शंकर शरण। जब हिन्दुओं पर सीधी चोट पड़ती है, तो संघ परिवार के नेता चुप रहते हैं। बयान तक नहीं देते। चाहे बंगलादेश के हिन्दुओं का दमन या मंदिरों का विध्वंस हो, अथवा भारत में भी बंगाल, जम्मू, आदि अनेक क्षेत्रों में उत्पीड़न या भेद-भाव हो। पूछने पर बेधड़क कहते हैं: ‘हम ने हिन्दुओं का ठेका नहीं लिया है।’
किन्तु जब हिन्दू स्वत: अपने मुद्दे उठाते हैं जो धर्म-संस्कृति पर अतिक्रमण से जुड़े हों, शान्तिपूर्वक माँग भी करते हैं – तब संघ-परिवार के नेता उन के मालिक बन कर फटकारते हैं! बल्कि जो खुद किया हो, वही दूसरे हिन्दुओं के करने पर नाराज होते हैं।
जैसे, हाल में संघ नेता ने कहा कि हिन्दू मंदिरों को तोड़ कर बनाई गई मस्जिदों के मामले उठाकर कुछ लोग नेता बनना चाहते हैं! उन्हें ”यह स्वीकार्य नहीं है। इस की इजाजत कैसे दी जा सकती है?”

यह संघ नेताओं का विचित्र व्यवहार है। जहाँ उन से बोलने और कुछ करने की अपेक्षा की जाती है – वहाँ वे चुप रहते हैं। और जहाँ उन का कोई काम नहीं, वहाँ बढ़-चढ़कर स्वयंभू कोतवाल बनने लगते हैं! आम संघ स्वयंसेवक भी इस दोहरेपन पर अनजान लगते हैं। संघ नीतियों के अनुरूप ही किसी नेता के वक्तव्य पर कुछ स्वयंसेवक नाराज होते हैं! यह मानसिक दुर्दशा का संकेत है।
आखिर, जगजाहिर रूप में तीन दशक पहले ही इस्लाम-आक्रमित मंदिरों से संघ-परिवार पल्ला झाड़ चुका है। अपनी ही रैली में रामजन्मभूमि-बाबरी ढाँचा टूटने (१९९२) के बाद उन्होंने उस की जिम्मेदारी से इन्कार किया था। तभी से पहले उठाए मंदिरों का मुद्दा उठाना भी छोड़ दिया। काशी-विश्वनाथ और मथुरा कृष्ण-जन्मभूमि जैसे महत्वपूर्ण मंदिर भी उस में शामिल हैं।
एक सर्वोच्च भाजपा नेता ने कोई दो दशक पहले ही कहा था, ‘अयोध्या मुद्दा भुनाया जा चुका चेक है’। दलीय लाभ उठा लेने के बाद उन्हें अयोध्या में भी मंदिर से मतलब नहीं रह गया था! इसीलिए वह अदालत में अपनी चाल से जैसे-तैसे निपटा। इस खुले रिकॉर्ड के बावजूद कुछ लोग संघ परिवार पर अपनी भावनाएं आरोपित करते रहते हैं। यह भी नहीं देखते कि भाजपा ने किसी हिन्दू-विरोधी नीति के बनते, संविधान-कानून संशोधन होते कभी विरोध नहीं किया। ४४ वें संशोधन से लेकर आज तक विविध अवसरों पर यही दिखता रहा है।
हाल का सब से गंभीर उदाहरण ८६वें संशोधन के बाद की दुर्गति है। शिक्षा का अधिकार कानून (२००९) लागू करने में हिन्दुओं को वंचित कर केवल गैर-हिन्दुओं को कई सुविधाएं दी गईं! फलत: देश में हिन्दुओं द्वारा चलाये जा रहे अनगिनत शिक्षा संस्थान बंद होते जा रहे हैं। क्योंकि हिन्दुओं द्वारा संचालित स्कूलों में प्रवेश, और फीस से लेकर वेतन, आदि तमाम चीजों पर राजकीय नियम लादे गये। इस से उन पर नियमित बड़ा बोझ पड़ा। इस भार से वे सभी संस्थान मुक्त रखे गये, जिन्हें अ-हिन्दू चलाते हैं! ऐसा कानून साफ-साफ हिन्दुओं से अघोषित जजिया वसूलने जैसा स्थाई जुल्म है। पर इस पर और ऐसे अन्य अन्याय भी होते देख कर संघ परिवार सदैव चुप बना रहा है। निश्चय ही, उन्हें स्वयं अपने हिन्दू होने का बोध भी नहीं! ऐसे अबोध महानुभाव ही भारत के नेता हैं।
