श्वेता पुरोहित। सनातन हिन्दू-संस्कृति में भगवान् की भक्ति-भावना को मणिदीप शब्द द्वारा बताया गया है। भक्ति में पवित्र भाव की प्रधानता होती है। प्रत्येक मनुष्य में एक भगवान् की सत्ता है, जिसे भगवान् का भाव कहा जाता है। भगवान् के भाव में कभी परिवर्तन नहीं होता है। भगवान् श्री कृष्ण ने भी कहा है-
‘ना भावो विद्यते सतः।’ (गीता २।१६)
भगवान् के भाव की महत्ता भगवत्तत्त्व की महत्ता है, जिसकी चर्चा श्रीमद्भागवत में इस प्रकार की गयी है-
वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् ।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥
(१।२।११)
भगवान् की भावना एक है, जिसका अनुभव करना प्रत्येक मानव के जीवन का चरम लक्ष्य है। इसी भाव को कोई ब्रह्म कहता है कोई परमात्मा कहता है और कोई भगवान् कहता है। एक ही भगवान् हमारे अन्दर और बाहर सर्वत्र आनन्दमयी लीला कर रहे हैं। इनकी आनन्दमयी भक्ति मणिदीप की आनन्दमयी वर्षा ऋतु की तरह है। कलिकाल के सारे दोषों से मुक्त होने के लिये रामनाम की साधना ही ‘मणिदीप’ की साधना है। रामनाम को ‘मणिदीप’ कहकर भक्ति की सर्वश्रेष्ठ साधना बतायी गयी है। इसी लक्ष्यसे तुलसीदासजी महाराजने कहा है-
राम भगति मनि उर बस जाकें।
दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें ॥
चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं।
जे मनि लागि सुजतन कराहीं ॥
(रा०च०मा० ७।१२०।९-१०)
जीव भगवान् का अंश है। जब मनुष्य प्रेम से रामनाम जपता है तो उसके जीवन में वर्षा ऋतु की तरह परमानन्दरस की अनुभूति होती है। इस प्रसंग में तुलसीदासजी ने रामनाम के जापक की महिमा बताते हुए कहा है-
बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास।
राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास ॥
(रा०च०मा० १।१९)
ईश्वरीय भावों का उद्भव तथा विकास रामनाम में
है। श्रद्धा और विश्वासपूर्वक उसे जपनेमें ही होता है। रामनाम के साधकों को ऐसा अनुभव प्राप्त है। केवल मायारूप जड़- शरीर में फँसे रहने पर मोह आदि विकार बढ़ते जाते हैं। रामनाम की साधना भगवान् की शरणागति भावना की साधना है। अध्यात्म में भाव ही सब कुछ है। रामनाम ईश्वर- भाव की साधना है। मनुष्य जैसी भावना करता है, वह वैसा ही बन जाता है। सत्य ही कहा गया है-
‘ यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ।’
भगवान् केवल भाव और प्रेम देखते हैं। मनुष्य- शरीर भगवत्सम्बन्धिनी सच्चा मन्दिर है, जिसका दरवाजा मनुष्यका मुख है। जैसे दरवाजेके द्वारा कोई मनुष्य मन्दिर में प्रवेश कर जाता है, वैसे ही कोई मनुष्य मुख के अन्दर जिह्वा द्वारा रामनाम जपकर भगवान् के भाव को प्राप्त कर लेता है। भगवान् का भाव प्राप्त कर लेनेपर सारे संसारमें एक भगवान् की ही दृष्टि बन जाती है। भक्त के जीवन में सारा संसार मित्र बन जाता है। भक्तका दिव्य मैत्री-भाव भगवद्भावकी दिव्य दृष्टि होती है, जिसकी चर्चा करते हुए भगवान् श्रीशंकरजी ने कहा है-
उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध।
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ॥
(रा०च०मा० ७।११२ ख)
अध्यात्म-ज्ञान भगवत्प्रेम का बीज है। रामनाम की साधना से भगवत्सम्बन्धिनी दृष्टि प्राप्त हो जाती है, जिसकी चर्चा करते हुए भगवान्ने स्वयं ही कहा है –
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि सच मे न प्रणश्यति ॥
(गीता ६।३०)
इस प्रकार कलिकाल में मनुष्यों के कल्याण के लिये रामनामकी साधनासे बढ़कर अन्य कोई साधना नहीं है। विश्व-कल्याण की यही सर्वश्रेष्ठ साधना है। ‘राम नाम मनिदीप धरु’ श्रीरामचरितमानस का सर्वश्रेष्ठ अमृतमय सन्देश है।
अमूल्य मानव जीवनकी सार्थकता भगवान् की भक्ति-भावना में ही है।
श्रीराम जय राम जय जय राम 🙏🚩