शंकर शरण। Sangh parivaar pickpocket mentality पॉकटमार मानसिकता…..भीतर से कुछ, बाहर कुछ और। विश्वासपूर्वक कुछ भी उचित कर सकने का मनोबल नहीं। उस की चाह है कि किसी तरह कुछ हाथ आ जाए और बलवान विरोधियों का सामना न करना पड़े। यह मानसिकता हिन्दू शिक्षा से तो शून्य है ही। यूरोपीय, सभ्यता के स्वतंत्रता, समानता परक, आत्माभिमानी मूल्यों से भी दूर है। यूरोप में कुछ सम्मानजनक मानदंड और पारदर्शी, उत्तरदायी परंपराएं हैं। हमारे नेता उस में भी सिफर हैं।
लोकतांत्रिक राजनीति में कई तरह के लोग सक्रिय रहते हैं। भारत में तीन समूह विशिष्ट हैं। एक घोषित रूप से दूसरों का खात्मा कर दुनिया में बस अपना राज-समाज चाहते हैं। वे इस में सदियों से लगे हैं, और जिन देशों में अल्पसंख्यक हैं, वहाँ भी दबंगई, कपट, हिंसा, आदि हर तरह से देश के कानून-संविधान को धता बताकर सब पर अपनी थोपते हैं। यह वे खुल कर करते हैं। यह डाकुओं-सी राजनीति है।
दूसरे वे हैं, जो भी अपने मतवाद अनुसार दुनिया बदलना चाहते हैं। इस के लिए पहले अपनी पार्टी तानाशाही कायम करना चाहते हैं। परन्तु नियमित दबंगई के बदले वैचारिक प्रपंच से लोगों को अपना अनुगामी बनाते हैं। इन्हें योद्धा राजनीतिक कह सकते हैं।
तीसरे वे हैं जिन के पास राज्य-नीति की कोई कल्पना नहीं। न इतिहास-ज्ञान है। वे केवल सत्ता-कुर्सी पर बैठे रहना चाहते हैं। अपने को विचारक, महापुरुष, आदि कहलाने की लालसा भी रखते हैं। चाहे अपने किसी विचार/उपलब्धि की ‘महानता’ नहीं दिखा पाते। पर अपने नेताओं के नाम से दर्जनों भवन, सड़क, विश्वविद्यालय, चेयर, आदि बनाते जाते हैं। सब राज-कोष से। उन का मंसूबा है कि इसी तरह वे एक दिन सब के सिरमौर हो जाएं। यह पॉकेटमार मानसिकता की राजनीति हैं।
एक बार कहीं स्कूली पुस्तकों में कोई बात हटाने का मुकदमा चल रहा था। लेकिन जानकारों की सलाह ठुकरा कर, कोर्ट में मनमानी दलील देकर, काम निकाल लेने का विफल प्रयास किया गया। तब कूनराड एल्स्ट ने सीताराम गोयल की टिप्पणी याद की कि संघ परिवार में पॉकेटमार मानसिकता है (“The RSS has a pickpocket mentality, they hope to get things on the cheap.”)। सो, जो लड़ाई सचाई बल से जीती जा सकती है, उसे आसान मनगढंत का सहारा लेकर हार में बदल लेते हैं। यह विविध मामलों में होता है। वे जानकारों की सलाह इसलिए ठुकराते हैं, ताकि बुद्धि एवं श्रेय, दोनों पर एकाधिकार दिखा सकें।
ऐसे भोले लोग हाथ में सत्ता लेकर भी मर्मांतक शत्रुओं का सामना नहीं करते। उन्हें चुपचाप रिश्वत-प्रलोभन और सज्जनता-खुशामद से लुभाने की जुगत करते हैं। समस्याओं पर खुला विमर्श भी नहीं करते, ताकि अपना मत साफ-साफ न रखना पड़े। लुका-छिपी की भाषा बोलते हैं। ताकि किसी भी बात से मुकरने का रास्ता खुला रहे, कि ‘हमारा यह आशय न था’। लेकिन आशय क्या है? बताने से बचते हैं। सदैव गोल-मोल बातें। शत्रु के भयंकर इतिहास और आज भी जारी कट्टरता के बावजूद ‘हमारे पूर्वज एक थे’, आदि कह कर फुसलाने की चाल चलते हैं। जैसे पॉकेटमार ट्रेन में बैठे सहयात्री को ‘हम एक ही शहर के हैं’, जैसी बातों से बहलाता है।
यह आदत ऐसी हो जाती है, कि अपने सदस्यों को भी ठगते हैं। जैसे, अपने संगठन में दशकों तक गाँधीजी को बुरा-भला कहते रहे। फिर, एकाएक खुद को गाँधी का सब से सच्चा अनुयायी बताने लगे। जहाँ-तहाँ चरखा-मूर्ति लगाने लगे। अभी उन के ‘थिंक टैंक’ ने एक नोट प्रसारित किया कि “महात्मा गांधी की विरासत का असली उत्तराधिकारी रा. स्व. संघ” है। यह बदलाव कब, कैसे हुआ? उन के सदस्य भी नहीं जानते।
वही स्थिति आर्थिक-शैक्षिक नीतियों में भी। कब ‘स्वदेशी’ बदलकर विदेशी-निवेश आवाहन, और मैकॉले-मिशनरी-मार्क्सवाद हटाने के बदले ‘‘विकास सारी समस्याओं का समाधान’’ हो गया? कोई नहीं बता सकता। हर बात नजर बचाकर, छल से।
परन्तु सब से बड़ी तस्करी यह हुई कि कि हिन्दू-हित के नाम पर चुपचाप अपना पार्टी-हित जमा दिया गया। अनौपचारिक बहाने, दलीलें फैलाते हुए हिन्दू समाज को ही अपदस्थ कर दिया गया। केवल अपना संगठन-पार्टी ही पहली व अंतिम चिन्ता हो गई। यही पूरे समाज पर थोपने की जुगत जारी है। साथ ही, जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ने की चतुराई भी। इस हद तक, कि भाजपा का प्रवक्ता रहा एक नेता हिन्दू संतों, मठों को गालियाँ देता हुआ वीडियो बनाता है कि ये हिन्दू समाज के हितों से निर्विकार हैं।
यह निर्लज्जता की पराकाष्ठा है। जिन के हाथ में कानून, प्रशासन, सेना, बैंक, राजकीय मीडिया, दर्जन भर राज्यों की सत्ता, व सारी दुनिया में दूतावास है – उन के मुँह से तो नई बहू की तरह बोल नहीं निकलते! लेकिन कथा-पुराण बाँचने वाले साधु-संत सड़क पर आ कर हिन्दू समाज की लड़ाई लड़ें!
