हिन्दुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) के मामले में कांग्रेस, सरकार को कठघरे में खड़ा कर रही है । लेकिन अगर खबरों पर गौर करें तो पता चलता है कि एचएएल पर विदेशियों को भरोसा नहीं था। उन्हें एचएएल की तकनीकी क्षमता पर संदेह रहा है। इस तरह की पहली खबर फरवरी 2011 में आई थी। वह ‘फाइनेंशियल टाइम्स’ में छपी थी। उसके मुताबिक अमेरिकी राजदूत टिमोथी रोमर एचएएल को तकनीकी रुप से दक्ष नहीं मानते थे। उन्होंने इस बाबत अमेरिका को रिपोर्ट भेजी थी। उसमें कहा था कि एचएएल इस काबिल नहीं है कि बोइंग और लाकीहीड मार्टेन के साथ साझेदारी करे। ‘द क्विंट’ लिखता है कि इसी को आधार बनाकर दासॉल्ट एविएशन ने एचएएल पर शंका जाहिर की। तत्कालीन यूपीए सरकार ने दासॉल्ट की शंका दूर करने का प्रयास किया।
रक्षा मंत्री एके एंटनी, दासॉल्ट के अधिकारियों को लेकर एचएएल की नासिक फैक्टरी गए। यहीं पर सुखोई-30 जेट फाइटर बन रहा था। उसे देखकर दासॉल्ट के अधिकारी खुश नहीं हुए। उन्होंने अपनी नाखुशी जाहिर कर दी। सरकार को बताया कि एचएएल के साथ जुड़कर कंपनी अपनी ‘वैश्विक साख’ खत्म नहीं करना चाहती। यह सुनकर एंटनी काफी नाराज हो गए थे। उन्होंने कहा था कि फ्रांस सरकार अपना निर्णय नहीं बदल सकती। लेकिन दासॉल्ट अपने निर्णय पर अड़ा हुआ था। वह किसी भी कीमत पर एचएएल के साथ सौदा करने को तैयार नहीं था।
5 अप्रैल 2013 में ‘रायटर’ ने एक रिपोर्ट की। रायटर दासॉल्ट के हवाले से लिखता है ‘एचएएल’ के पास एयरक्राफ्ट को एसेंबल करने की न योग्यता है और न क्षमता। यही वजह है कि दासॉलट 108 राफेल लडाकू विमान की गारंटी देने के लिए तैयार नहीं है। जबकि भारत सरकार चाहती थी कि सभी लड़ाकू विमानों की गारंटी दासॉल्ट ले। पर दासॉल्ट बस 18 विमानों की गारंटी देने को तैयार है। उसका कहना है कि 108 विमानों के लिए सरकार अलग से समझौता करे। रायटर के मुताबिक दासॉल्ट चाहता है कि भारत सरकार से दो अलग-अलग समझौता करे। पहला उन विमानों के लिए जो भारत सीधे फ्रांस से खरीदेगा और दूसरा उन 108 विमानों के लिए जो एचएएल में बनेगा। मगर भारत सरकार इसके लिए तैयार नहीं थी।
हालांकि सरकार ने लोकसभा में रक्षा मंत्री एके एंटनी से समझौते के बारे में पूछा गया, पर उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। जब वे जुलाई 2013 में फ्रांस की तीन दिवसीय यात्रा से लौटे तो मानसून सत्र में उनसे एक बार फिर सवाल पूछा गया। उन्होंने 13 अगस्त 2013 को बताया- फ्रांस से राफेल को लेकर बातचीत चल रही है। मगर एंटनी ने वह नहीं बताया जो 25 दिसंबर 2013 को ‘द हिन्दू बिजनेस लाइन’ ने छापा। वह लिखता है कि दासॉल्ट, एचएएल के साथ काम करने लिए तैयार नहीं है। वह एचएएल को मुख्य साझीदार बनाने के पक्ष में नहीं है।
2014 में सत्ता बदलने के बाद वार्ता का नया दौर चला। लेकिन बात एचएएल पर अटक जाती थी। मोदी सरकार इस पक्ष में थी कि दासॉल्ट और एचएएल के बीच समझौता हो। या यूं कहा जाए कि मोदी सरकार चाहती थी कि मुख्य साझीदार एचएएल बने। यह बात फ्रांस के रक्षा खरीद मुखिया लॉरेंट कोलेट बिल्लोन ने 9 फरवरी 2015 की वार्षिक प्रेस वार्ता में कहीं। अमेरिका के प्रतिष्ठित पोर्टल ‘एविएशन वीक’ ने इस पर लबीं रिपोर्ट लिखी है। पोर्टल कमारेंट कोलेट के हवाले से लिखता है ‘भारत सरकार एचएएल को लेकर लचीला रुख नहीं अपना रही है। वह चाहती है कि एयरक्रॉफट एचएएल ही एसेंबल करे।
इन खबरों से जाहिर होता है कि नरेंन्द्र मोदी सरकार हर हाल में यही चाहती थी कि मुख्य साझीदार एचएएल को बनाया जाए । फिर सवाल यह है कि एचएएल के बजाय दासॉल्ट ने रिलायंस को मुख्य साझीदार क्यों बनाया?
साभार: यथावत पत्रिका अक्तूबर संस्करण-2018
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