शंकर शरण. सच तो यह है कि संघ-भाजपा के सत्ता में आते ही संघ-परिवार अपनी पूरी शब्दावली ही बदल लेता है! तब ‘इस्लामी आक्रामकता’, ‘इस्लामी उत्पीड़न’ विषय ही उस के लिए अदृश्य हो जाते हैं, चाहे इस्लामी उग्रता कितनी भी बढ़ती जाए। देश के अंदर ही अनेक स्थानों में हिन्दुओं के सामूहिक उत्पीड़न, विस्थापन, तथा कन्हैयालाल जैसे दर्जनों निरीह हिन्दुओं के लोमहर्षक जिहादी कत्ल पर भी कोई संवेदना नहीं दिखती।
आर.एस.एस. की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा प्रयाग में चल रही है। इस अवसर पर उन का बयान हैरतअंगेज है! यह बयान कि, ‘‘मुस्लिम समाज से संवाद का आमंत्रण आया तो संघ विचार करेगा।’’ तो क्या मुस्लिम समाज संघ-परिवार के ऊपर या सत्ताधारी है, जिस से ‘निमंत्रण’ की प्रतीक्षा है? दुनिया भर में सत्ताहीन, दुर्बल ही बलवानों, सत्ताधीशों से निमंत्रण की लालसा रखते हैं। ताकि अपनी शिकायत/माँग रख सकें। जबकि यहाँ सारी सत्ता, संसाधन, और राजकीय एजेंसियों पर काबिज संघ-परिवार ही एक अल्पसंख्यक समुदाय का मुँह जोह रहा है कि वह इन्हें बुलाए!
यह एक सबल, स्वस्थ संगठन का स्वेच्छा से दुर्बल, बीमार बने रहना है। उक्त बयान में अन्य विसंगति भी ऐसे बीमार की हालत दर्शाती है। वह यह कि संघ तो बरसों से ‘मुस्लिम समाज से संवाद’ चला ही रहा है! गत एक वर्ष में ही अनेक बड़े समाचार आये, जिन पर खूब चर्चा भी हुई। कभी किसी मुस्लिम की पुस्तक का विमोचन, कभी मौलानाओं से मुलाकात, कभी रिटायर्ट मुस्लिम अफसरों से वार्ता, आदि संघ के बड़े नेता करते ही रहते हैं।
सत्तासीन भाजपा के बड़े लोग भी और धूम से मुक्तहस्त होकर वही करते रहे हैं। बल्कि संघ और भाजपा, दोनों ने बाकायदा विशेष नेता नियुक्त कर रखे हैं जो केवल मुस्लिम चिन्ता-सेवा में ही लगे रहते हैं। संघ ने बाकायदा अपना एक ‘मुस्लिम मंच’ ही बना रखा है जिस के ओहदेदार को ऊँचा कद, पद और संसाधन हासिल हैं। वे ऐसे निष्ठावान हैं कि इस्लाम के आलोचक पर जिहादियों की तरह बरसते और उस के पुतले जलाते हैं। भगवान राम को भी मुहम्मदी कर्मचारी ‘ईमाम’ जैसी पदवी देकर अपमानित करते हैं। तबलीगियों के घातक कामों का भी बचाव करते आड़ देते हैं, आदि।
यह सब बरसों, दशकों से करते रहने के बाद भी संघ का मुसलमानों से संवाद होना बाकी है!? तब तो यह तो धिम्मी जैसी ताबेदारी लगती है। पूर्वी भारत में एक मुहावरा है: मार खाओ और मारने वाले को फीस भी दो! तमाम किस्म के देशी-विदेशी मुस्लिमों के समक्ष संघ-परिवार के महानुभावों का व्यवहार कुछ उसी का उदाहरण लगता है।
ऐसे स्वैच्छिक बीमार का एक दूसरा रूप भी दर्शनीय है। जो और दुःखद व लज्जास्पद है। वह है कुछ खास तरह की बातें भूल जाना, जिसे अंग्रेजी में ‘सेलेक्टिव अमनीसिया’ कहते हैं। संघ परिवार को यह बीमारी तब और तहाँ होती है, जब और जहाँ वह सत्ता में होता है। उदाहरण के लिए, संघ की इस प्रतिनिधि सभा को ही लीजिए। नौ वर्ष पहले, 2013 ई. में इस की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने बांग्लादेशी हिन्दुओं की दुर्गति पर प्रस्ताव पारित किया था। प्रस्ताव का शीर्षक था: ‘बंगलादेश और पाकिस्तान के उत्पीड़ित हिन्दुओं की समस्याओं का निराकरण करें’। छः पाराग्राफ के उस प्रस्ताव में छः बार ‘केंद्रीय सरकार’ या ‘भारत सरकार’ को ताना दिया गया और उस से माँगें की गई थी। स्वयं उन के शब्दों में वे माँगें देखें, और आज की स्थिति से तुलना भी करें –