ऐसी क्लीब नीति अपनी मानसिकता की कहानी खुद कहती है। उन के नेता किसी हिन्दू मुद्दे पर अपने को कमिट नहीं करते (जबकि मुस्लिम मुद्दों पर करते हैं। उस का प्रचार भी करते हैं)। उन के निचले कार्यकर्ता काल्पनिक बातें कह-कह कर हिन्दुओं को भरमाते भटकाते हैं। पर सारी गड़बड़ी की जिम्मेदारी हिन्दू समाज पर डालते हैं, कि वह जातिवादी, स्वार्थी है, आदि। जबकि नेतागण ही जातिवादी विभाजन करते रहे हैं। हिन्दू समाज फिर भी पर्याप्त एकजुट हो इन्हें जिताता रहा है।
ऐसे नेता और संगठन व्यर्थ हैं। चाहे उन की संख्या कितनी भी हो जाए। हिन्दू समाज को जो चोट 1921, 1946-47, आदि में लगी, उस का दुष्प्रभाव खत्म करना सब से पहला कर्तव्य था। उलटे, फिर वैसी ही चोट केरल से लेकर कश्मीर तक स्वतंत्र भारत में भी लगती रही। उस के प्रतिकार के बदले नेताओं ने उसे छिपाने और शत्रुओं की लल्लो-चप्पो की नीति बना ली। सभी दलों ने यह किया। अभी बंगाल में वही और ठसक से हुआ।
हिन्दू समाज का आत्म-सम्मान, आत्म-विश्वास पुनर्स्थापित करने के बदले, गत दशकों में प्रतियोगी ‘अल्पसंख्यकवाद’ द्वारा हिन्दुओं को दूसरे दर्जे का नागरिक बना डाला गया। अपनी शिक्षा और अपने मंदिरों पर हिन्दुओं को वह अधिकार नहीं, जो मुसलमानों, क्रिश्चियनों को है। ऐसा जुल्म अंग्रेज-राज में भी नहीं हुआ था! स्वतंत्र भारत में हिन्दुओं को गिराने में डाकू, योद्धा, और पॉकेटमार तीनों प्रकार के दलों ने योगदान दिया।
अयोध्या आंदोलन ने हिन्दुओं को सचेष्ट बनाया, परन्तु जिन्होंने इसे राजनीति के हथकंडे में बदल कर नेतृत्व का दंभ भरा, वे एकदम मतिहीन और मादा साबित हुए। जिस बात पर साधिकार आगे बढ़ना था, उसी पर शर्मिंदा हो बैठे। किसी तरह सौदेबाजी को गिड़गिड़ाने लगे। हिन्दू समाज फिर हताशा हो गया।
यद्यपि, घटनाचक्र से पुनः 1999 में आशा जगी। पर फिर धक्का ही मिला। वही क्रम अभी तक जारी है। नेतृत्व में मुद्दों की समझ तक का अभाव है। वे अज्ञान और अहंकार में फूले दिखते हैं। मानो कोई मुद्दे ही नहीं हैं! केवल आत्म-प्रशंसा के ढोल बजाना, और दूसरे दलों को नीचा दिखाना मुख्य काम है।
इस प्रकार, बार-बार धोखा खाकर हिन्दू समाज नेतृत्वविहीन है। वह मरा नहीं है, धर्म-चेतना भी खत्म नहीं हुई है। पर उस के नेता इस चेतना का च भी नहीं जानते लगते। इसीलिए तिकड़म करते, बरगलाते, तमाशा करते, बहाने बनाते, बात बदलते, समय काटते, और हिन्दुओं को डराते-धमकाते भी हैं। सब कुछ करते हैं, सिवा उचित काम करने के। हिन्दू-मुस्लिम समस्या के समाधान पर उन की कल्पनाएं इसी का दयनीय प्रदर्शन है। वे चाहते हैं कि किसी तरह, संयोगात्, दैवात्, या विदेशियों द्वारा कुछ हो जाए!
यही पॉकटमार मानसिकता है। भीतर से कुछ, बाहर कुछ और। विश्वासपूर्वक कुछ भी उचित कर सकने का मनोबल नहीं। उस की चाह है कि किसी तरह कुछ हाथ आ जाए और बलवान विरोधियों का सामना न करना पड़े। यह मानसिकता हिन्दू शिक्षा से तो शून्य है ही। यूरोपीय, सभ्यता के स्वतंत्रता, समानता परक, आत्माभिमानी मूल्यों से भी दूर है। यूरोप में कुछ सम्मानजनक मानदंड और पारदर्शी, उत्तरदायी परंपराएं हैं। हमारे नेता उस में भी सिफर हैं।