
रहीम और खून खराबे वाला प्रेम
“रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय। टूटे पे फिर ना जुरे, जुरे गाँठ परी जाय।”

यह अमर दोहा लिखने वाले रहीम से कौन परिचित नहीं होगा। भारत में लगभग हर कोई रहीम से परिचित है। राम-रहीम की संस्कृति के राग से कौन परिचित नहीं होगा? हम सभी जानते हैं कि कृष्ण भक्त रहीम ने इस देश में भक्ति को एक नई ऊंचाई दी। इससे कौन इंकार कर सकेगा कि रहीम के कारण आज हम स्वयं की संस्कृति पर और भी गर्व कर सकते हैं, कि इसे धर्म से परे सभी ने आत्मसात किया। बात रहीम की, या कहें अब्दुल रहीम खाने खाना की। रहीम का जीवन एक दुखांत नाटक की तरह है। जैसे शेक्सपियर की ट्रेजेडीज हुआ करती थीं। पूरा जीवन धोखों की एक कहानी। होंश सम्हालने से जीवन के साथ जो धोखे शुरू हुए, वह चलते रहे। रहीम प्रेम पर दोहे लिखते रहे, और प्रेम उन्हें छू छूकर गुजरता रहा।
रहीम का दुर्भाग्य और भाग्य दोनों ही यह था कि वह मुग़ल वंश से जुड़े थे। प्रत्यक्ष रूप में वह मुग़ल राजवंश का ही हिस्सा थे।
अकबर के संरक्षक बैरम खान के घर में रहीम का जन्म हुआ था। बैरम खान जब उम्र के पचासवें पायदान पर था, तब रहीम का जन्म हुआ था और तब तक बैरम खान और अकबर के बीच संबंधों में बदलाव आने लगा था। गद्दी पर बैठते ही और पानीपत के युद्ध में हेमू को पराजित करने के बाद, अपने राज्य पर कोई भारी संकट न देखते हुए अकबर की आँखों में अपना ही संरक्षक बैरम खान खटकने लगा था।
अकबर ने बैरम खान से कहा कि उनकी उम्र अब हज की हो गयी है तो वह हज को जाएं। और जब बैरम खान हज को जा रहा था तो गुजरात में पाटन में उसका क़त्ल हो गया और बैरम खान का बेटा रहीम और उसकी सौतेली माँ जो अकबर की बहन भी थी, उन्हें अकबर ने बुला लिया और अपने संरक्षण में ले लिया। उसकी सौतेली माँ से अकबर ने निकाह कर लिया और रहीम को हरम का ही हिस्सा बना दिया। रहीम को शीघ्र ही समझ आ गया था कि उसे अपनी बुद्धि का प्रयोग करना होगा।
रहीम कृष्ण से प्रेम करते हुए मुगलों की सेवा करते रहे। मुग़ल बादशाह अकबर के लिए युद्ध करते रहे। कृष्ण से प्रेम करते रहे और कृष्ण के अनुयाइयों अर्थात हिन्दुओं के खून से अपनी तलवार की प्यास बुझाते रहे।
हल्दी घाटी के युद्ध में अकबर के लिए किए गए उनके योगदान को कौन भुला सकता है? यह एक अजीब ही परिदृश्य है कि रचनाओं में प्रेम और समाज के प्रति प्रेम और प्रत्यक्ष में उन्हीं देवों के प्रतीकों को तोड़ने वालों का साथ देना।
और यह भी विरोधाभासी ही है कि वह प्रेम की कविता रचते रहे और तलवार से विद्रोहों को शांत करते रहे। अकबर के जीवनकाल में उन्होंने मुग़ल वंश की बहुत सेवा की। परन्तु अकबर की मृत्यु होने के बाद और जहांगीर के गद्दीनशीन होने के बाद उनके जीवन में संघर्षों का एक नया दौर शुरू हुआ। यह सत्ता का संघर्ष था। रहीम का एक जमाता खुद अकबर का बेटा था। रहीम और अकबर की नजदीकियों से अकबर के बाकी बेटे जलते थे। रहीम की उम्र जब 50 वर्ष की थी तब जहांगीर गद्दी पर बैठा। चूंकि रहीम ने कभी जहांगीर को तालीम दी थी तो जहाँगीर ने रहीम को शुरू में बहुत आदर दिया। मगर चूंकि पूरा मुग़ल वंश केवल और केवल सत्ता, गद्दी और हवस की ही कहानियों से भरा है। यह पता ही नहीं चलता है कि कौन किसका बेटा और दामाद बन जाता है और कौन चाचा, कौन फूफा! इसलिए बड़ा भ्रम रहता है।
चूंकि रहीम अपनी जवानी के दिनों में गुजरात का विद्रोह सफलता पूर्वक दबा चुके थे अत: रहीम को परेशान करने का यह बहुत ही अच्छा बहाना था और विद्रोह को सफलतापूर्वक दबाने के लिए कभी इधर तो कभी उधर भेजा जाता रहा। वैसे यह सवाल भी बहुत जायज़ है कि जब हर समय वह लोग विद्रोह को ही शांत करते रहे, कभी उनके अपने ही उनके खिलाफ रहे तो कभी राजपूत एवं स्थानीय सरदार, तो मुग़ल वंश शान्ति काल और स्वर्ण काल कैसे हुआ?