इसीलिए, दशकों से संसद में मजबूत उपस्थिति रखते हुए भी उन्होंने कभी किसी हिन्दू-विरोधी नीतिगत फैसलों के विरुद्ध कोई कदम नहीं उठाया। उलटे अपनी ओर से विशेष ‘अल्पसंख्यक’ योजनाओं के निर्माण और क्रियान्वयन में वे भी उत्साह से आगे रहे। भाजपा के बड़े-बड़े नेता गर्व से इस के विवरण देते हैं। जबकि पहले संघ-परिवार अन्य दलों के ऐसे ही काम को ‘तुष्टिकरण’ कहकर हिन्दुओं को उकसाता था!
सो, संघ-परिवार का असल व्यवहार लंबे समय से यह है: गैर-हिन्दुओं को ठोस विशेष लाभ, तथा हिन्दुओं को केवल तमाशे, झुनझुने, और शेखी बघारने या डराने की बातें। यही करते हुए वे जनसंपर्क और चुनाव में अपने लिए वोट माँगते हैं। भाजपा के अलावा भी संघ के संगठन अलग से गैर-हिन्दुओं के लिए योजनाएं चलाते रहे हैं। जैसे, मुस्लिम महिलाओं को पेंशन देना, मस्जिद मदरसों का निर्माण करना, कुरान का प्रचार करना, प्रोफेट मुहम्मद का जन्मदिन मनाना, इस्लाम के आलोचक विदेशी नेताओं के पुतले जलाना, आदि।
उस तरह के काम उन्होंने तब किए जब अधिकांश मुस्लिम नेता उसे हिन्दू नेताओं की ‘सदभावना’ नहीं, बल्कि डरना समझते हैं। उन में यह समझ विगत सौ सालों से पक्की जमी है। खलीफत जिहाद (१९२१) के समय देश भर में हिन्दुओं के संहार पर गाँधीजी द्वारा विचित्र, सिद्धांतहीन लीपापोती करने के समय से ही वह मानसिकता बनी कि हिन्दू नेता मुसलमानों से डरते हैं। इसीलिए मुस्लिमों के अनुचित कामों पर भी चुप रहते हैं। ऊपर से विशेष सुविधाएं देते रहते हैं! इस परंपरा के कारण ही सैयद शहाबुद्दीन ने चार दशक पहले भी कहा था, “हिन्दू सेक्यूलरिज्म का पालन इसलिए करता है क्योंकि मुस्लिम देशों से डरता है।” मुस्लिम नेता अपनी दबंगई और अलगाव छिपाते भी नहीं।
पर संघ परिवार के नेता भी गाँधीजी की तरह सच्चाई से मुँह मोड़कर झूठी दलीलें देते हैं। जिस से मुस्लिम नेता अपने दंभ में आश्वस्त, मनमानी माँगें और उग्र बयानबाजी करते रहते हैं। जबकि हिन्दू निरे नेतृत्वहीन रहते हैं। यह नेतृत्वहीनता आम हिन्दुओं का दोष नहीं, बल्कि उन से धन और वोट लेकर अपना उल्लू सीधा करने वाले संगठनों के विश्वासघात के कारण है।
