्रतिभाशाली है।
बाबिल खान, स्वास्तिका मुखर्जी, अमित सियाल, समीर कोचर ने अपने कैरेक्टर्स को सुंदर अभिनय से उभारा है। अमित त्रिवेदी का सुंदर कर्णप्रिय संगीत फिल्म की रीढ़ है। इसके सारे ही गीत सुनने और देखने योग्य है। अमित त्रिवेदी ने जो संगीत दिया है, वह एक विशेष कालखंड पर बेस्ड है। ऐसा संगीत देने की क्षमता अब तक केवल राहुल देव बर्मन और रहमान में ही देखी गई थी और अब त्रिवेदी भी ‘म्यूज़िकल जीनियस’ हो गए हैं। ‘बिखरने का मुझको शौक है बड़ा’ का फिल्मांकन अत्यंत मनमोहक है।
यहाँ आप निर्देशक अन्विता दत्त गुप्तन की कारीगरी की प्रशंसा करने पर विवश हो जाएंगे। ‘कला’ आम दर्शकों की फिल्म नहीं है। ये एक अनूठा राग है और इसकी लयकारी समझने के लिए दर्शक भी वैसे ही चाहिए। जो दर्शक फिल्मों को केवल मनोरंजन के लिए नहीं देखते, जो गंभीर सिनेमा पसंद करते हैं, जो मधुर संगीत के शौक़ीन हैं, जो पीरियड फिल्मों की बाज़ीगरी समझते हैं, ये फिल्म उनके लिए ही है। वयस्क दृश्यों के कारण बच्चे इससे दूर रहे। यदि निर्देशक स्वतंत्रता नहीं लेती तो ओटीटी के मंच पर इस मधुर लयकारी का शोर दूर तक जा सकता था।