उन्होंने घेर लिया था और लाठी डंडों से लैस भीड़ ने उन दो साधुओं का क़त्ल कर दिया और फिर साधुओं से मुक्त होने पर जश्न मनाया होगा. यह जो साधुओं से मुक्त होने का भाव है, यह आया कहाँ से होगा? क्या आप और हम यह समझ सकते हैं या इसकी जड़ों में जा सकते हैं? या यह समझ सकते हैं कि आखिर कौन सा प्रदेश था जिसे आधिकारिक रूप से साधु मुक्त घोषित किया गया? जैसे अब साधु मुक्त करने की कोशिश लगातार की जा रही है और यह साधु आखिर हैं कौन? क्या ऐसे सवाल आपके मन में आते हैं? क्या ऐसे प्रश्न आपको भी परेशान करते हैं तो आइये इस लेख में हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर किसने ईसाईयत की तहों में साधुओं की लाशों का तहखाना बना दिया!
भारत सरकार की एक वेबसाइट है अभिलेखपटल. वैसे तो इस साईट पर जाने का कभी इन्सान सोचे नहीं, मगर फिर भी वह जा सकता है क्योंकि उसे यदि किसी पुराने अख़बार की किसी खबर की सत्यता जांचनी हो तो. नेट पर अचानक से एक तस्वीर सामने आती है कि नागालैंड साधुओं से मुक्त होने वाला पहला प्रदेश बना. यह काफी पुरानी खबर थी. तभी अभिलेख पटल पर जाने का अवसर प्राप्त हुआ. उसमें वर्ष 1964 दिया गया था और स्वामी आनंद, जो भारत साधु समाज के सचिव थे, उनका वक्तव्य था कि जवाहर लाल नेहरू और दिवंगत डॉ. वेरियर एल्विन, जो प्रसिद्ध एन्थ्रोपोलोजिस्ट अर्थात मानव विज्ञानी था, उन दोनों के बीच एक अनुबंध हुआ था जिसके अनुसार नागालैंड राज्य में साधुओं का प्रवेश प्रतिबंधित है.
यह पढ़कर आपके मन में क्या गुस्सा नहीं पैदा होगा? और फिर जब उसके बारे में और आप पता करते हैं तो आप और चौंकते हैं. फिर एक दिन आपकी नजर चली जाती है खबर बीबीसी की है और पुरानी है. कहीं तहों में दबी हुई, मुड़ी तुड़ी. और जब उसे खोला तो एक ऐसी कहानी सामने आई जिसके विषय में आज तक तक हमें बताया ही नहीं गया. यह कहानी शुरू हुई एक खबर से कि एक अंग्रेज विद्वान की भारतीय विधवा पत्नी अपने अंतिम दिन दुर्दशा में बिता रही है और मौत का इंतज़ार कर रही है! यह खबर पढ़नी शुरू की तो एक से बढ़कर एक नए तथ्य सामने आए.
अब आप सोच रहे होंगे कि यह दो खबरें हैं, नहीं! यह दो ख़बरें होकर भी परस्पर जुडी हुई हैं. जो आपके सामने एक हैरान करने वाली कहानी लाएंगी. एक तेरह साल की बच्ची है, हंसती खेलती, अपने जीवन में खुशहाल! अपने जीवन को जीती हुई, और आने वाले समय का सपना संजोए हुए. वह एक आदिवासी बच्ची है. समय आज़ादी से पहले का है. वर्ष 1940 का समय है. गोंड जनजाति की कोसी उस समय 13 बरस की थी जब जाने माने मानव विज्ञानी डॉ. वेरियर एल्विन की नजर उस पर पड़ी. पर क्या वाकई उसका नाम कोसी था? या पहचान के द्वन्द में उस अंग्रेज ने उसका नाम बदल दिया था. कोसी के अनुसार “मेरा नाम कौशल्या था, कोसी नाम वेरियर ने दिया.”
डॉ. वेरियर कहने के लिए मानव विज्ञानी था, मानव इतिहास पर शोध उनका काम था. मगर उसका असली काम था भारत की पहचान गायब करना, अर्थात वनवासियों/आदिवासियों की हिंदुत्व की पहचान को खुरच खुरच कर मिटा देना. ऐसा कुछ उनकी एक पुस्तक मिथ्स ऑफ मिडल इंडिया (Myths of Middle India) में प्रतीत होता है. जिसमें वह मध्य भारत के पूरे इतिहास को मिथक बनाकर प्रस्तुत करते हैं. विचक्राफ्ट एंड मैजिक में तंत्र विद्या को चुड़ैल आदि घोषित किया गया है. आदिवासियों के मध्य जनश्रुतियों के रूप में प्रचलित कहानियों को ही उनके धार्मिक विश्वासों के रूप में स्थापित कर नीचा दिखाने का प्रयास किया गया है. इसके साथ ही इस पुस्तक की प्रस्तावना में वह लिखता है कि न केवल जनजातियाँ एक दूसरे के साथ प्रतिक्रिया देती थीं, अपितु उनमें एक आम उप-पौराणिक एवं महाकाव्य परम्पराएं भी थीं जी पूरे भारत के गावों में उपस्थित थीं.
इसके आगे डॉ. वेरियर लिखता है कि भारत में जो स्थिति है वह जंगली सभ्यता के मानवजाती विज्ञान संबंधी क्षेत्रों में मौजूद सभ्यता से अलग है. अशिक्षित लोगों के पीछे हिन्दू साहित्य का बड़ा इतिहास है, जो अब मौखिक साहित्य रह गया है और जो एक जगह से दूसरी जगह किताब के रूप में नहीं जा रहा है बल्कि यह हमेशा घूमने वाले साधुओं, दोहों के गायकों या यात्री व्यापारियों के माध्यम से एक जगह से दूसरी जगह जा रहा है.
