शंकर शरण। संघ-परिवार Sangh Parivar में ‘संघ-आयु’ मुहावरा चलता है। कि कोई कितने सालों से संघ में है? ऐसी भावना के विचित्र रूप भी दिखते हैं। पर बहुतेरे भले स्वयंसेवकों के लिए संघ ही सर्वस्व है। वे केवल ‘संघ’ पर सुखी-दुःखी होते हैं। देश, समाज के गंभीरतम विषयों पर भी उदासीन। इन विषयों में बड़े योगदान या हानि करने वाली कई ‘बाहरी’ हस्तियों के नाम भी अधिकांश स्वयंसेवक नहीं जानते। मानो देश या संघ का भवितव्य भी उस से स्वतंत्र है।
1. इस तरह, संगठन-पार्टी को मूल समझना कॉमरेड लेनिन का विचार था। उन्हीं से दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों में पहुँचा। जबकि पश्चिमी लोकतंत्रों में पार्टी समाज के एक मामूली अंग जैसी सीमित है। पार्टी नेताओं से बहुत अधिक महत्व उद्योग, साहित्य, कला, आदि के लोगों का है। वहाँ राजनीतिक दलों के लोग भी विविध सेवाओं के कर्मचारियों जैसे ही काम करते हैं। न विशेष सुविधाएं, न अधिकार। यह समानता की सहज भावना है। पार्टियाँ समाज के अधीन हैं, ऊँची या अलग नहीं। वस्तुतः हिन्दू मनीषियों ने भी पार्टियों की भूमिका मामूली ही मानी है।
विवेकानन्द, श्रीअरविन्द, टैगार, अज्ञेय, आदि के लेखन इसके प्रमाण हैं। तिलक, मालवीय, गाँधी, जैसे नेता भी पार्टी को समाज से अलग विशेष महत्व नहीं देते थे। बल्कि संघ संस्थापक डॉ. हेगडेवार ने भी पार्टी नहीं बनाई, जब कि वे कांग्रेस पार्टी में रह चुके थे। अतः पहले तो संघ द्वारा अलग पार्टी बनाना ही हिन्दू विचार और हेगडेवार की विरासत से भी हटना था। फिर पार्टी-बंदी, यानी अपनी पार्टी विशिष्ट मानना तो घोर हानिकर है। यह देश-समाज के हित को गौण ही नहीं, लगभग ओझल कर देता है। नेतागण चौबीस घंटे बारह महीने पार्टी में ही मशगूल जीवन बिता देते हैं।
2. पार्टी-बंदी कम्युनिस्ट अंधविश्वास है। यह समाज को नीचा मान उसे ‘दिशा दिखाना’ पार्टी की भूमिका मानता है। यही भाव आगे पार्टी की केंद्रीय समिति, या नेता को सर्वोपरि समझ-भंडार मान लेता है। रूस से आरंभ होकर यह सभी कम्युनिस्ट देशों में आया: पार्टी व नेता की भक्ति। उसी से जुड़ी पार्टी-लाइन की बीमारी। पार्टी/नेता जब जैसे चलाए, चलना। तदनुरूप पहले वाली बातें बदलना, छिपाना, लीपना-पोतना। अर्थात्, सत्य का सर्वथा लोप।
3. जनसंघ द्वारा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवाद’ रखने का समर्थन (1978), तथा नवगठित भाजपा का उद्देश्य ‘समाजवाद’ लिखना (1980) भी कम्युनिस्ट प्रभाव था। उस में गाँधीवादी एक विशेषण भर है। सो, गाँधीवादी समाजवाद को कोई अर्थ दें (जो कभी आधिकारिक दिया भी न गया), वह शब्द ही कम्युनिस्ट नकल है!
