श्वेता पुरोहित :-
श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार जिन्हें प्रायः गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित मासिक पत्र “कल्याण” के आदि संपादक के रूप में जाना जाता है, वे वस्तुतः एक दिव्य विभूति थे। अपनी जन्मभूमि रतनगढ, राजस्थान से निकलकर उन्होंने व्यापार किया। अपार हानि सही। किंतु साधक उच्च कोटि के थे।
पोद्दार जी को स्नेहवश सभी “भाईजी” कहकर प्रायः संबोधित करते थे।
एक दिन पूजन के समय समाधिस्थ अवस्था मैं उन्हें लगा कि जैसे स्वयं श्री किशोरी जी (श्रीराधारानी) उन्हें संदेश दे रही हों कि– “मुगलकाल के भीषण अत्याचारों–हाहाकारों के मध्य कांपती हुई आस्था को अचलाश्रय प्रदान करने वाले गोस्वामी तुलसीदास जी का श्रीरामचरितमानस केवल आठ आने (पचास पैसे) में जन–जन को प्रदान करो” उन्होंने उसी अवस्था में उत्तर दिया कि “जब आप करा रही हैं तो क्यों नहीं होगा।”
पूजन के पश्चात भोजन करके वे वामकुक्षी (बाईं करवट लेटना) किया करते थे। वो लेटे ही थे कि ध्यानावस्था में फिर एक ध्वनि सुनी कि “अरे, तुम लेट गए। कार्य कैसे संपन्न होगा?” तुरंत उठकर बैठ गए। कागज–पेंसिल लेते ही मन में विचार आया कि मानस के इस प्रथम संस्करण की पचास हजार प्रतिएं प्रकाशित होनी चाहिए। कागज–कंपोजिंग (जो उन दिनों टाइप सेटिंग से हुआ करती थी) छपाई आदि का व्यय लगाने पर यह भी विचार किया की यह घर में छ: आने (37 पैसे) की पड़नी चाहिए। एक आना (6 पैसे) तो विक्रेता भी चाहेगा। और एक आना व्यय के लिए, सब जोड़ घटाकर देखा कि, एक लाख पैंतीस हजार ₹ (उस जमाने के जब सोने का भाव बीस–बाइस ₹ तोला हुआ करता था) का घाटा आता है।
वे हिसाब लगाकर अपनी पत्नी से बोले, “हमारा झोला लगा दो। हमें कलकत्ते जाना है।” झोला क्या धोती–कुर्ता, लंगर–बंडी, संध्या पात्र, और माला, लग गया झोला। गोरखपुर स्टेशन जाकर, टिकिट लेकर रेल में जा बैठे। कलकत्ता जाकर एक पैड़ी पर उतर गए। मारवाड़ी संस्कृति में पेड़ी सेठ–साहूकारों की गद्दी को कहते हैं।
उनके पहुंचते ही चारों ओर “भाईजी आओ–पधारो” की ध्वनि ऐसे गूंजने लगी मानो किसी देवपुरुष का ही अवतरण हो गया हो। पेड़ी के स्वामी ने प्रश्न किया, “भाईजी! थे (आप) कदसी पधारे?”
भाईजी ने उत्तर दिया– “गोरखपुर से सीधे चले आ रहे हैं।”
“तो आप स्नान–पूजनादि कर निवास पर भोजन करने पधारिए।”
“ठीक है, भोजन तो करेंगे! किंतु दक्षिणा लेकर करेंगे।”
“तो अब बाणियों ने भी भोजन दक्षिणा लेकर करने की परंपरा आरंभ कर दी क्या?”
