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India Speaks Daily > Blog > राजनीतिक विचारधारा > संघवाद > संघ-परिवार: एकता का झूठा दंभ
संघवाद

संघ-परिवार: एकता का झूठा दंभ

Courtesy Desk
Last updated: 2021/07/05 at 6:26 PM
By Courtesy Desk 11 Min Read
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Mohan Bhagwat chicago speech
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शंकर शरण। उस से पहले तक डॉ. हेगडेवार की दलीय नीति बिलकुल ठीक थी। कि जिस स्वयंसेवक में राजनीति रुचि हो वह कांग्रेस में काम करे। यही चल भी रहा था। सेक्यूलरवादी, हिन्दूवादी, समाजवादी, आदि सभी उस में काम करते थे। लंबे समय तक हिन्दू सम्मेलन भी कांग्रेस पंडाल में होते थे। स्वतंत्र भारत में भी कांग्रेस का यही चरित्र था। नेहरू कैबिनेट में भी हर विचार के लोग थे। यही जारी रहता, यदि संघ हेगडेवार की नीति पर टिका रहता।

श्रीअरविन्द ने कहा था, ‘‘एक ढोंगी फिकरा है जो हर वक्त, जब देखो तब, हमारी जबान पर रहता है, और वह है: एकता की पुकार। ‘तुम्हारे विचार जो भी हों, उन्हें दबा दो, क्योंकि उन से हमारी एकता बिगड़ जाएगी। अपने सिद्धांतों को निगल जाओ, क्योंकि वे हमारी एकता बिगाड़ देंगे। जो तुम सही समझते हो उस के लिए संघर्ष मत करो क्योंकि उस से हमारी एकता बिगड़ जाएगी। जरूरी काम भी बिना किए छोड़ दो, क्योंकि उन्हें करने की कोशिश हमारी एकता बिगाड़ देगी’ – यह है चीख-पुकार।’’

जिस हद तक संघ परिवार में एकता है, निपट विचारहीन है। मानो एकता का अर्थ अपने नेताओं की हर सही-गलत मानना, बल्कि उसे सही ठहराना है। कल यदि ये नेता खुद गलत साबित हो जाएं, तो उसे छिपाना है। ऐसा ढोंग, मानो वैसा कुछ कहा-हुआ ही नहीं। वर्तमान नेता कल दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका जाए, तो उसे भी सही बताना। गंभीर मुद्दों पर भी अकर्मण्यता को ‘रणनीति’ समझना, आदि। ऐसी एकता किसी भेड़-झुंड के दिशाहीन चलते जाने जैसी है।

Contents
शंकर शरण। उस से पहले तक डॉ. हेगडेवार की दलीय नीति बिलकुल ठीक थी। कि जिस स्वयंसेवक में राजनीति रुचि हो वह कांग्रेस में काम करे। यही चल भी रहा था। सेक्यूलरवादी, हिन्दूवादी, समाजवादी, आदि सभी उस में काम करते थे। लंबे समय तक हिन्दू सम्मेलन भी कांग्रेस पंडाल में होते थे। स्वतंत्र भारत में भी कांग्रेस का यही चरित्र था। नेहरू कैबिनेट में भी हर विचार के लोग थे। यही जारी रहता, यदि संघ हेगडेवार की नीति पर टिका रहता।श्रीअरविन्द ने कहा था, ‘‘एक ढोंगी फिकरा है जो हर वक्त, जब देखो तब, हमारी जबान पर रहता है, और वह है: एकता की पुकार। ‘तुम्हारे विचार जो भी हों, उन्हें दबा दो, क्योंकि उन से हमारी एकता बिगड़ जाएगी। अपने सिद्धांतों को निगल जाओ, क्योंकि वे हमारी एकता बिगाड़ देंगे। जो तुम सही समझते हो उस के लिए संघर्ष मत करो क्योंकि उस से हमारी एकता बिगड़ जाएगी। जरूरी काम भी बिना किए छोड़ दो, क्योंकि उन्हें करने की कोशिश हमारी एकता बिगाड़ देगी’ – यह है चीख-पुकार।’’

एक पार्टी में हो जाना ही राष्ट्रीय एकता का पर्याय मान लिया गया है। यदि आप संघ/भाजपा के सदस्य या अंध-समर्थक हैं, तो आप एकता बना रहे हैं। पर अपने विवेक से मुद्दे-दर-मुद्दे समर्थन या विरोध करते हैं, तब एकता तोड़ रहे हैं। ऐसा मानने वाले भोलेनाथ यह भी नहीं सोचते कि किस एकता की बात हो रही है? किस ने एकता बनाने का दावा भी किया? कहाँ पर ऐसा कुछ कहा या लिखा? वे बस अपनी ओर से ही उलटे-सीधे तर्क गढ़कर हर मूर्खता, निष्क्रियता, या घात का बचाव करते हैं। मानो, यदि उन के नेता हत्याओं, बलात्कारों पर भी निस्पंद हैं, तो चुप रह कर ‘एकता’ दिखानी है।