4. हर विषय में आर्थिक कारण बुनियादी मानना भी कम्युनिस्ट विचार है। तमाम समस्याओं, घटनाओं के पीछे गरीबी, अभाव, आदि कारक देखना। फलतः ‘विकांस’ के लिए कश्मीर या ‘अल्पसंख्यक’ मामलों में पैसा उड़ेलना। मानो कभी शुद्ध राजनीतिक, मजहबी कारक नहीं होते! इस नासमझी में विषैले मतवादों को और ताकत-संसाधन देते जाना।
5. नैतिकता की अनदेखी कर पार्टी/संगठन के लिए ‘उपयोगिता’ को महत्व देना। फलतः अंदरूनी पाखंड को बढ़ावा और अनुचित कामों को सही ठहराना कि ‘अंततः अच्छा होगा’, जो कभी नहीं होता। सात दशक तक रूसी कम्युनिस्टों ने यही दलील दे-देकर रुसियों को चुप रखा था।
6. फिर वर्ग-भेद तो खाँटी कम्युनिस्ट सिद्धांत है। सदैव ‘हम’ और ‘वे’ की श्रेणियों में बाँट कर सोचना। भाजपा-कांग्रेस, बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक, अमीर-गरीब, आदि करते रहना। मानो कोई सामान्य सामाजिक हित नहीं होते। इस दुर्भावना ने भारतीय संसद का भी सत्यानाश कर दिया है। बेचारे सांसद अपने पार्टी-नेता की हर सही-गलत पर ठप्पा लगाने के सिवा कुछ बोलने-करने से लाचार हैं। ऐसा यूरोप, अमेरिका में नहीं है! वहाँ सांसद देश के विचारशील प्रतिनिधि हैं। यहाँ पार्टी की भेड़-बकरियाँ।
7. पद-कुर्सी को बुद्धि की कसौटी, स्त्रोत मान लेना। संगठन-पार्टी नेता को ही इतिहास, साहित्य, आर्थिकी आदि का भी अधिकारी समझना। यह परंपरा सब से पहले कम्युनिस्ट रूस में बनी। उसी तर्ज पर संघ के छोटे-बड़े नेता हमारे मनीषियों पर भी लाल कलम चलाकर कार्यकर्ताओं को रौब में रखते हैं! योग्यता नहीं, बल्कि संघ-आयु और संघ-मैत्री के पैमाने पर शिक्षा-संस्कृति के भी नियामक, संचालक बनते, बनाते हैं।
फलतः उन की घोषणाओं में भी हास्यास्पद प्रस्थापनाएं आती हैं। जैसे, क्रिश्चियनों का ‘भारतीयकरण’; ‘देशी राम, विदेशी बाबर’; ‘प्रोफेट मुहम्मद के मार्ग पर चलें’; ‘भारत-केंद्रित शिक्षा’; ‘राष्ट्रीय मुस्लिम’; आदि। ऐसी ऊट-पटाँग कल्पनाएं कोई जानकार नहीं कर सकता। पर सघ-भाजपा नेता करते हैं और कार्यकर्ता देश पर थोपते हैं। देशघातक कामों को चतुराई समझते हैं! बाद में असलियत दिखे तो बात बदलते हैं। सीखते कुछ नहीं।
8. सत्ता पाने को सही होने का प्रमाण समझना। नियमित मिथ्याचार करने वाले सत्ता पाकर भी स्व-अर्जित बौद्धिक दुर्बलता के कारण वही लीक पीटते हैं। दशकों तक सोवियत सत्ता को मार्क्सवाद के ‘साइंस’ होने का सबूत कहा गया। यहाँ बंगाल में लंबी सत्ता को सी.पी.एम. अपने सही होने का प्रमाण बताती थी। वही तर्क संघ-परिवार भी हर कर्म-कुकर्म सही ठहराने में देता है। मानो घटिया चीज नहीं बढ़ती! राजनीतिक इस्लाम तो सब से अधिक बढ़ा है, जो हिन्दू समाज का खात्मा चाहता है। उसे भी अपनी ‘बढ़त’ का घमंड है।