“हां, ब्राह्मण भोजन करके दक्षिणा ले, और वैश्य दक्षिणा लेकर भोजन करे।” कहते हुए हिसाब का पर्चा जो गोरखपुर में तैयार किया था, वह उनके सामने रख दिया।
पर्चा देखकर सेठ बोले “जब रामजी ने कहा है तो वे सब करेंगे। आप उठकर स्नानादि करें।”
भाईजी कुछ ही समय में स्नान–पूजन से निवृत होकर आ गए। सेठ बोले, “चलिए, बग्घी तैयार है।”
” ठीक है हम चलते हैं किंतु हम दक्षिणा लेकर ही भोजन करेंगे। थाली लाकर अन्न भगवान का अपमान न करा देना, यही कहना है।”
“ठीक है आप उठिए तो सही”
भाईजी सेठ के निवास पर आ पहुंचे। देखा कि वहां दो भद्र–पुरुष पहले से बैठे थे। थाली खाली रखी हुई थी।
भाईजी के बैठते ही दोनों सज्जनों ने अपनी–अपनी ओर से मोड़कर दो चैक थाली के पास रख दिए। इतने में ही नीचे से आवाज आई ” ब्याईजी सा (समधीजी)” और उत्तर में “आओ–आओ, पधारो–पधारो,” कहते ही दो सज्जनों ने प्रवेश किया, थाली के पास अपने – अपने चैक रखकर बैठ गए। तभी अंदर से सेठ जी की वृद्धा माता नाभिस्पर्शी घुंघट काढ़े (निकाले) हुए, धीरे – धीरे सरकती हुई आईं और उन्होंने पैंतीस हजार रूपये नगद रख दिए।
चारों चैक पच्चीस–पच्चीस हज़ार अर्थात् एक लाख के थे। एक लाख पैंतीस हजार कि पूर्ति पर्चे के अनुसार देखकर, भाईजी हंसते हुए बोले, “शीघ्रता से भोजन लाओ, भूख भयंकर लग रही है।”
तभी हंसते हुए सेठ बोले,”भाईजी! थे कच्चे बनिये हो! अरे, इतना पांच–छ: सौ पृष्ठों का मोटा ग्रंथ बिना जिल्द के दोगे क्या? दो दिन में हाथ में आ जाएगा।”
भाईजी को सोच में पड़ा देखकर सेठ जी बोले, “जिस समय आप निवृत होने चले गए थे, उसी समय हमने एक जिल्दसाज को बुलाकर, ब्यौरा ले लिया था। दस–बारह हजार का उसने खर्चा बताया। यह पन्द्रह हज़ार मानकर, एक सेवक को भेजकर डेढ़ लाख का ड्राफ्ट तैयार करा लिया। यह दक्षिणा लीजिए और बाणियाश्रेष्ठ कांसा आरोगिए (भोजन कीजिए)। भोजन करते ही भाईजी बोले, ” अब गोरखपुर जाने वाली गाड़ी का क्या समय है?”
“अभी तीन–चार घंटे हैं। आप पैड़ी पर पहुंचकर अपने वामकुक्षी धर्म का निर्वाह कीजिए। आपको गाड़ी पर पहुंचा दिया जाएगा।”
श्रीभाईजी अगले दिन गोरखपुर पहुंच गए। श्रीरामचरितमानस की कंपोजिंग युद्धस्तर पर होने लगी। डेढ़ मास के अंदर–अंदर मानस की प्रतियां बाजार में आकर, घर–घर पहुंचने लगी। मानस के सुंदरकांड और अखंड पाठों की बाढ़ आ गई। प्रवचनकर्ताओं की पौध देश के धार्मिक क्षेत्र में हरितिमा का संचार करने लगी। मानस के पश्चात समग्र तुलसी–सूर के साथ अनेकानेक संतो का साहित्य मुद्रित होने लगा।
आठ आने के चमत्कार से देश का वातावरण चमत्कृत हो उठा। अपने कार्य की पूर्ति के लिए श्रीसीताराम जी ने जिन्हें निमित्त के रूप में निर्वाचित कि मनोनित किया वे श्रीभाईजी हनुमान प्रसाद जी पोद्दार विश्वभर के श्रीराम–भक्तों के लिए स्मरणीय बन गए।
—XX—
मानवमात्र के लिए समाज सुधार एवं चरित्र निर्माण सम्बन्धी साहित्य प्रकाशनमें सन् 1923 से सेवारत्, गीता प्रेस द्वारा हिन्दू धर्म के धार्मिक ग्रंथों को संकलन करना, सहेज कर रखना और लागत से भी कम दाम पर जनमानस को सहज सुलभ उपलब्ध कराना ही एक मात्र लक्ष्य है हर हिन्दू को, इस प्रेस को अपनी ही समझना चाहिए।
गीता प्रेस के प्रति आत्मीयता का भाव रखते हुए, इस में जो भी कार्यरत है बह सभी देवदूत है उनके प्रति ह्रदय में श्रद्धा भाव रखें और हमेशा साहित्य का प्रचार – प्रसार करते रहें।
गीता प्रेस का साहित्य से कोई भी व्यापारिक लाभ नहीं है
और ना ही गीता प्रेस, किसी भी प्रकार से, दान नहीं लेती,
इसलिए हर हिन्दू को कल्याण पत्रिका घर में बुलाना ही चाहिए,
यह प्रचार – प्रसार का बहुत ही सुलभ साधन है।
जैसे माथे पर तिलक से बढ़ती है हिन्दू की शान,
बैसे ही कल्याण पत्रिका बढाती है धर्म का ज्ञान।
अपने सभी मित्रों को इस ग्रुप के लिए आमंत्रित है