जहाँगीर के बेटों में शाहजहाँ अर्थात खुर्रम ही गद्दी का दावेदार था। खुसरो को पहले ही किनारे किया जा चुका था। अब बचे थे शहरयार और परवेज! शहरयार नूरजहाँ के पहले पति की बेटी लाड़ली बेगम का शौहर होने के नाते उसका दामाद था और शाहजहाँ नूरजहाँ के भाई का दामाद था। अब तक सत्ता की चाबी अपने हाथ में रखने वाली नूरजहाँ और उसके भाई में भी तकरार होने लगी थी। नूरजहाँ के भाई असफ खान की बेटी अर्जुमंद बानो अर्थात मुमताज महल के साथ प्यार की कहानी के किस्से सभी को मालूम ही हैं।
रहीम के दुर्दिन इसी के बाद शुरू हुए। जहाँगीर और शाहजहाँ के बीच माने वालिद और बेटे के बीच के संघर्ष में रहीम फंस गए और जहांगीर, तुजुके जहांगीर में लिखता है कि अब्दुल रहीम खानखाना इसलिए खुर्रम अर्थात शाहजहाँ का साथ इसलिए दे रहा है क्योंकि गद्दारी रहीम के खून में है। वह लिखता है कि इसके पिता ने भी अपने जीवन के अंत में इसी प्रकार मेरे श्रद्धेय पिता के विरुद्ध आचरण किया था, इसलिए यह भी अपने पिता की राह पर चला है। वह लिखता है कि
“अंत में भेड़िये का बच्चा भेड़िया हो जाता है,
भले ही मनुष्य ने क्यों न पाला हो।” (शेख सादी)
मजे की बात है कि रहीम और रहीम के बेटों को कैद करने के लिए और सजा देने के लिए जहांगीर ने महावत खान का इस्तेमाल किया और जब रहीम को रिहा किया तो उसी महावत खान के विद्रोह को शांत करने के लिए भेजा। जब महावत खान के विद्रोह को शांत करने के बाद रहीम दिल्ली आए तो उसके कुछ ही समय बाद यह दुनिया छोड़ दी।
यहाँ पर यह प्रश्न बार बार दिमाग में आता है कि आखिर क्या बात है कि जो लोग रहीम को इस जमीन का सबसे बड़ा धर्मनिरपेक्ष कवि मानते हैं और जो यह कहते हैं कि रहीम इस देश की सबसे बड़ी पहचान है, वह कभी भी रहीम की इस दुर्दशा के लिए जहांगीर को दोषी नहीं ठहराते? वह कभी भी रहीम पर यह प्रश्न नहीं उठाते कि रचनाओं में प्रेम की बात करना और हकीकत में बादशाह के खिलाफ विद्रोह में साथ देना एक ही व्यक्ति का हिस्सा कैसे हो सकते हैं? और कृष्ण जिस समाज की रक्षा की बात करते हैं अर्थात सनातन की, हल्दी घाटी में महाराणा प्रताप ने कौन सा अधर्म किया था जो धर्म की स्थापना करने वाले कृष्ण के प्रेमी रहीम महाराणा प्रताप और उनके सैनिकों के खून के प्यासे हो गए थे?
जो आदर्श हमारे सामने रखे गए, आखिर उनके जीवन के उन हिस्सों को हमारे सामने क्यों नहीं रखा गया जो नए सवाल पैदा कर सकते थे। या फिर हम कहें कि सिलेक्टिव ही हमारे सामने रखा गया जिससे हम उनके बनाए विमर्श में उलझे रहें और अपने विमर्श पैदा ही न कर पाएं?
आप सब क्या सोचते हैं दोस्तों? अपने विचार नीचे कामेंट्स में अवश्य दें!
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अति सुंदर तार्किक एवं सत्यनिष्ठ विश्लेषण
धन्यवाद
एकदम नयी जानकारी, धन्यवाद
जानकारी हमेशा से ही इतिहास में थी, मगर विश्लेषण नहीं था
प्रस्तुत विश्लेषण ने मुझे शून्य कर दिया,सचाई स्वीकार्य हैं परन्तु मन मे जो आदर और श्रद्धा रहीम के लिए भरी पड़ी है वह जल्द नही निकल पायेगा,क्योंकि सत्ता और चाटुकारिता ने चाहे जैसा विष मुझे पिलाया हो परन्तु ” हरि हाथ से लय गयो माखन रोटी ” जैसी कविताओं को पढ़कर मैंने जो अपने को ही उसे महान मनवाया है उसे निकालना असम्भव तो नही पर कठिन जरूर है।
अच्छा लिखना और खराब काम करना ये कुछ घाघ लोगों की फितरत होती है ,पश्चाताप इस बात का है कि आपके इस लेख के पहले मैंने दोहरे व्यक्तित्व को जोड़कर क्यों नही देखा जबकि इतिहास मेरे भी सामने रखा है। धन्यवाद जागरूक करने के लिए।
धन्यवाद, यह लेख इसी लिए था कि लोग समझें, बस! यह लेख सफल रहा
सोनाली मिश्र जी की इतिहास पर अच्छी पकड़ है। अब समय आ गया है कि इतिहास में तस्वीर के दूसरे रुख को भी उजागर किया जाए जिसे वामपंथी इतिहासकारों ने दरबारी कलम से ढक रखा है। बहुत अच्छा लेख है। साधुवाद सोनाली जी का। ?
धन्यवाद निर्मल जी
धन्यवाद
Thank you Sonali. Everything presented to us was selective. Appreciate your efforts to bring some history facts to young readers.
धन्यवाद रेखा जी, यह सब तथ्य इतिहास में ही है, मैंने बस विश्लेषण किया है. आपका बहुत बहुत धन्यवाद
तार्किक विश्लेषण ,सच सामने लाने के लिए आभार ।
धन्यवाद