इस प्रकार, गाँधीजी से लेकर संघ-परिवार के नेताओं तक, एकतरफा ‘मिल-जुल कर रहने’ की दलील देकर हिन्दुओं से धोखा करके जजिया दिलवाया जाता है। यह हिन्दू नेतागण स्वेच्छा से करते रहे हैं। जबकि मुस्लिम नेताओं की मानसिकता, बोली, और गतिविधियाँ सदैव ऊँचे और अलग रहने की रहती है। इस एकतरफेपन का फल हिन्दुओं को अधिकाधिक वंचित करने में होता रहा है। जिसे संघ नेता ‘सदभावना से रहना’ कहते हैं, उस की असलियत मुस्लिम नेता बखूबी समझते हैं।
अतः संघ परिवार हिन्दू समाज की बुद्धिहीनता का इश्तिहार है। इसलिए संघ नेताओं की ऐसी चाह अनाधिकार चेष्टा है कि उन से पूछ-पूछ कर लोग अपनी माँग रखें। माँगों का औचित्य देखने के लिए संसद, कानून और न्यायालय हैं। संघ का इन तीन में तेरह बनना विचित्र व्यवहार है।
बल्कि, इस्लामी अतिक्रमण के शिकार मंदिरों पर तो स्वयं महात्मा गाँधी ने कहा था कि ‘मंदिरों को तोड़कर बनाई गई मस्जिदें गुलामी के चिन्ह हैं।’ तब वह गुलामी तोड़ने की कोशिश सर्वथा उचित है, चाहे उस में जो समय लगे। यह ‘हर मस्जिद के नीचे मंदिर’ ढूँढने जैसी बात नहीं। केवल उन स्थलों की है जहाँ मंदिर तोड़कर ठीक वहीं मस्जिद बनाई गई थी। उस में कोई धर्म-ईश्वर भावना न थी। वह राजनीतिक धौंस जमाने और हिन्दुओं को नीचा दिखाने का काम था। इसीलिए वे ‘गुलामी के चिन्ह’ हैं, जिन की पहचान आसान है। कई स्थान स्वत: अतिक्रमित दिखते हैं। फिर, वैसी मस्जिदों के विवरण इस्लामी स्त्रोतों में ही मौजूद हैं। अतः संघ नेता मुसलमानों से कह सकते थे कि उन स्थानों को हिन्दू समाज को सौंप दें।
पर इस के बजाए संघ नेता धिम्मी रुख रखते हैं। साथ ही, गिरगिटी भी जब हिन्दू भावना का दोहन कर फिर उसे उपेक्षित अपमानित करते हैं। आखिर, अयोध्या में राम-जन्मभूमि मुक्ति के आंदोलन में घुस कर, उस का राजनीतिकरण करके दलीय लाभ ले लेने के बाद उसे अपने हाल पर घिसटने छोड़ देना और क्या था? ऐसे दोहरेपन के बाद संघ नेताओं को कोई अधिकार नहीं कि वे अतिक्रमित मंदिरों पर उलटे उपदेश दें। यह अवसरवादिता और हिन्दुओं पर दोहरी चोट है।
हिन्दू नेतृत्व छोड़िए, सच्चे राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए भी यही उचित होता कि वह जीवित सभ्यतागत घावों को छिपाने के बजाय खुल कर सहज समाधान की पहल करे। उसे दलीय स्वार्थ नहीं, बल्कि राष्ट्रीय कर्तव्य समझ कर सभी दलों, समूहों के विवेकवानों की सहायता ले। केवल दलबंदी, निजी हानि-लाभ, और श्रेय लेने-देने का क्षुद्र हिसाब इसे उपेक्षित करता रहा है। वरना, मुस्लिम समाज में भी लोग हैं जो इसे हिन्दुओं की भावना के अनुसार तय करना ठीक समझते हैं।
परन्तु गाँधीजी से लेकर आज तक संपूर्ण हिन्दू नेतृत्व में विवेक और साहस का अभाव रहा है। वे हर गंभीर कर्तव्य के समक्ष हीला-हवाला करना ही जानते हैं। इसीलिए संकट पड़ते ही हाथ खड़े कर देना और लफ्फाजी परोसना उन की प्रवृत्ति है। इसे ईमानदारी से स्वीकार करके ही कोई राह खोजी जा सकती है।