9. शिक्षा, साहित्य, कला, साइंस, हर क्षेत्र को पार्टी/नेता द्वारा उपदेश देने की झक। यह सोशल मीडिया में भी दिखता है। जहाँ संघ-भाजपा के ‘कमिसार’ किसी विषय़ पर योगदान से अधिक सबको रोकने-टोकने की भावना लिए मुस्तैद मिलते हैं। चाहे विचारणीय बिन्दु पर कुछ न जानें, पर अपने संगठन/नेता की आलोचना पर आपत्ति करते हैं। ज्ञानियो से लेकर अपने भी किसी भूतपूर्व बड़े को लांछित करते हैं, यदि वह वर्तमान नेता/नीति पर कुछ असुविधाजनक कहे।
10. आलोचना के उत्तर में मुख्यतः आलोचक का चरित्र-हनन। तथ्य या दलील के बदले सीधे अपमान। जैसे, वह ‘अमेरिकी एजेंट’ है, या ‘पदलोभी’, ‘टुकड़खोर’, ‘निराशावादी’, ‘बुद्धूजीवी’, ‘किताबी ज्ञानचन्द’, ‘भौंकनेवाला’, ‘भाड़े का लिखैत’, आदि। कहीं प्रमाण की जरूरत नहीं। बस आरोप लगाना, फैलाना।
11. नेता-प्रचार और भक्ति तो पूर्णतः कम्युनिस्ट दुर्गुण हैं। लेनिन, माओ की तरह ‘अटल’, ‘दीनदयाल’ से देश को छाप देने की लालसा पश्चिमी लोकतंत्रों में नहीं है। न हिन्दू परंपरा में। यहाँ तो ज्ञानियों-संतों के सिवा कभी किसी की भक्ति का विचार नहीं मिलता!
12. अपने नेताओं के गलत कामों के लिए भी मनगढ़ंत तर्क, आँकड़े देना। जिन की जाँच न हो सकती, न प्रयत्न रहता है। कठदलीली के लिए शास्त्रों का नाम लेना, तोड़ना-मरोड़ना। जैसे, मिथ्याचार को ‘कृष्ण-नीति’ कहना।
13. सही आलोचना पर भी झूठ बोल कर निकलना। यह आदत बढ़ती जाती है। इस का उपयोग अंदरूनी सांगठनिक चालबाजियों में भी होने लगता है। इस तरह, धीरे-धीरे अपना बौद्धिक खालीपन बढ़ाना। वास्तविक कठिनाई या आरोप का सामना कर समाधान खोजने के बजाए बनावटी तर्कों के आदी होना। इस से अंततः स्वयं कमजोर, आलसी होते जाना। जो कपट किसी सैनिक मुठभेड़ या अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में, वह भी कभी-कधार उपादेय हो, उसे नियमित प्रवृत्ति बनाना आत्मघाती भूल है।
14. उपलब्धियों का झूठा/अतिरंजित प्रचार भी कम्युनिस्ट तकनीक रही है। सोवियत संघ ‘उन्नत’ और अमेरिका ‘पतनशील’ हैं, यह थोक प्रचार रूस में दशकों तक हुआ। यहाँ भाजपा को बेहतर बताने में कुछ ऐसी ही लफ्फाजी होती है।
15. दूसरे दलों से देश को ‘मुक्त’ कराने की चाह भी कम्युनिस्ट नकल है। पश्चिमी लोकतंत्रों में ऐसा सोचना भी कल्पनातीत है! ऐसा कहने वाले को लोग इसी बात पर कुर्सी से उतार देंगे, कि ऐसे तानाशाह को हटाओ।
उपर्युक्त संघ परिवार Sangh Parivar सभी विशेषताएं कम्युनिस्ट वैचारिकता में रही हैं। यह न हिन्दू चरित्र है, न यूरोपीय लोकतांत्रिक। अतः संघ-परिवार अपने ही विचारहीन दुष्चक्र में फँसा है। उस के विवेकशील नेताओं को यह परखना चाहिए। वरना सदैव ‘व्यवहारिकता’ के लोभ में वे सर्वस्व गँवा सकते हैं। जो रूसी कम्युनिस्टों का हुआ।