- ‘‘अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा बंगलादेश के बौद्धों सहित समस्त हिन्दुओं एवं उन के पूजास्थलों पर वहाँ की हिन्दू-विरोधी तथा भारत विरोधी कुख्यात जमाते-इस्लामी सहित विभिन्न कट्टरपंथी संगठनों द्वारा हाल ही में किये गए हमलों की तीव्र निन्दा करती है। यह घटनाक्रम बंगलादेश में पिछले कई दशकों से लगातार जारी है। वहाँ के हिन्दू और अन्य अल्पसंख्यक उन की कुछ भी गलती न होते हुए भी इस्लामिक आक्रामकता की आग में झुलस रहे हैं।’’
- ‘‘अ. भा. प्र. सभा पाकिस्तान के हिन्दुओं की दुर्दशा पर भी राष्ट्र का ध्यान आकर्षित करना चाहती है।’’
- ‘‘अ. भा. प्र. सभा भारत के राजनैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक नेतृत्व तथा केन्द्रीय सरकार को स्मरण दिलाना चाहती है कि ये असहाय हिन्दू अपने स्वयं के किसी कृत्य के कारण इस इस्लामी उत्पीड़न का शिकार नहीं हुए हैं।’’
- ‘‘अ. भा. प्र. सभा भारत सरकार को आवाहन करती है कि पाकिस्तान और बंगलादेश के हिन्दुओं की स्थिति और वहाँ से आये हुए शरणार्थियों के पूरे विषय पर पुनर्विचार करे। सरकार यह कह कर बच नहीं सकती कि यह उन देशों का आन्तरिक विषय है।’’
- ‘‘अ. भा. प्र. सभा का यह सुनिश्चित मत है कि नेहरू-लियाकत समझौते के उल्लंघन के लिए पाकिस्तान और बंगलादेश की सरकारों को चुनौती देना भारत सरकार का दायित्व है।’’
- ‘‘इस हृदयविदारक दृश्य को देखते हुए अ. भा. प्र. सभा भारत सरकार से यह अनुरोध करती है कि इन दोनों देशों में रहनेवाले हिन्दुओं के प्रश्न पर नए दृष्टिकोण से देखे, क्योंकि उन की स्थिति अन्य देशों में रहनेवाले हिन्दुओं से पूर्णतया अलग है।’’
- ‘‘अ. भा. प्र. सभा भारत सरकार से आग्रह करती है कि: संयुक्त राष्ट्र संघ के शरणार्थी तथा मानवाधिकार से सम्बंधित संस्थाओं [UNHCR, UNHRC] से यह माँग करे कि हिन्दुओं व अन्य अल्पसंख्यकों की सुरक्षा व सम्मान की रक्षा के लिए वे अपनी भूमिका का निर्वाह करें।’’
अंत में यह भी, कि ‘‘अ. भा. प्र. सभा यह कहने को बाध्य है कि हमारी सरकार का इन लोगों के प्रति उदासीन रवैया केवल इसलिए ही है क्योंकि वे हिन्दू हैं। सभी देशवासियों को सरकार के इस संवेदनहीन और गैर-जिम्मेदार व्यवहार के विरुद्ध खुलकर आगे आना चाहिए।’’
अब विचार करें, कि हालिया वर्षों में बंगलादेश और पाकिस्तान में हिन्दुओं पर हमले, हिन्दू लड़कियों का अपहरण बलात्कार, जबरन धर्मांतरण, तथा मंदिरों का विध्वंस, देवी-देवी की प्रतिमाओं का अपमान, आदि समाचारों के बाद संघ ने कौन सा बयान दिया? किसे जिम्मेदार या गैर-जिम्मेदार ठहराया? किस से क्या माँग की?
