सत्तावन के स्वाधीनता संग्राम की भीषण आग सुलगने से ग्यारह साल पहले ब्रिटिश राज को एक छोटी सी चिंगारी ने भयभीत कर दिया था। वह चिंगारी न भड़कती तो 1857 में मंगल पाण्डे की राइफल शायद कभी न गरजती। सन 1846 में जब आंध्र प्रदेश के अधिकांश पोलिगारों ने ब्रिटिशों के समक्ष घुटने टेक दिए थे, तब कुरनूल के एक प्रांतीय प्रशासक (पोलिगार) ने म्यान से तलवार खींच ली थी। सैरा नरसिम्हा रेड्डी भारतीय इतिहास के पहले वीर सेनानायक थे, जिन्होंने अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़ाई शुरू की। अतीत के उन पीले पड़ चुके पन्नों को शुक्रवार की सुबह फिर से खोला गया, जब चिरंजीवी की ‘सैरा नरसिम्हा रेड्डी’ प्रदर्शित हुई।
अतीत के पीले पन्ने जब सेल्युलाइड के सिल्वर स्क्रीन पर अवतरित होते हैं तो किसी दर्शक के लिए ये संभवतः सम्मोहन की चरम अवस्था पर पहुँचने जैसा होता है। और ‘जादूगर यदि ‘राजामौली’ और ‘सुरेंदर रेड्डी’ जैसा हो तो निश्चित ही दर्शक एक विशेष कालखंड को दिल और दिमाग से महसूस करते हैं। ‘सैरा नरसिम्हा रेड्डी’ का समग्र प्रभाव ये है कि दर्शक की दृष्टि का विस्तार बढ़कर सन 1846 तक चला जाता है। वह उयालपाड़ा के उस मामूली सेना नायक के प्रति सम्मान अनुभव करता है, जिसने लुहारों और किसानों के बल पर ब्रिटिशों के दांत खट्टे कर दिए थे।
फिल्म की कहानी अठारहवीं सदी के मध्य में ब्रिटिशों के बढ़ते प्रभाव के साथ नरसिम्हा रेड्डी के उत्थान के बारे में बताती है। किसानों पर कर का बोझ बढ़ता ही जा रहा है। भीषण अकाल होने पर भी अंग्रेज कर वसूल रहे हैं। नरसिम्हा रेड्डी इस अन्याय का प्रतिकार करना चाहते हैं। एक दिन फरमान आता है कि अब लोगों को खेती के आधार पर नहीं बल्कि जमीन के आधार पर कर देना होगा। इसके बाद नरसिम्हा खुलकर अंग्रेजों के खिलाफ हो जाते हैं। इसकी परिणीति एक महान युद्ध के रूप में होती है। इस युद्ध के परिणाम भले ही विपरीत आते हैं लेकिन ठीक ग्यारह साल बाद इस समर से उपजी चिंगारी सत्तावन के महासमर में परिवर्तित होती है।
लगभग ढाई सौ करोड़ की लागत से बनी ये फिल्म भव्यता के पैमाने पर खरी उतरती है। चिरंजीवी, अमिताभ बच्चन, तमन्ना भाटिया, सुदीप के सुंदर अभिनय से सजी ये फिल्म ब्रिटिशों के आगमन और तत्कालीन पौराणिक भारत की झांकी सुंदरता के साथ प्रस्तुत करती है। निर्देशन, कैमरा संचालन, अभिनय और आर्ट डायरेक्शन के पैमाने पर फिल्म बहुत प्रभावित करती है। चिरंजीवी ने अपनी भूमिका को जीवंत बनाने के लिए अथाह परिश्रम किया है। तमन्ना भाटिया एक अलग तरह के किरदार में दिखीं हैं। उनके हिस्से में कुछ बहुत शानदार दृश्य आए हैं। अमिताभ बच्चन को फिल्म में कम फुटेज दिया गया है लेकिन जितने भी दिखे हैं, बेमिसाल दिखे हैं। यहाँ सुदीप का किरदार बहुत शक्तिशाली है और दर्शकों को पसंद आता है। रवि किशन का किरदार ठीकठाक रहा है।
फिल्म के कई दृश्य बेहद प्रभावित करते हैं। संवाद छू जाने वाले हैं। एक दृश्य में नरसिम्हा रेड्डी नृत्यांगना सिद्धिमा से कहते हैं कि उसे अपनी कला का उपयोग भारत के जन जागरण में करना चाहिए। सिद्धिमा को अहंकार है कि उसका नृत्य केवल देवों को ही समर्पित है। बहुत समय बाद दक्षिण भारत से एक लड़ाका नरसिम्हा के पास आता है और कहता है कि वह उनकी वीरता की कहानियां सुनकर उनकी सहायता के लिए आया है। वे कीर्ति कथाएं उसने किसी मंदिर में सिद्धिमा के मुंह से सुनी थी। ऐसे कई दृश्य प्रभावित करते हैं। इस फिल्म को इसकी भव्यता और संवादों के लिए अवश्य देखा जाना चाहिए और ख़ास तौर से अभिभावकों को अपने बच्चों को दिखाना चाहिए।
किसी प्रान्त का सेना नायक जब ‘आजादी’ जैसे शब्दों का प्रयोग करे, जंचता नहीं है। यहाँ फिल्म का हिन्दी अनुवाद करने वालों की गलती सामने आती है। अपने राजा को ‘सरकार’ कहने की परंपरा कर्नाटक जैसे क्षेत्रों में तो हो ही नहीं सकती। निश्चित ही फिल्म के मूल संवादों में ये शब्द नहीं होंगे। इन शब्दों को बॉलीवुड के नासमझ अनुवादकों ने डाला है, बिना ये सोचे-समझे कि परदे पर ये खिचड़ी बेमेल दिखाई देगी। फिल्म के कई दृश्य कम्प्युटर ग्राफिक्स की मदद से बनाए गए हैं, जो वास्तविक नहीं लगते। इसके अलावा हर दूसरी फिल्म में ‘सेकुलरिज्म’ की बंसी बजाई जाती है, सो इसमें भी बजाई गई है। इस तड़के के बिना फिल्म पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता लेकिन इस लाइलाज बीमारी का क्या किया जाए।
इस सप्ताहांत सैरा नरसिम्हा रेड्डी देखना एक आनंददायक अनुभव होगा। यदि आप राष्ट्र के प्रति भीतर से चेतना अनुभव करते हैं तो ये फिल्म आपके लिए ही बनाई गई है। कुछेक कमियों को निकाल दिया जाए तो फिल्म मनोरंजक और प्रेरणादायक है। ये फिल्म परिवार के साथ देखी जानी चाहिए। पहले शो में कम दर्शक संख्या और समीक्षकों के ‘प्रतिशोधी रिव्यू’ के कारण आप कहीं एक नेक फिल्म देखने से वंचित न रह जाए। ये फिल्म राष्ट्र को समर्पित है और दिल से बनाई गई है।
Jarur dekhne ka prayatn karenge