तीसरे, हिन्दू-हित को घोषित लक्ष्य बनाए ही उसे पाने की ओर बढ़ने का ढोंग हो रहा हे। जैसे बिना खुल कर, मैदान में, फुटबॉल खेले ही, किसी दिन चमत्कारिक रूप से विश्व-कप जीत लेने का सपना दिखाया जा रहा हो! उन के नेता हिन्दू हितों को कभी रेखांकित तक नहीं करते। अनेक तो जानते भी नहीं कि किन विधियों से यहाँ हिन्दू तीसरे दर्जे के नागरिक बना दिए गए हैं! पर कार्यकर्ताओं को दिलासा देते हैं कि हिन्दू-राष्ट्र बनने ही वाला है। बस, दूसरी पार्टियों को खत्म कर देना है। आखिर ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का क्या अर्थ है? मानो सब को एक पार्टी समर्थक बना लेना ही एकता है।

परन्तु ऐसी एकता तो पूर्णतः उपलब्ध थी, जब संघ ने अपनी अलग पार्टी बनाई। 1951 ई. में कांग्रेस पूरे देश में एकछत्र पार्टी थी। वह हिन्दुओं की ही पार्टी थी। उस के 95%  नेता व समर्थक हिन्दू थे। उन में कई नेता देश में अत्यंत आदरणीय भी थे। यही नहीं, देश-विभाजन बाद मुसलमान और कम्युनिस्ट, दोनों लज्जित, पस्त, खस्ताहाल थे। चर्च-मिशनरी डरे हुए थे कि अंग्रेज शासकों के बाद यहाँ उन का हाल चीन जैसा न हो, जहाँ मिशनरियों को भगाया जा रहा था। वैसे समय, एक अलग पार्टी, भारतीय जन संघ बनाकर किस की एकता तोड़ने का अशुभ-आरंभ किया गया?

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नोट करें:  ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ के विरोध में ‘भारतीय जन संघ’। दोनों नामों के शब्द भी लगभग पर्याय हैं। राष्ट्रीय के बदले जन, कांग्रेस के बदले संघ, समान अर्थ रखते हैं। यानी कोई नया लक्ष्य संकेत तक न था। नई पार्टी के नाम में हिन्दू शब्द भी नहीं रखा। अतः जैसे भी देखें, नई पार्टी यहाँ राष्ट्रीय समुदाय को पार्टियों में बाँटने का ही काम था। चूँकि उस समय मुसलमान, कम्युनिस्ट, और मिशनरी नगण्य हैसियत रखते थे, इसलिए यह पूरी तरह हिन्दुओं को ही तोड़ने का प्रारंभ था।

उस से पहले तक डॉ. हेगडेवार की दलीय नीति बिलकुल ठीक थी। कि जिस स्वयंसेवक में राजनीति रुचि हो वह कांग्रेस में काम करे। यही चल भी रहा था। सेक्यूलरवादी, हिन्दूवादी, समाजवादी, आदि सभी उस में काम करते थे। लंबे समय तक हिन्दू सम्मेलन भी कांग्रेस पंडाल में होते थे। स्वतंत्र भारत में भी कांग्रेस का यही चरित्र था। नेहरू कैबिनेट में भी हर विचार के लोग थे। यही जारी रहता, यदि संघ हेगडेवार की नीति पर टिका रहता। पर विचारहीनता उस की बालबुद्धि को कल्पनालोक ले गई। ‘अपनी’ पार्टी तो बन गई। पर कांग्रेस को निर्विरोध वामपंथियों, इस्लामियों के कब्जे में जाने का सुभीता हो गया।

फिर, विडंबना यह भी कि नई पार्टी जी-जान से कांग्रेस की ही नकल में लग गई। वह आज तक जारी है। भाजपा की एक भी नीति, तरीका, गतिविधि, यहाँ तक कि लफ्फाजी भी, ऐसी नहीं जो कांग्रेस की नकल न हो। बल्कि नेता-भक्ति में संघ परिवार और अंधा है। ‘आइडियोलॉजी’ का दंभ पाल कर भी पूर्ण विचारशून्यता। कांग्रेस अपने मूल मुद्दे, नारे, समर्थक समुदाय कभी नहीं छोड़ती। भाजपा के मुद्दे, नारे हर नेता के साथ बदल जाते हैं। विचारशून्यता ऐसी कि न पिछले नारे की समीक्षा, न नये की परख। अपने समर्थकों के प्रति नीति तो उलटे, सदैव शत्रु को गले लगाना और मित्र को गालियों से रंगना है। चाहे वह समर्थक व्यक्ति हो या समुदाय। शत्रु-मित्रों के प्रति संघ-भाजपा के ऐसे व्यवहार का खुला, लंबा रिकॉर्ड है।