सच तो यह है कि संघ-भाजपा के सत्ता में आते ही संघ-परिवार अपनी पूरी शब्दावली ही बदल लेता है! तब ‘इस्लामी आक्रामकता’, ‘इस्लामी उत्पीड़न’ विषय ही उस के लिए अदृश्य हो जाते हैं, चाहे इस्लामी उग्रता कितनी भी बढ़ती जाए। देश के अंदर ही अनेक स्थानों में हिन्दुओं के सामूहिक उत्पीड़न, विस्थापन, तथा कन्हैयालाल जैसे दर्जनों निरीह हिन्दुओं के लोमहर्षक जिहादी कत्ल पर भी कोई संवेदना नहीं दिखती। बंगलादेश में बारं-बार मंदिरों पर हमले और पूजा के ध्वंस पर भारत को कुछ करना चाहिए, यह बात भी वे गोल कर जाते हैं। बंगलादेश के हिन्दुओं की तबाही का मुद्दा संयुक्त राष्ट्र में उठाने का ध्यान नहीं आता, जो स्वयं उस के स्वयंसेवक के हाथ में होता है! बल्कि, सैकड़ों स्वयंसेवक नेता भारतीय संसद में भी इसे नहीं उठाते। उलटे, इन मुद्दों को उठाने वाले बेचारे हिन्दू लेखकों को ही दुश्मन समझ व्यवहार करते हैं। उन का बहिष्कार, चरित्र-हनन, दंड और सोशल मीडिया ग्रुपों तक से निकालते हैं। वही बातें कहने के लिए, जो गैर-भाजपाई सत्ता के दौरान संघ-परिवार स्वयं कहता रहता है।
इस प्रकार, सत्ता में होने पर संघ-परिवार हिन्दुओं से संबंधित सभी ‘हृदयविदारक दृश्य’ भूल जाता है! बल्कि हिन्दुओं का अस्तित्व ही। तब वह हिन्दू-मुस्लिम अंतर पर रोलर चला देता है। सभी भारतवासियों को ‘हिन्दू’ कहकर पल्ला झाड़ता है। मंदिर और शिक्षा संचालन में हिन्दुओं को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाए रखने पर मौन रहता है। बदले में तरह-तरह के नाटक, तमाशे, अतीत गौरव की लफ्फाजी, तथा विदेशियों या मृत कांग्रेसियों को कोसने में सारे संसाधन व ऊर्जा नष्ट करता है।
ऐसा स्मृति-लोप एक गंभीर बीमारी है। यह स्वर्जित या ओढ़ी हुई है। गंभीर हिन्दू-हित के मुद्दे, जिस पर कांग्रेसी वामपंथी सत्ताधारियों को कोसा जाता था, अब भुला दिए गए हैं। बदले में नकली, झूठी, दिखावटी बातों या तमाशों को सारे समय फैलाते हुए सचाई से आँखें चुराई जाती है। यह निर्बलता, कुछ बातों का स्मृति-लोप, विशेष घटनाओं पर दृष्टि-दोष, आदि बीमारी अब संघ-परिवार की पहचान बन रही है। इसे तमाम आडंबर और प्रोपेगंडा अधिक समय तक छिपा कर नहीं रख सकते। अच्छा हो, वे समय रहते रोग और रोगी की पहचान करें। अन्यथा काल बहुत बड़ा चिकित्सक है, जो हर बनाव-छिपाव से अप्रभावित रह कर उपचार कर देता है।