यह इस पुस्तक से स्पष्ट है कि संस्कृति जो उनकी श्रुतियों में थी उसे नष्ट करने के लिए जरूरी था कि साधुओं का जाना रोका जाए, यही कारण था कि डॉ. वेरियर जो कहने के लिए मानवविज्ञानी था, मगर अंतिम लक्ष्य उसी कल्चर को स्थापित करने का था, जिसे वह अपनी रग रग में बसाए हुए था.
वेरियर मानव विज्ञान का अध्ययन करने के लिए उस भारत के एक प्रान्त से दुसरे प्रांत जाता था, जिस भारत के इतिहास को वह खारिज कर चुका था और जिस भारत के इतिहास के विषय में वह कुछ नहीं जानता था. मगर जब वह मध्य प्रदेश गया तो उसकी उम्र 37 वर्ष की थी और वहीं कौशल्या अर्थात कोसी की उम्र केवल 13 वर्ष. सामान्य रूप से एक 37 वर्ष का युवक 13 वर्ष की लड़की को अपनी बेटी के समान ही मानेगा, मगर चूंकि वह भारत को नीचा समझता था तो गुलाम की जगह और क्या समझता होगा. इसलिए उस 13 वर्ष की लड़की के साथ पहले शादी की और फिर उसे 14 वर्ष में गर्भवती भी कर दिया.
कोई भी इंसान यह सुनेगा तो उसे गुस्सा आएगा, मगर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री की निगाह में वह भारत की जनजातियों का मसीहा था. पूरे पूर्वोतर भारत को अपने ईसाई अध्ययन से बर्बाद करने वाले डॉ. वेरियल ने भारत की स्वतंत्रता के बाद भारत में ही रहना मंजूर किया और उन्हें जवाहर लाल नेहरू ने अपना सलाहकार नियुक्त किया पूर्वोतर भारत।
वह जैसे इसी मौके की फिराक में था. भारत में वह एक मिशनरी के रूप में वर्ष 1927 में आया था और उसने पूरे बीस साल ईसाईकरण के अपने सपने का इंतज़ार किया. जैसे ही भारत आज़ाद हुआ और वह अपने असली मिशन पर लगा उसने कोसी को बिना बताए तलाक दे दिया. शुरू में उसने जरूर ही 25 रूपए हर महीने दिए फिर वह भी बंद कर दिए. उसके बाद एक और आदिवासी लड़की लीला पर उसका दिल आया और उससे शादी करके वह शिलॉंग सेटल हो गया.
सेवेन सिस्टर्स को भारत से अलग करने का श्रेय भी वेरियर को ही जाता है. जैसे एल्विन की सलाह पर ही भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ने नेफा के लिए पांच सिद्धांतों की स्थापना की, उनमें पहला सिद्धांत था कि लोगों को अपनी खुद की बुद्धि पर ही कार्य करना चाहिए और हमें उन पर कुछ भी थोपने का प्रयास नहीं करना चाहिए. और पहले सिद्धांत को लागू करते हुए पूरे पूर्वोत्तर भारत को एक ऐसी कैद में बंद कर दिया, जहाँ से न ही वह उत्तर को देख पाते थे और न ही यहाँ से वहां तक नज़र जा पाती थी.
क्या विडंबना थी कि सात समन्दर पार से आया हुआ कोई इंसान, जिसे भारत के सनातन धर्म और आदिवासियों का सम्बन्ध नहीं पता था और जो खुद बाहरी था उसने भारत के ही एक पूरे भाग में उन लोगों को बाहरी बना दिया जिनकी सांस सांस में भारत बसा हुआ था. उन साधुओं को उस धरती पर जाने से वंचित कर दिया गया, जिन साधुओं को कुछ भी नहीं चाहिए होता है, जो साधु सब कुछ त्याग चुके हैं, उनका प्रवेश वेरियर ने बंद करा दिया और खुद जिस भारत से प्रेम करने का दावा करता था उसकी एक बेटी को अनाथ छोड़कर दूसरी के साथ अय्याशी करने लगा था.
वैसे वेरियर को 1961 में पद्मश्री भी मिला और उसकी आत्मकथा को साहित्य अकादमी सम्मान भी मिला, मगर मृत्योपरांत! क्योंकि उसके पापों का घडा यहाँ भर चुका था और अब उससे ज्यादा भर नहीं सकता था. 22 फरवरी 1964 को उसका दिल का दौरा पड़ने से देहांत हो गया था. मगर कोसी की कहानी चलती रही थी. दूसरी पत्नी लीला की मृत्यु 2013 में हुई थी. और पंडित जवाहर लाल नेहरू ने ऐसा होने दिया या कहीं उन्हीं के इशारे पर हुआ. यह भी विचारणीय है कि उसकी नियुक्ति पर न ही सरदार वल्लब भाई पटेल ने कोई प्रश्न किया बल्कि गोविन्द बल्लभ पन्त ने तो प्रशंसा भी की थी. क्या सरदार पटेल असली मंशा समझ नहीं पाए? आपको क्या लगता है? क्या भारत के आदिवासियों के साथ हुए इस अन्याय के विषय में आपने सुना है, या फिर आपने भी इन मिशनरी द्वारा आदिवासियों के शोषण की कोई और कहानी सुनी है? कृपया बताएं
आपका लेख एकतरफा है महोदय!
दूसरा पक्ष है नहीं।