यह सब विचारशून्य राजनीति के लक्षण एवं दुष्परिणाम हैं। वे अपनी भावना को ही आदि-अंत समझते हैं। मानो, दूसरों की, मित्रों और शत्रुओं की भी भावना नपुंसक हो! कोई पूरे भारत को हिन्दू-विहीन करना चाहता है, तो इस विचार का क्या उत्तर है? मुस्कुराते हुए उसे गले लगा लेना, पद-पुरस्कारों से लाद देना। बालबुद्धि समझती है कि इस से शत्रु पानी-पानी हो गया। बालक की आँखों पर पार्टी-बंदी का ऐसा चश्मा चढ़ा है कि वह शत्रु के नित्य, प्रत्यक्ष काम भी नहीं देखता। उलटे, इस का ध्यान दिलाने वाले मित्र को अपशब्द कहकर छुट्टी कर लेता है।

ऐसी आत्मघाती धारणा गाँधीजी से मिलती-जुलती है। वे मोपला (1921) से लेकर लाहौर (1947) तक, अपने पूरे भारतीय राजनीतिक कैरियर में, यही कहते रहे। कि हिन्दू लोग हाथ बाँधे, बाल-बच्चों समेत, मर जाएं। आक्रामक जिहादियों पर भी हाथ न उठाएं ‘‘ताकि अहिंसा की विजय हो’’। ऐसी आइडियोलॉजी के कारण, हिन्दू-विध्वंस कराने के निमित्त बने नेता, ऐसे विचित्र कामों-बयानों के बल पर महात्मा कहे गए! आज संघ-परिवार गाँधी गुणगान में भी कांग्रेस की नकल कर रहा है। बल्कि बंगाल के संदर्भ में देखें, तो अपने महात्माओं का निर्माण कर रहा है।

यह भी उस बालबुद्धि की पुरानी लालसा रही है। गाँधी, नेहरू, की तरह संघ का भी ‘अपना’ महापुरुष होना। अपने मूढ़ नेताओं को ‘भारत-रत्न’ देते रहने से कुछ खास हुआ नहीं। कोई उन्हें उद्धृत नहीं करता, उन से किसी को, किसी समस्या को समझने में भी, सहायता नहीं मिलती। हिन्दुओं को सहायता मिलती है सीताराम गोयल, राम स्वरूप, या पीछे विवेकानन्द, श्रीअरविन्द से। जिन्होंने पार्टी-बंदी या एकता की सनक की सीख नहीं दी थी। सब ने विचार, सत्यनिष्ठा और धर्म को सर्वोपरि बताया था। छल, प्रपंच और नाटक को कभी महत्व नहीं दिया।

श्रीअरविन्द ने कहा था, ‘‘एक ढोंगी फिकरा है जो हर वक्त, जब देखो तब, हमारी जबान पर रहता है, और वह है: एकता की पुकार। ‘तुम्हारे विचार जो भी हों, उन्हें दबा दो, क्योंकि उन से हमारी एकता बिगड़ जाएगी। अपने सिद्धांतों को निगल जाओ, क्योंकि वे हमारी एकता बिगाड़ देंगे। जो तुम सही समझते हो उस के लिए संघर्ष मत करो क्योंकि उस से हमारी एकता बिगड़ जाएगी। जरूरी काम भी बिना किए छोड़ दो, क्योंकि उन्हें करने की कोशिश हमारी एकता बिगाड़ देगी’ – यह है चीख-पुकार।’’ (23 अक्तूबर 1907)

ये बातें एकता का ढोंग पालने वालों के विरुद्ध ही कही गई थी। संघ परिवार के विवेकशील लोगों को कभी चार्ट-सारणी बना कर, पिछले सत्तर सालों में अपनी पार्टी के तमाम कामों, बयानों, नेताओं की समीक्षा करनी चाहिए। उन्होंने केवल पार्टी-बंदी की, अपनी पार्टी बढ़ाई। किन्तु हिन्दुओं को तोड़ा। उन्हें दिनो-दिन भ्रमित और असहाय बनाया। जबकि हिन्दुओं के शत्रु बिना किसी पार्टी की सनक के भी, संघ-परिवार द्वारा मेहनत से बनाई गई हिन्दू विचारहीनता, असहायता के बल पर ही दिनो-दिन बढ़ते गए हैं।

क्या इन आरोपों की परख नहीं हो सकती? हो सकती है। पर नहीं की जाएगी। क्योंकि तब झूठे भारत-रत्नों का मुलम्मा उतर जाएगा। संघ परिवार को धर्म और सत्य के बदले अपने मूढ़मतियों को खुद ही महान कह-कहकर, नशे में रहने की लत लग चुकी है। यह उसी वज्रमूर्खता, डफरता का एक उदाहरण है, जिस पर चार दशक पहले ही सीताराम गोयल ने ऊँगली रखी थी।

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